newsroompost
  • youtube
  • facebook
  • twitter

कौम के नाम तमाम मुस्लिम सांसद लेकिन सेक्युलर हिंदू सांसद अब भी चुप हैं, आखिर कब जागेंगे !

उन हिंदू सांसदों से भी है जो चुनावों से पहले मंदिरों में दर्शन करते हैं, गोशालाओं में फोटो खिंचवाते हैं — वे संसद में मौन क्यों रहते हैं? जब हिंदुओं के मंदिरों को नियमों में बांधा जा सकता है, तो वक्फ को नियमों में क्यों नहीं बांधा जा सकता?

वक्फ संशोधन विधेयक 2025 के संसद में पारित होने के बाद देश की सियासत एक नए मोड़ पर आ खड़ी हुई है। इस विधेयक का विरोध करते हुए जेडीयू के कई मुस्लिम नेताओं ने न केवल विरोध दर्ज कराया, बल्कि पार्टी से इस्तीफा देकर यह संदेश दिया कि वे ‘कौम’ के हित से समझौता नहीं करेंगे। जैसी एकता मुस्लिम नेता अपनी कौम के लिए दिखा रहे हैं, वैसी एकता बाकी के हिंदू सांसद कब अपने धर्म के लिए दिखाएंगे। यदि ऐसी ही एकता उन्होंने दिखाई होती तो इसके समर्थन में लोकसभा में सिर्फ 288 वोट नहीं पड़ते, वोटों की संख्या कहीं ज्यादा होती।

वर्तमान लोकसभा में 24 मुस्लिम सांसद हैं, एक ने भी इस बिल के समर्थन में वोट नहीं किया, लेकिन इसके विरोध में वोट करने वाले कितने ही हिंदू सांसद हैं, जिन्होंने सिर्फ और सिर्फ राजनीति के लिए वक्फ में संशोधन किए जाने विरोध किया। जबकि वक्फ संशोधन विधेयक के विपक्ष में वोट करने वाले सभी सांसद यह जानते हैं कि वक्फ को बनाया गया यह कानून मुस्लिमों के हित में और वक्फ की मनमानी रोकने के लिए लाया गया है, बावजूद इसके उन्होंने विपक्ष में वोट किया। इस विधेयक को कानून बनने से रोकने के लिए मुस्लिम सांसदों का वोट करना तो समझ में आता है, क्योंकि उन्हें अपनी कौम को जवाब देना है। जिस क्षेत्र से वे जीतकर पहुंचे हैं, वहां के मुसलमानों को उन्हें जवाब देना है, लेकिन इसको लाए जाने का विरोध कर रहे बाकी हिंदू सांसदों का क्या? उन्होंने भी इसके विरोध में वोट किया। सोनिया गांधी तो आधी रात को सदन में पहुंची ताकि इसके विरोध में वोट कर सकें।

वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 के खिलाफ विभिन्न अदालतों में कई याचिकाएं दायर की गई हैं। हाल ही में, 7 अप्रैल 2025 को, जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने सुप्रीम कोर्ट में इस अधिनियम को चुनौती देते हुए याचिका दायर की है। वहीं पहले आम आदमी पार्टी के विधायक अमानतुल्लाह खान, कांग्रेस सांसद मोहम्मद जावेद, और एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स ने याचिका दायर की हुई है। असदुद्दीन ओवैसी ने भी याचिका दायर की है। केरल के एक संगठन ‘केरल जमीयतुल उलेमा’ ने भी इस कानून के खिलाफ याचिका दायर की है। आगे भी याचिकाएं इस कानून के खिलाफ दायर की जाएंगी। तमाम मुस्लिम नेता और संगठन पूरा जोर लगाएंगे कि इस कानून की राह में रोड़े अटकाए जाएं। वक्फ की संपत्ति का हिसाब-किताब हो, उसकी मनमानी पर रोक लगे, ये कौम को मंजूर नहीं है।

देश में भले ही लोकतंत्र है, कानून हैं, संविधान है लेकिन उन्हें इससे कोई मतलब नहीं। वे संसद के बनाए हुए कानून को भी मानने को तैयार नहीं हैं, क्योंकि कौम को जवाब देना है? वहीं मंदिरों को लेकर दशकों से मनमानी हो रही है। देश के बड़े मंदिरों की होने वाली आय का सारा हिसाब-किताब उन राज्यों की सरकारें रखती हैं जहां वे मंदिर हैं। इसको लेकर हिंदू सांसद कब एक होंगे? विचारधारा अलग हो सकती है, अन्य किसी मुद्दे पर मतभेद भी हो सकते हैं, लेकिन कम से कम धर्म के मामले में तो एक हुआ ही जा सकता है, लेकिन नहीं — सेक्युलर दिखने के लिए, वोट बैंक की राजनीति के लिए वे ऐसा नहीं करेंगे।

वैसे भी हमारे देश की राजनीति में ‘हिंदू हितों’ की बात करने को दशकों से सांप्रदायिकता के चश्मे से देखा जाता है, वहीं ‘अल्पसंख्यक हितों’ की बात करने वाले नेताओं को प्रगतिशील और निरपेक्ष समझा जाता है। सवाल यहां उन हिंदू सांसदों से भी है जो चुनावों से पहले मंदिरों में दर्शन करते हैं, गोशालाओं में फोटो खिंचवाते हैं — वे संसद में मौन क्यों रहते हैं? जब हिंदुओं के मंदिरों को नियमों में बांधा जा सकता है, तो वक्फ को नियमों में क्यों नहीं बांधा जा सकता?

संसद के दोनों सदनों से पारित होने के बाद, राष्ट्रपति से मंजूरी मिलने के बाद विधेयक के कानून की शक्ल ले लेने के बाद भी मुस्लिम नेता इसका विरोध कर रहे हैं। न्यायालय की शरण में जा रहे हैं। जिस पार्टी में दशकों से काम कर रहे हैं, वहां से इस्तीफा देकर कौम के लिए एकजुटता दिखा रहे हैं। ऐसे में हिंदू समाज को भी उनके क्षेत्र से चुने गए प्रतिनिधि से यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि क्या वे सिर्फ वोट मांगने के समय ही हिंदू होते हैं? क्या धर्म के लिए, आस्था के लिए, मंदिरों और साधुओं के सम्मान के लिए उन्हें एकत्रित होकर आवाज नहीं उठानी चाहिए ?

डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।