
नई दिल्ली। अपनी शायरी से लोगों के दिल पर राज करने वाले मशहूर उर्दू शायर बशीर बद्र का आज जन्मदिन है। ये महज इत्तेफाक नहीं, खुदा की सोची समझी साजिश लगती है, कि मोहब्बत के त्योहार वेलेंटाइन डे के ठीक दूसरे दिन इश्क के इस शायर का जन्म हुआ। भोपाल शहर से ताल्लुक रखने वाले 15 फ़रवरी 1936 को उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में जन्म लेने वाले बशीर साहब, मशहूर शायर और गीतकार ‘नुसरत बद्र’ के बेटे हैं। कहा जाता है, कि बशीर बद्र ने 7 बरस की उम्र से ही शेरो-शायरी शुरू कर दी थी और 50 साल से ज्यादा समय से हिंदी और उर्दू के देश में सबसे मशहूर शायर रहे हैं। दुनिया के दो दर्जन से ज्यादा देशों में मुशायरे कर चुकने वाले बशीर जिंदगी की आम बातों को अपनी शायरी में ढाल कर बड़ी आसानी से कह देते हैं। साहित्य में किए गए उनके योगदानों की वजह से साल 1999 में उन्हें ‘पद्मश्री’ और उर्दू के ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से नवाजा गया था।
जब भी कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका को अपने दिल का हाल बताना चाहता है, बशीर बद्र का शेर बेफिक्री से पढ़ता है, मानो ये शेर उसी के लिए लिखा गया हो। यहां तक संसद में भी अक्सर उनके शेर गूंजते सुनाई पड़ जाते हैं। एक बार मल्लिकार्जुन खड़गे ने संसद में बशीर साहब का शेर पढ़ते हुए अपनी बात रखी थी, उन्होंने पढ़ा था कि, एक बार मल्लिकार्जुन खड़गे ने संसद में बशीर साहब का शेर पढ़ते हुए अपनी बात रखी थी, उन्होंने पढ़ा था कि,
‘दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुँजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जायें तो शर्मिन्दा न हों’
मल्लिकार्जुन खड़के पर जवाबी तंज करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी बशीर साब के शेर का सहारा लिया था, तब उन्होने कहा था
‘जी बहुत चाहता है सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता’
कहा जाता है, बशीर बद्र ने 7 साल की उम्र से ही शेरो-शायरी शुरू कर दी थी और स्कूल में जब वो शेर पढ़ते थे, तो वे मशहूर हो जाया करतीं थीं। 1969 में जब बशीर बद्र ने अलीगढ़ विश्वविद्यालय में उर्दू में एमए करने के लिए एडमीशन लिया, तो उनकी ग़ज़लें वहां के पाठ्यक्रम में पहले से ही शामिल थीं और जब लोगों को पता चला,कि उन्होंने अभी एमए भी पास नहीं हैं, तो यूनिवर्सिटी में इस बात की चर्चा छिड़ गई, कि क्या वो अपनी ही ग़ज़ल पढ़कर परीक्षा देंगे। तब उनके प्रोफेसर ने उनके लिए अलग पेपर बनाने का आश्वासन दिया और कहा कि, उनकी ग़ज़लें सिखाई जाती रहेंगी। बशीर के लिए अलग पेपर बनाया गया उन्होंने परीक्षा दी और टाप भी किया, बाद में उन्होंने अलीगढ़ विश्वविद्यालय से ही पीएचडी भी की।
हालांकि डॉ. बशीर बद्र ने बचपन से ही ग़ज़ल लिखना शुरू कर दिया था, लेकिन उनकी रचनाएं 1980 के बाद मशहूर हुईं। 1999 में उन्हें साहित्य में अमूल्य योगदान के लिए ‘पद्म श्री’ से भी सम्मानित किया गया। उनका पूरा नाम ’सैयद मोहम्मद बशीर’ है। उन्हें आम आदमी का कवि कहा जाता है। बशीर ने अपनी शायरियों और ग़ज़लों में दर्द, खुशी, मोहब्बत लगभग हर भाव को बेहद सरल शब्दों में समेटा है, जो सीधे लोगों के दिलों तक पहुंचती है। बशीर अपनी शायरी और गजलों मे जिंदगी और माशुकों के दिल का हाल भी बड़ी आसानी से कह गए हैं, इसलिए उन्हें ‘महबूब शायर’ भी कहा जाता है। उन्होंने उर्दू साहित्य में शायरी और ग़ज़लों को एक नई शैली और स्वर दिया।
बता दें, पिछले कई सालों से बशीर ‘डिमेंशिया’ नाम की बीमारी से पीड़ित हैं, जिससे उनकी याददाश्त चली गई है, लेकिन डाक्टर के निर्देशानुसार उनकी ग़ज़लें पढ़कर उन्हें सुनाया जाता है, तो उन्हें अच्छा लगता है। शायरी सुनकर वो अपनी शायरी बोलने की कोशिश करते हैं। यह उनकी याददाश्त वापस लाने की एक थेरेपी है।