
अन्य मजहबी किताबें तो लगातार विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जा रही हैं, उनमें भी ऐसी बातें लिखी हैं जिनसे सारे इत्तफाक नहीं रखते, आज मनुस्मृति को हटाया जा रहा है क्यों ? यदि उसमें कुछ गलत है तो बताएं, एक प्राचीन ग्रंथ को कोर्स से हटाए जाने का क्या मतलब। अब क्या केवल तथाकथित उदारपंथी वामपंथियों की मंशा से कोर्स का हिस्सा बनाया जाएगा। क्या अब वही कोर्स और उन्हीं विचारकों की किताबों को छात्रों को पढ़ाया जाएगा जो भारत की सांस्कृतिक जड़ों को छिन्न-भिन्न करने वाली जमात को रास आती हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय ने जातिगत भेदभाव पर चिंताओं का हवाला देते हुए विरोध के बाद मनुस्मृति को अपने संस्कृत पाठ्यक्रम से हटा दिया है। विश्वविद्यालय (डीयू) ने एक्स पर पोस्ट कर लिखा है कि संस्कृत विभाग के कोर्स धर्मशास्त्र स्टडीज में ‘मनुस्मृति’ को जरूरी बताया गया था लेकिन अब उसे हटा दिया गया है।
यहां सवाल मनुस्मृति पढ़ाए जाने या न पढ़ाए जाने को नहीं है। यहां सवाल यह है कि निशाने पर मनुस्मृति ही क्यूं ? कहा गया है कि छात्रों एक समूह के विरोध के बाद यह निर्णय लिया गया। चलो मान लेते हैं ऐसा हुआ होगा, लेकिन अन्य मजहबी किताबें तो लगातार विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जा रही हैं, उनमें भी ऐसी बातें लिखी हैं जिनसे सारे इत्तफाक नहीं रखते, आज मनुस्मृति को हटाया जा रहा है क्यों? यदि उसमें कुछ गलत है तो बताएं, एक प्राचीन ग्रंथ को कोर्स से हटाए जाने का क्या मतलब है, क्या यह वामपंथी एजेंडा नहीं है? कल को आप कहेंगे गीता न पढ़ाई जाए, रामायण भी न पढ़ाया जाए।
धर्मशास्त्र स्टडीज में और पढ़ाया क्या जाएग। मजहबी तालीम में कुरान ही पढ़ाई जाती हैं न, उसी से हाफिज और आलिम जैसी डिग्री लेकर आईएएस तक की परीक्षा मुस्लिम युवक पास करते हैं। क्या दिल्ली में वामपंथी विचारक कार्ल मार्क्स, फ्रायड और एडवर्ड सईद जैसों को नहीं पढ़ाया जाता? ये ऐसे विचारक हैं जिनकी सोच बिल्कुल भी भारतीय संस्कृति से नहीं मिलती। उससे कोसों दूर है। जब इनको पढ़ाया जा रहा है तब तो वामपंथी और जातिगत वैमनस्य फैलाने वाली बिग्रेड खामोश रहती है क्यूं?
मनुस्मृति को पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाना इसलिए जरूरी नहीं है कि वह सब कुछ सही कहती है, बल्कि इसलिए जरूरी है कि वह भारत की धर्मशास्त्रीय परंपरा की एक मूलधारा है। उसमें क्या ठीक है, क्या अनुचित—इस पर चर्चा की जा सकती है। लेकिन चर्चा से डरकर ग्रंथ को क्यूं कोर्स से हटाना? भारत की संस्कृति विमर्श से चलती है, विरोध से नहीं, ऐसी ही भारतीय शिक्षा प्रणाली है। अन्य मजहबी किताबों में लिखी बातों को भी विरोध होता है, उन्हें तो कोर्स से नहीं हटाया जाता।
जिन शिक्षकों और छात्रों ने मनुस्मृति को हटवाया, उनमें से कितनों ने उसे पढ़ा है, समझा है, उसके बारे में कितना जानते हैं, हमारी ज्ञान परंपरा में ज्ञान का स्थान सर्वोपरि रहा है। हम कभी ग्रंथों को जलाने या हटाने की बात नहीं करते, हम तो शास्त्रार्थ करते हैं। यदि मनुस्मृति में कुल गलत लिखा है तो बताएं न, लेकिन उसे पूरी तरह से खारिज कर देना यह तो कोई बात नहीं हुई। इसका अर्थ तो यह हुआ कि विश्वविद्यालय दबाव में आकर फैसले लेता है।
देशभर के मदरसों में मजहबी तालीम दी जाती है। वहां से निकले हाफिज और आलिम जैसी डिग्री लेकर जब मुस्लिम युवक यूपीएससी जैसी परीक्षाओं में शामिल होते हैं, और सफल भी होते हैं, इसका तो कोई विरोध नहीं करता कि कैसे कोई मजहबी शिक्षा के आधार पर आईएएस जैसी परीक्षा में बैठ सकता है।
परीक्षाओं में भाग लेकर सफल होते हैं तो यह उनकी धार्मिक शिक्षा के प्रभाव को भी दर्शाता है। फिर केवल हिन्दू धर्म के ग्रंथों को पाठ्यक्रम से हटाने की मांग क्यों उठती है? क्या यह दोहरे मापदंड नहीं हैं? आज मनुस्मृति हटाई गई, तो कल कोई कहेगा कि गीता, महाभारत और रामायण भी पाठ्यक्रम भी नहीं पढ़ाएं जाने चाहिए, क्योंकि इससे उनकी भावनाएं आहत होती हैं, तो क्या उनको भी हटा दिया जाएगा।
मनुस्मृति कोई हाल ही में लिखी गई पुस्तक या ग्रंथ नहीं है, यदि किसी को उसमें कुछ अनुचित लगता है तो उसका समाधान निकाला जाए। हिंदू धर्म में तो कहीं ऐसा नहीं है कि आप किसी लीक पर ही चलें। आप सहमत हैं किसी बात से ठीक, नहीं हैं तो भी ठीक। यदि इस तरह दबाव में आकर प्राचीन शास्त्रों को शिक्षा प्रणाली से हटा दिया जाएगा तो धर्मशास्त्र स्टडीज जैसे विषय में छात्र पढेंगे क्या ?
डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।