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एक अध्यापक का सफरनामा

“बड़ा मजा आता था उन दिनों। लाल मिटटी में लोटना और कुदाल चलाना। चांपा कल यानी बर्मा चलाकर क्यारियों की सिंचाई करना। इसका फायदा यह होता था कि सबके मन में मिट्टी रच बस जाती थी । जो बच्चा मिट्टी में काम कर लेगा वह कभी भी काम का मुल्यांकन छोटा काम और बड़ा काम करके नहीं करेगा। श्रम के प्रति सम्मान की भावना हमने बागवानी से ही सीखी है जो हम बचपन में करते थे”।

एक अध्यापक का सफरनामा

शायद मैं छठी कक्षा में पढ़ता था। स्कूल में सुबह प्रार्थना के समय रोज कोई न कोई बच्चा भाषण देता था। एक दिन मुझे भी अगले दिन प्रार्थना सत्र में किसी विषय पर बोलने के लिए कहा गया। छठी कक्षा का बच्चा क्या बोलता ? तो घर आकर पूज्य पिताजी से अपनी समस्या बताई। पिता जी ने मुझे भाषण तैयार कराया जिसका विषय था ‘अध्यापक के बिना हमारा जीवन कैसा हो सकता है’। पूरा भाषण तो आज याद नहीं है क्योंकि कलियुगी बुद्धि है जल्दी भूल जातें हैं, लेकिन भाषण की एक पंक्ति मुझे याद है। वह पंक्ति है ‘अध्यापक के बिना हमारा जीवन घास के उस तिनके की तरह है जिसे हवा कभी इधर उड़ाती है कभी उधर, अध्यापक हमारे जीवन को दिशा देता है… ।’ खैर! मैंने प्रार्थना में भाषण दिया और बहुत तालियाँ बजीं, उस दिन स्कूल के कई अध्यापकों ने मेरी बड़ी सराहना की । जीवन में पीछे झांककर देखते हैं तो पता चलता है कि हमारे जीवन में अध्यापकों ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। डॉ, रामजी दूबे भी ऐसे ही एक महान शिक्षक हैं । जिनकी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘एक अध्यापक का सफरनामा’ के बारे में पाठकों को बताने के लिए इस आलेख में लिख रहा हूँ।

दिल्ली विश्वविद्यालय के महर्षि वाल्मीकि कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन के प्रधानाचार्य डॉ. रामजी दूबे साहित्य लेखन और समाज सेवा में पुर्णतः समर्पित व्यक्तित्व हैं। बिहार के एक छोटे से गाँव शुरू हुई उनकी यात्रा (सफरनामा) देश की राजधानी दिल्ली तक कैसे चली इसका विवरण उन्होंने इस पुस्तक के माध्यम से किया है। पुस्तक का प्रस्तुतीकरण बहुत सरल और प्रभावशाली है। यही कारण है कि राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (National Book Trust, India) ने इस पुस्तक को प्रकाशित किया है। किसी भी पुस्तक का राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से प्रकाशित होना एक उपलब्धी माना जाता है।

पुस्तक की लेखन शैली इतनी रोचक है कि इसे पूरा पढ़े बिना कोई रह नहीं सकता। पुरानी पीढ़ी के लोगों को अपने बचपन की यादें फिर से ताजा हो सकती हैं और वे मंद मंद मुस्कुरा सकते हैं। डॉ. दूबे जापानी लेखिका तेत्सुको कुरोया नागी द्वारा बाल मनोविज्ञान पर लिखित सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘तोतो चान’ से बहुत प्रभावित हैं। उनका मानना है कि इस पुस्तक ने उनका कायाकल्प किया है और उन्हें एक साधारण मानव से एक रचनाकार बना दिया है। तोतो चान पुस्तक के बारे में मैंने भी बहुत सुन रखा है, यह बच्चों पर बहुत अच्छा प्रभाव डालती है।

बिहार के गाँव की धूल मिटटी में पले बढ़े डॉ. दूबे पुस्तक में एक जगह अपनी बागवानी कक्षा के बारे में बताते हुए एक बहुत ही प्रेरक बात लिखते हैं जिसको यहाँ लिखना मुझे जरूरी लगता है, वे लिखते हैं, “बड़ा मजा आता था उन दिनों। लाल मिटटी में लोटना और कुदाल चलाना। चांपा कल यानी बर्मा चलाकर क्यारियों की सिंचाई करना। इसका फायदा यह होता था कि सबके मन में मिट्टी रच बस जाती थी । जो बच्चा मिट्टी में काम कर लेगा वह कभी भी काम का मुल्यांकन छोटा काम और बड़ा काम करके नहीं करेगा। श्रम के प्रति सम्मान की भावना हमने बागवानी से ही सीखी है जो हम बचपन में करते थे”।

‘श्रम के प्रति सम्मान की भावना हमने बागवानी से ही सीखी है’ बड़ी महत्त्वपूर्ण बात है जो आजकल के बच्चों में विलुप्त हो गयी है । आजकल के बच्चों का होमवर्क तक उनके माता पिता को करना पड़ता है । श्रम किस खेत की मूली है यह आजकल के बच्चे नहीं जानते हैं । उनके लिए श्रम पिज़्ज़ा बर्गर खाने के लिए या मूवी देखने के लिए लाइन में लगना होता है । डॉ. दूबे की यह पुस्तक इस मूल्य निर्माण में बड़ी भूमिका निभा सकती है । पुस्तक में दिया गया गुरु भक्त आरुणी का उदाहरण बहुत प्रेरणादायक और प्रासंगिक है । डॉ. दूबे एक अध्याय में बड़ा गंभीर व्यंग्य करते हैं जो पाठकों को सोचने पर विवश करता है । डॉ. दूबे लिखते हैं, “बचपन में उर्जा की कमी तो होती नहीं है । खेल में वैसे भी थकान कम महसूस होती है । यह तो पढ़ाई लिखाई ही है जिसमें बालक जल्दी थक जाते हैं और मुक्त होने का बहाना तलाशने लगते हैं”।

एक अध्यापक का सफरनामा
एक अध्यापक का सफरनामा

डॉ. दूबे सरस्वती पूजा के नाम पर होने वाले अश्लील नाच गान और हरकतों पर भी इस पुस्तक के माध्यम से लोगों का ध्यान आकर्षित कराना चाहते हैं । ज्ञान की देवी की पूजा करते समय देश की कई राज्यों में फूहड़ता होती है इस बात को कोई नकार नहीं सकता है ।

कुल 23 अध्यायों और 96 पृष्ठों की इस छोटी सी पुस्तक में डॉ, दूबे ने अपने जीवन के साथ साथ ऐसे अनमोल विचार उत्पादित किये हैं जो आजकल के बच्चों और माता-पिता को बहुत ज्यादा प्रभावित कर सकते हैं । यह बात मैं एक बार में ही पूरी पुस्तक पढ़ने के बाद ही लिख रहा हूँ । देश का भविष्य कहलाने वाले बच्चों की नींव मजबूत होनी चाहिए, उसके अध्यापकों की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है । इसके साथ ही ‘एक अध्यापक का सफरनामा’ जैसी पुस्तकें ऐसे अध्यापकों और उनके छात्रों का मार्गदर्शक बनने की क्षमता रखती है । पुस्तक अमेज़न पर उपलब्ध है ।