नई दिल्ली। कभी स्वाधीनता के लिए तो कभी राम राज्य के लिए तो कभी राम लला के लिए अपनी आवाज़ मुखर करने वाले शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती हमारे बीच नहीं रहें। उन्होंने मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर स्थित अपने आश्रम में अंतिम सांस ली। खबरों की मानें तो वे विगत कई दिनों से अस्वस्थ्य महसूस कर रहे थे। लंबे समय तक उपचाराधीन रहने के दौरान आज उन्होंने हम सभी को हमेशा-हमेशा के लिए अलविदा कह दिया। आइए, आगे कि इस रिपोर्ट में जानते हैं कि कभी अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाले तो कभी राम लला के लिए अपना सर्वत्र न्योछावर कर देने वाले शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद का जीवन कैसा रहा? आखिर कब कैसे और कहां से उन्होंने अपने जीवन को इस संसार की भौतिक सुखों से खुद को विमुक्त करते हुए साधुत्व का भेष धारण कर लिया? आइए जानतें हैं।
Swami Swaroopanand Saraswati passes away at age of 99
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— ANI Digital (@ani_digital) September 11, 2022
शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद का जन्म 2 सितंबर 1924 को मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री धनपति उपाध्याय था व माता का नाम श्रीमती गिरिजा देवी था। स्वामी स्वरूपानंद का बचपन में नाम उनके माता-पिता ने पौधीराम उपाध्याय रखा था। 9 वर्ष की उम्र में अपने संन्यासी जीवन की शुरुआत करने के लिए उन्होंने अपना घर परिवार छोड़ दिया था और धर्म की यात्राएं शुरू कर दी थीं। इसी कड़ी में वे काशी पहुंचे, जहां उन्होंने श्री स्वामी करपात्री महाराज के सानिध्य में रहकर वेदों, पुराणों और शास्त्रों की शिक्षा ग्रहण की थी।
संन्यासी की राह पर चलकर बनें क्रांतिकारी साधु
19 वर्ष की उम्र में भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होकर वे क्रांतिकारी साधु के रूप में विख्यात हुए थे। जिसके बाद उऩ्होंने मध्य प्रदेश के जेल में 6 माह तक सलाखों के पीछे भी रहे। उन्होंने राजनीति में भी अपना हाथ आजमाया था। बता दें कि उन्होंने राम राज्य परिषद के नाम से दल का भी गठन किया था। इस दल के वे अध्यक्ष भी रहे। 1950 में उन्हें दांडी संन्यासी भी बनाया गया था। 1981 में उन्होंने संक्राचार्य की उपाधि प्राप्त की थी। बता दें कि हिंदू धर्म में शंकराचार्य सर्वोच्च पद माना जाता है।