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Lachit Borfukan : कौन थे लचित बोरफुकन जिनकी प्रतिमा का पीएम मोदी ने किया अनावरण

Lachit Borfukan : लचित बोरफुकन को पूर्वोत्तर का शिवाजी भी कहा जाता है। बोरफुकन ने अपने जीवन काल में शिवाजी की तरह ही कई बार मुगलों को धूल चटाई थी।

नई दिल्ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज अपने असम दौरे के दौरान होलोंगाथर में प्रसिद्ध अहोम योद्धा लचित बोरफुकन की 125 फिट ऊंची प्रतिमा का अनावरण किया। इसे ‘स्टैच्यू ऑफ वैलोर’ नाम दिया गया है। लचित बोरफुकन को पूर्वोत्तर का शिवाजी भी कहा जाता है। बोरफुकन ने अपने जीवन काल में शिवाजी की तरह ही कई बार मुगलों को धूल चटाई थी। आइए आपको विस्तार के लचित बोरफुकन के बार में बताते हैं-

लचित बोरफुकन का जन्म 24 नवंबर 1622 को असम में हुआ था। उस वक्त असम पर अहोम राजवंश का शासन था। उनके पिता का नाम मोमाइ तामुली बरबरुआ था, जो अहोम राजा प्रताप सिंह के मुख्य सेनाध्यक्ष थे, लाचित की मां का नाम कुंती मोरान था। पिता के जरिए लाचित को राज दरबार में भी जाने का मौका भी मिलता था, जिससे बचपन से ही उन्हें राजकाज का अनुभव होने लगा था।साल 1665 में लाचित को अहोम सेना का मुख्य सेनाध्यक्ष बनाया गया। इस सेनाध्यक्ष को ही बोरफुकन कहा जाता था। उस वक्त अहोम सेना में 10 जवानों का मुखिया या नायक को डेका कहा जाता था। 100 जवानों का मुखिया सैनिया कहलाता था। ऐसे ही एक हजार जवानों का नेतृत्व करने वाले को हजारिका और तीन हजार जवानों का नेतृत्वकर्ता राजखोवा होता था। छह हजार जवानों के नायक को फोकन कहा जाता था। इन सबका प्रमुख सेनाध्यक्ष होता था, जिसे बोरफुकन कहते थे।

लचित के बोरफुकन बनने से पहले ही साल 1661 में मुगलों की काली नजर बंगाल और असम पर पड़ गई और मीर जुमला व धीर खान को इन पर कब्जा करने के लिए भेज दिया। तब अहोम राजा मुगलों के हमले का माकूल जवाब नहीं दे पाए और उन्हें समझौता करना पड़ा था। लचित जब सेनाध्यक्ष बने तो अहोम राजा चक्रध्वज सिंगा ने उनको जिम्मा दिया कि गुवाहाटी से मुगलों को खदेड़ें। उन्होंने राजा के आदेश पर युद्ध की तैयारी शुरू कर दी। स्थानीय लोगों को अपनी सेना में भर्ती किया। स्थानीय स्तर पर मौजूद संसाधनों का ही इस्तेमाल कर अस्त्र-शस्त्र बनवाए। विशेष रूप से नावों का बेड़ा तैयार करवाया और तोपें बनवाईं। इसके बाद लचित नेअहोम सेना ने किले पर हमला कर गुवाहाटी को आजाद करा लिया।

इससे भड़के मुगल बादशाह औरंगजेब ने सेनापति राम सिंह की अगुवाई में 70 हजार सैनिक और एक हजार तोपें बड़ी नावों में रखकर गुवाहाटी की ओर भेज दीं। उसके सैनिक दिन में युद्ध करने के आदी थी। इसका फायदा उठाकर रणनीति के तहत लाचित ने छोटी-छोटी नावों से सैनिक भेजकर मुगल सेना पर रात में गोरिल्ला युद्ध शुरू कर दिया। इससे मुगल सैनिक घबराने लगे और आगे नहीं बढ़ पा रहे थे। काफी लंबे समय तक ऐसा ही चलता रहा। लड़ाई के पहले चरण में मुग़ल सेनापति राम सिंह असमिया सेना के विरुद्ध कोई भी सफलता पाने में विफल रहा। रामसिंह के एक पत्र के साथ अहोम शिविर की ओर एक तीर छोड़ा गया, जिसमें लिखा था कि लचित को एक लाख रूपये दिये गये थे और इसलिए उसे गुवाहाटी छोड़कर चला जाना चाहिए, यह पत्र अंततः अहोम राजा चक्रध्वज सिंह के पास पहुंचा। यद्यपि राजा को लचित की निष्ठा और देशभक्ति पर संदेह होने लगा था, लेकिन उनके प्रधानमंत्री अतन बुड़गोहेन ने राजा को समझाया कि यह लाचित के विरुद्ध एक चाल है।

सराईघाट की लड़ाई के अंतिम चरण में, जब मुगलों ने सराईघाट में नदी से आक्रमण किया, तो असमिया सैनिक लड़ने की इच्छा खोने लगे। कुछ सैनिक पीछे हट गए। यद्यपि लचित गंभीर रूप से बीमार थे, फिर भी वे एक नाव में सवार हुए और सात नावों के साथ मुग़ल बेड़े की ओर बढ़े। उन्होंने सैनिकों से कहा, “यदि आप भागना चाहते हैं, तो भाग जाएं। महाराज ने मुझे एक कार्य सौंपा है और मैं इसे अच्छी तरह पूरा करूंगा। मुग़लों को मुझे बंदी बनाकर ले जाने दीजिए, आप महाराज को सूचित कीजिएगा कि उनके सेनाध्यक्ष ने उनके आदेश का पालन करते हुए अच्छी तरह युद्ध किया। उनके सैनिक लामबंद हो गए और ब्रह्मपुत्र नदी में एक भीषण युद्ध हुआ। लचित बोरफुकन विजयी हुए। लचित बोरफुकन के पराक्रम और सराईघाट की लड़ाई में असमिया सेना की विजय का स्मरण करने के लिए संपूर्ण असम राज्य में हर साल 24 नवम्बर को लचित दिवस मनाया जाता है।