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Bihar: बिहार को एक नेता चाहिए

Bihar: बिहार में राजनीति ऐसे हीं निहित स्वार्थी लोगों का मंच बन गया है। ये लोग सत्ता में बने रहने के लिए सभी प्रकार के बुराइयों का उपयोग कर रहे हैं। कहना न होगा कि जैसे ही सत्ता में जाने हेतु बुरे साधनों का उपयोग आरंभ हो जाता है तो इसका कुप्रभाव जीवन के प्रत्येक दिशाओं में परिलक्षित होने लगता है।

बिहार को एक नेता चाहिए, इस शीर्षक को पढ़कर आपको आश्चर्य अवश्य होगा। ज़रा सोचिए कि जिस प्रदेश में प्रत्येक चौक-चौराहों पर नेता हो तो फिर वहां नेता की तलाश क्यों है? क्या यह चिंतनीय और सोचनीय नहीं है। क्या समाज को इस मुद्दे पर विचार नहीं करनी चाहिये? उल्लेखनीय है कि इसी बात को दृष्टिगत रखते हुए यह लेख लिखा जा रहा है। बिहार में आज आवश्यकता है- एक दूरदर्शी, समदर्शी और प्रियदर्शी व्यक्तित्व की। अनुभव कहता है कि प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जब भी अच्छे लोगों के हाथ में राजनीति आती है तो अभूतपूर्व परिवर्तन होता है, जबकि इसके विपरीत जब सत्ता बुरे लोगों के हाथों में आ जाती है तो समाज का पतन होने लगता है। देखिए राजनीति में बुरा व्यक्ति का लक्षण यह है कि वह केवल अपने सत्ता और स्वार्थ को ही प्राथमिकता देता है।

Nitish Kumar and rjd leader tejashwi yadav

बिहार में राजनीति ऐसे हीं निहित स्वार्थी लोगों का मंच बन गया है। ये लोग सत्ता में बने रहने के लिए सभी प्रकार के बुराइयों का उपयोग कर रहे हैं। कहना न होगा कि जैसे ही सत्ता में जाने हेतु बुरे साधनों का उपयोग आरंभ हो जाता है तो इसका कुप्रभाव जीवन के प्रत्येक दिशाओं में परिलक्षित होने लगता है। उल्लेखनीय है कि राजनीति व्यक्ति और समाज के जीवन का थर्मामीटर होता है। एक बार राज व्यवस्था में भ्रष्ट, धर्मभाव से हिन और राजद्रोही व्यक्ति सत्ता हथियाने में सफल हो जाए तो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बुरा आदमी सफल होने लगता है और अच्छा आदमी हतोत्साहित होकर अपनी हार मान लेता है। उससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है? इस दृष्टि से बिहार के पतन का करण बुरे लोग नहीं हैं अपितु वे सभी तथाकथित अच्छे लोग है जो आपस में संगठित नहीं हैं।

राजनीतिक शास्त्री कहते हैं कि राजनीति के पास सबसे बड़ी शक्ति होती है। अतः अगर राजनीति स्वस्थ्य और शुद्ध नहीं है तो इसका बड़ा हीं नकारात्मक असर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पड़ता है। कहना न होगा कि सत्ता की नक़ल लोग बड़े हीं तेज गति से करने लगते हैं और सत्ता में बैठे लोग ठीक नहीं हैं तो इसके परिणाम का अनुमान लगा सकते हैं। बिहार में हिंसा, भ्रष्टाचार, राष्ट्र और धर्म के प्रति विमुखता राजनीति में इसी प्रवृति का द्योतक है।

आज यहां की राजनीति में अच्छे लोगों की आवश्यकता है। अच्छा व्यक्ति सत्ता में होगा तो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अच्छे लोग हीं आएंगे। सम्प्रति बिहार की राजनीति हमें बहुत बड़ा मौका दे रही है की हम पार्टी से अधिक व्यक्ति को प्राथमिकता दें तभी यहां आमूल-चूल परिवर्तन होगा। आवश्यकता है आगे बढ़कर नेतृत्व लेने की दुखद यह है कि आज प्रदेश में अधिकांश ऐसे नेता हैं जिन्हें संपूर्ण बिहार से कुछ लेना-देना नहीं है। वे अपने को एक दायरे में क़ैद रखे हैं। वे केवल एक विशेष वर्ग और सम्प्रदाय का हीं प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रतिनिधि होने के कारण किसी भी दल में उनकी यहीं योग्यता है। यहीं नहीं वे चुनाव जितने के बाद भी अपने संवैधानिक दायित्वों के निर्वहन नहीं करते, प्रदेश जाए गर्त में वे केवल सत्ता स्वार्थ और पदलोलूपता की राजनीति में हीं व्यस्त रहते हैं। कहना न होगा की बिहार ऐसे हीं चरित्र का नमूना बन गया है। राजनीति में पल्टूराम इसका ताजा उदाहरण है।

NITISH2

अब प्रश्न उठता है कि क्या ऐसी कुव्यवस्था के किए केवल राजनीतिक दल के नेता हीं उत्तरदायी हैं? इसके विश्लेषण के लिए यहाँ प्राचीन राजनीतिशास्त्री आचार्य चाणक्य को उद्धृत करना ज़रूरी है। आचार्य चाणक्य ने जन प्रतिनिधि को आइना कहा है। उनके कहने का तात्पर्य है कि आइना में स्वयं का चेहरा हीं दिखाई देता है, अर्थात् हम जैसे होते हैं वैसा हीं नेता हमें मिलता है। अतः स्वाभाविक है कि हमारे नेताओं के लिये अंततः जिम्मेवारी हमारी ही है। हमारे नेता हमसे कुछ भी भिन्न नहीं हैं, और हमने हीं तो उन्हें चुना है। अगर हम चरित्र से हिन हैं, स्वार्थी हैं, हमारी निष्ठा समाज और राष्ट्र के प्रति नहीं है तो हमारा प्रतिनिधि भी वैसा हीं होगा। इसप्रकार हमारे द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि हम सभी के सामूहिक चरित्र और व्यक्तित्व का हीं प्रमाण है। अगर हम सजग होते, हमारी भी कोई राजनीतिक चेतना होती तो आज हमें इसपर विचार करने की आवश्यकता नहीं होती।

बिहार की वर्तमान स्थिति को इस कहानी के माध्यम से और बेहतर समझा जा सकता है:

एक साहब एक शानदार होटल में पहुंचे और उन्होंने उमदा कीमती खाना खाया। जब बैरा बिल लाया, तो उन्होंने पैसे देने से इनकार कर दिया। बैरा मैनेजर के पास पहुंचा, उसे सारी बातें बताईं। मैनेजर ने आकर उनकी अच्छी तरह मरम्त की मार खाकर वह कराहते हुए दरवाजे की तरफ बढ़ रहे थे कि अचानक बैरे ने झपटकर उनके मुंह पर दो घूंसे रसीद दिये। मैनेजर ने बैरे को डांटा, जब मैं मार चुका हूं, तो तुम्हें मारने की क्या जरूरत पड़ी? बैरे ने कहा: जी, वह तो आपने अपना बिल वसूल किया था; मुझे भी तो अपना टिप वसूल करने दीजिए। तो नेता हैं, वे अपना बिल वसूल कर रहे हैं; उनके चमचे हैं, वे अपना टिप वसूल कर रहे हैं। जनता कुटे-पिटे जा रही है फिर भी हम इन्हीं को बार-बार समर्थन दिये जा रहे हैं। पुनः मुख्य विषय पर आते हैं और अपने आप से पुनः पूछते हैं कि आख़िर बिहार को एक नेता क्यों चाहिये?

prashant kishor and tejashwi yadav

यहां नेता से हमारा मतलब एक रोल मॉडल अर्थात् आदर्श व्यक्तित्व से है। ऐसा नहीं है की हमारे यहां नेता नहीं हैं पर वे दूरदर्शी, समदर्शी और प्रियदर्शी नहीं हैं। परिणामतः बिहार समाज, संस्कृति, अर्थव्यवस्था तथा सुशासन आदि मानकों पर देश में निचले पायदान पर है। ढांचागत हिंसा का एक ऐसा वातावरण बना हुआ है कि जिस दिन विस्फोट हुआ उस दिन हमारी अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। इस दिशा में बिहार का कट्टर इस्लामिक संगठन PFI की राजधानी होना, सीमांचल की जनसंख्या परिवर्तन, अन्यान्य कारणों से बड़े पैमाने पर लोगों का पलायन, शिक्षा और स्वास्थ्य आदि की दृष्टि से सबसे गरीब राज्य आदि कुछ बिंदुओं का उल्लेख समीचीन है।

अब प्रश्न उठता है कि समाधान कहां से आएगा ? उल्लेखनीय है कि लेख का शीर्षक इसी ओर इशारा कर रहा है। वर्तमान व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन केवल किसी व्यक्ति या संगठन विशेष सम्भव नहीं है। इस महती कार्य के लिए बिहार के सामूहिक चेतना को जागृत करना होगा, इसी जागृति से आदर्श नेतृत्व का जन्म होगा मानते हैं कि यह चुनौतीपूर्ण है पर असम्भव नहीं है। सामूहिक रूप से हम लोगों के दृष्टिकोण और मनोदशा में परिवर्तन का सकते हैं। कहना न होगा कि भूतकाल में भी बिहार ने राज्य तथा देश को जड़ता की स्थिति से बाहर लाने में अग्रणी भूमिका निभाया है। अतः यह नामुमकिन नहीं है।

चिंतनीय है कि हमारे बीच हज़ारों की संख्या में वैज्ञानिक क्षमता तथा जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रतिभा के धनी लोग हैं, फिर भी हम ज़्यादातर सड़े-गले लोगों को अपना प्रतिनिधि बनाते आ रहे हैं जो सिर्फ समय काट रहे हैं और समय के साथ समस्याएं और बढ़ती चली जा रही हैं। भाजपा जो कि एक राष्ट्रीय दल है उसने किसी काबिल व्यक्ति को नेता के तौर पर उभरने ही नहीं दिया। राजनीतिक पर्यवेक्षकों तथा भाजपा के हीं कुछ कर्मठ कार्यकर्ताओं का मानना है कि भाजपा ने जानबूझकर बिहार में अपने दल कि अगुवाई करने के लिए हमेशा कमजोर व्यक्ति का चयन किया ताकि केन्द्रीय नेतृत्व का वर्चस्व बना रहे।

राष्ट्रीयता के स्थान पर जातीय समीकरण साधने के क्रम में भाजपा ने कुछ अनजान लोगों को सरकार में नेतृत्व की जिमेदारी देकर अपने राजनीतिक तुष्टिकरण का परिचय दिया। राजनीतिक जानकारों का यह भी मनना है कि भाजपा राष्ट्रवाद की बात करती है, जबकि बिहार मे जातीय तुष्टिकरण को रही है। कहना न होगा कि बिहारी नरेंद्र मोदी के नीतियों और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर अपनी जातीय पहचान से ऊपर उठ रहे थे पर यहां की स्थानीय नेतृत्व ने यह नहीं होने दिया और परिणाम आज सामने है।

कांग्रेस में नेता की जरूरत ही नहीं है क्योंकि सब कुछ दिल्ली से तय होता है। राजद मे लालू परिवार के अतिरिक्त नेता की कल्पना ही नहीं है। क्या प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी की तर्ज पर चलने वाली परिवारवादी से नेता निकल सकता है? पंद्रह अगस्त को लाल क़िले से अपने संबोधन में पीएम ने भी परिवार आधारित दलों को लोकतंत्र के लिए ख़तरा बताया था। कहना न होगा कि वह परिवार किसी व्यक्ति का हो या संगठन का। यहीं कारण है कि बिहार से चमचे तो निकल रहे हैं पर नेता नहीं निकल रहा। जनता दल (यूनाइटेड) मे आन्तरिक लोकतंत्र नही होने से नेता केवल नीतीश कुमार है। वहां पर नेता की अवधारणा ही नहीं है। वामपंथ पार्टीया व छोटे दल का एजेण्डा केवल सत्ता मे छोटी मोटी भागीदारी तक सीमित है इसलिए वहाँ पर नेता होने का कोई अर्थ ही नहीं है।

तो प्रश्न उठता है कि नेता कौन होता है? नेता वह होता है जो राज्य और राष्ट्र निर्माण के लिए समर्पित हो। जो रस्ते को दिखाकर उसपर आगे चले और लोगो को अपने व्यक्तित्व तथा कर्मों से उसपर चलने के लिए प्रेरित करे। अभी बिहार में दूर-दूर तक वैसा वर्तमान राजनीतिक दलों मे कोई नहीं है क्योंकि उन दलों में वैसे व्यक्ति की कोई जगह ही नहीं है। बिहार में नेता का पद खाली है।

Bihar News

आजादी के दशकों बाद तक कुछ राजनीतिक दूरदर्शिता वाले नेता बिहार को दिशा दिए तथा अपने कर्म और निष्ठा से लोगों को प्रभावित किए। उसके बाद तथाकथित नेता जो भी हुए वे बिहार में पिछड़े बेचने की राजनीति मे लग गये क्योंकि उनके पास न तो चरित्र था न ही निष्ठा जिससे वे लोगों को प्रेरित करते। इस प्रक्रिया में नेता पिछड़ेपन की सोच मे विलीन होते गये और आज उनके लिए उसमें से निकल पाना मुमकिन नही है। इन सभी नेता वो ने मिलकर एक ऐसी राजनीतिक सोच को जन्म दिया जिसे हम तुष्टिकरण कहते हैं।

अब इनमे से किसी भी दल को इसमे से निकलना संभव नहीं, क्योंकि इनका आधार ही पिछड़े पन बेचने की प्रक्रिया है। पिछड़े से अति पिछड़े बनने और बनाने की होड़ लगी है। कुछ चुनावी रणनीतिकार भी लोगों को भ्रमित करने मे लगे हुए है। जनता एक नये नेता की तलाश में है। कौन नया राजनीतिक दल ही इसका विकल्प दे सकता है। समर्थ बिहार इस रजनीतिक विकल्प को आगे बढ़ायेगा।