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हिंदी विवाद की हवा निकली तो परिसीमन का डर दिखा कर उत्तर—दक्षिण की राजनीति पर उतारू हुए स्टालिन

पिछले 50 सालों से परिसीमन नही हुआ है। परिसीमन का विरोध करना न सिर्फ संविधान का अपमान है बल्कि लोगों को सही प्रतिनिधित्व से वंचित करना है

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन पहले हिंदी भाषा को लेकर तमिलनाडु के लोगों की भावनाएं भड़काने का प्रयास कर रहे थे, अब परिसीमन के मुद्दे पर लोगों की भावनाएं भड़काने और उत्तर और दक्षिण विवाद पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। दरअसल उनका असल डर आने वाले विधानसभा चुनावों में हार का है। हिंदी को बढ़ावा देने के उनके विवाद की हवा निकल चुकी है, तो अब इस विवाद को पैदा करने का प्रयास कर रहे हैं। उनका एकमात्र लक्ष्य किसी न किसी तरह विवाद पैदा करना है ताकि वह अपनी चुनावी नैया पार लगा सकें। परिसीमन के मुद्दे को तूल देना इसी रणनीति का एक हिस्सा है।

जनसंख्या के आधार पर परिसीमन के मुद्दे को लेकर राजनीति कर रहे स्टालिन का कहना है कि दक्षिण भारत के राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण के प्रयासों को अपनाया, इसलिए दक्षिण के राज्यों में जनसंख्या कम है। यदि इस आधार पर परिसीमन किया जाता है, तो दक्षिण भारत का प्रतिनिधित्व कम हो जाएगा। इस विषय पर हुई बैठक में स्टालिन, केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन, ओडिशा के पूर्व मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार, और तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्‌डी भी शामिल हुए। एक तरफ तो कांग्रेस के सर्वमान्य नेता राहुल गांधी लगातार यह राग अलापते रहते हैं कि ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी साझेदारी’ यानी जिसकी संख्या जितनी है, उसे उतनी हिस्सेदारी भी मिलनी चाहिए। यदि ऐसा है, तो फिर परिसीमन से ऐतराज क्यों होना चाहिए? जाहिर है, इस मामले में कर्नाटक की कांग्रेस सरकार के उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार और तेलंगाना की कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी को शामिल नहीं होना चाहिए था।

स्टालिन का यह तर्क बेतुका है कि दक्षिण के राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए प्रयास किए इसलिए इन राज्यों में जनसंख्या कम है। जनसंख्या तो पलायन से भी बढ़ती है। औद्योगीकरण (इंडस्ट्रियलाइजेशन), विकास (ग्रोथ), सुविधाएं, और अवसर (अपॉर्चुनिटी) पलायन (माइग्रेशन) के मुख्य कारण होते हैं। जब किसी क्षेत्र में औद्योगीकरण तेजी से होता है, तो वहां रोजगार के अवसर बढ़ते हैं और बेहतर बुनियादी ढांचा, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, और अन्य सुविधाएं उपलब्ध होती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि लोग उन क्षेत्रों की ओर पलायन करते हैं जहां उन्हें एक बेहतर भविष्य और जीवन स्तर की संभावना दिखाई देती है। उदाहरण के तौर पर छोटी सी दिल्ली की आबादी तीन करोड़ को छूने जा रही है। दिल्ली में हर राज्य के लोग रहते हैं। ऐसे में यदि यहां पर लोकसभा सीटें बढ़ती हैं, तो विकास ही होगा। इस तरह देश के अन्य महानगर मुंबई, चेन्नई, कोलकाता और अन्य बड़े शहर हैं जो विभिन्न राज्यों में हैं। इसी तरह बेंगलुरु और हैदराबाद आईटी के हब हैं। वहां आईटी पेशेवरों के साथ बहुत से लोग रोजगार की तलाश में वहां जाकर रह रहे हैं। ऐसे में नियमानुसार परिसीमन किए जाना बेहद जरूरी है।

1973 में 31वें संविधान संशोधन के तहत लोकसभा की सीटों की संख्या 525 से बढ़ाकर 545 की गई थी। यह संशोधन 1971 की जनगणना के आधार पर किया गया था। इसका उद्देश्य लोकसभा में राज्यों का प्रतिनिधित्व बढ़ाना था। इसके बाद इसी जनगणना के आधार पर 1976 में परिसीमन होना था, लेकिन तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने इसे 25 साल के लिए टाल दिया। 2001 में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने, तब मिली—जुली सरकार थी तो सबकी सहमति न बन पाने के कारण उसे 2026 तक फिर से टालना पड़ा। जनसंख्या में होती वृद्धि, पलायन, बढ़ते शहरीकरण जैसे कारणों के चलते परिसीमन किया जाना समय की मांग है। पिछले 50 सालों से परिसीमन टलता रहा है, नतीजतन लोकसभा में 50 सालों से उतनी ही सीटें चली आ रही हैं, जितनी थीं। राज्यों की जनसंख्या में वृद्धि होने के बाद सदन में उनका प्रतिनिधित्व बढ़ाए जाने की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही है, ऐसे में परिसीमन का विरोध करना न सिर्फ संविधान का अपमान है, बल्कि विकास की राह में एक रोड़ा भी है।

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह पहले ही आश्वासन दे चुके हैं कि परिसीमन के चलते दक्षिण भारतीय राज्य संसदीय सीटें नहीं खोएंगे। बावजूद इसके स्टालिन कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के साथ मिलकर विवाद खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं। उनकी एकमात्र मंशा लोगों को भड़काने की ही है। ताकि उत्तर—दक्षिण विवाद पैदा कर वह इसकी आड़ में अपनी राजनीतिक रोटियां सेक सकें। स्टालिन का यह दावा कि परिसीमन के बाद दक्षिण के लोगों का सदन में प्रतिनिधित्व कम हो जाएगा, कतई झूठा है। उदाहरण के लिए 2011 की जनगणना के अनुसार कर्नाटक की आबादी 6.11 करोड़ थी और केरल की 3.34 करोड़ थी। वर्तमान में केरल में 20 लोकसभा सीट हैं और लगभग दोगुनी आबादी होने के बाद भी कर्नाटक में लोकसभा की सिर्फ 28 सीटें हैं। ऐसे में यदि परिसीमन नहीं होगा तो क्या कर्नाटक के लोगों के साथ अन्याय नहीं होगा? वहीं यदि परिसीमन होगा तो कर्नाटक की सीटें बढ़ेंगी और लोगों को बराबर का प्रतिनितित्व मिलेगा। इसलिए सीटें घटने का का दावा झूठा साबित हो जाता है। परिसीमन के बाद राज्यों की सीटें बढ़ेंगी और सदन में उनके प्रतिनिधि बढ़ेंगे। झूठा डर दिखाकर यदि परिसीमन को टालने का दबाव बनाया गया और परिसीमन को फिर से रोक दिया गया तो यह लोगों के साथ अन्याय ही होगा।

स्टालिन इस मुद्दे को राजनीतिक लाभ के लिए उठा रहे हैं, जो उत्तर और दक्षिण के बीच की खाई को बढ़ाने वाला है। यह मुद्दा संवेदनशील है, इस पर संतुलित दृष्टिकोण बनाए रखने की आवश्यकता है। देश की बढ़ रही आबादी के हिसाब से सीटों का बढ़ाया जाना बेहद जरूरी है। सीटें बढ़ेंगी तभी जनता को सदन में बराबर प्रतिनिधित्व मिलेगा। एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए बेहद जरूरी है कि समयानुकूल परिसीमन किया जाए। आबादी के हिसाब से लोकसभा सीटों का चयन न सिर्फ विकास के लिए आवश्यक है, बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने और बेहतर करने के लिए भी जरूरी है।

डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।