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देवताओं की भूमि अयोध्या….!!!

Ayodhya, the land of gods : वहीं तुकाराम से तिरुवल्लुवर तक राम पीड़ित, वंचित की दार्शनिक अभिव्यक्ति भी बन जाते हैं। तुलसी ने वाल्मीकि के माध्यम से हमें बताया कि राम किसके हैं? और राम का कौन है? ‘जन्मस्थान मंदिर’ इन सभी मूल्यों का प्रकाश- स्तंभ बन सकता है।

हीरेन वी. गजेरा द्वारा लिखित

नई दिल्ली। इतिहास में ‘अयोध्या’ राम की नगरी रही है। अयोध्या हजारों वर्षों से सभ्यताओं के बनने-बिगड़ने के सतत क्रम की साक्षी रही है। सरयू की अनेक ‘नद्यः रश्मियों’ से घिरा यह भू-भाग अपने में कितने ही संदर्भ और साक्ष्य समेटे हुए है। वैदिक, सनातनी, जैन, बौद्ध, सिख दौर के अनेक साक्ष्य अयोध्या के गर्भ से मिलते रहे हैं। भारतीय पुरातत्त्व के सर्वेक्षणों और खुदाई से अयोध्या में नागरिक सभ्यताओं का इतिहास सातवीं सदी ईसा पूर्व तक का मिलता है। अयोध्या ने बुद्ध को आकर्षित किया और महावीर को भी। चीनी यात्री ह्वेनसांग और फाह्यान के जरिए जब भी भारत के इतिहास के मनकों को पिरोने की कोशिश की जाएगी, अयोध्या के बिना वह माला कभी पूरी नहीं होगी। अयोध्या ने सबको स्वीकारा है। हर मत, संप्रदाय का सम्बन्ध अयोध्या से रहा है। अथर्ववेद और स्कंदपुराण में अयोध्या का उल्लेख मिलता है। प्राचीन साहित्य में अयोध्या और कोसल दोनों का उल्लेख है। अयोध्या को मथुरा, काशी, माया, काँची, अवंतिका, द्वारवती- इन सात ‘मोक्ष नगरियों’ में प्रथम स्थान दिया गया है। महाभारत और रामायण में अयोध्या का उल्लेख है। कालिदास ने रघुवंश में अयोध्या और साकेत को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया है। चीनी स्रोतों में इसे ‘अ-यु-ज-अयुज’ अथवा अवध लिखा गया है। चीनीयात्री ह्वेनसांग ने इसे ‘पिकोसिया’ कहा है। उसके अनुसार इसकी परिधि 16ली (एक चीनी ‘ली’ बराबर है 1/6 मील के) थी। आईन-ए- अकबरी में इस शहर की लंबाई 148 कोस तथा चौड़ाई 32 कोस बताई गई है।

जैन मत के प्रथम तीर्थंकर ‘ऋषभदेव’ अयोध्या के ही राजा नाभिराज और उनकी पत्नी मरुदेवी की संतान थे। वे स्वयं को राम की वंश-परंपरा में मानते थे। जैन संप्रदाय के पाँच तीर्थंकरों का सम्बन्ध अयोध्या से रहा है। जैन तीर्थंकरों अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ और अनंतनाथ का जन्म भी अयोध्या में हुआ था। ये सभी भगवान राम की वंश-परंपरा इक्ष्वाकु वंश से थे। भगवान् बुद्ध का परिवार भी अपने को राम की परंपरा से जोड़ता था। बुद्ध ने अपने जीवन का लंबा समय लगभग सोलह वर्ष अयोध्या में बिताए। बुद्ध ने सबसे पहले जिस राजा को दीक्षा दी, वे अयोध्या के राजा ‘प्रसेनजित’ ही थे। सिख मत का भी अयोध्या से गहरा नाता रहा है। गुरु नानकदेवजी ने सन् 1510-11 ई. में अयोध्या प्रवास किया। वे रामजन्मभूमि के दर्शन के लिए अयोध्या आए थे। केवल गुरु नानकदेवजी ही नहीं अपितु गुरु तेगबहादुर जी और उनके सुपुत्र गुरु गोविंदसिंह जी का भी अयोध्या पदार्पण हुआ था। इसके बाद के कालखंड में राम जन्मस्थान की मुक्ति के लिए आए निहंगों ने राम की वंश-परंपरा से अपने को जोड़ा।

सिख मत का अयोध्या से रिश्ता कितना निकट का रहा है, इसका प्रमाण है गुरुगोविंद सिंह जी के साक्षात् शिष्य भाई मणी सिंह की पुस्तक ‘पोथी जनम साखी।’ यह पुस्तक मुस्तफाई छापाखाना, लाहौर से सन् 1890 में छपी है। इस पुस्तक में भाई मणी सिंह लिखते हैं कि- “जैसे चारों युग में ईश्वर ने अवतार लिया, वैसे ही त्रेता में भगवान राम ने अवतार लिया, धर्म की मर्यादा की रक्षा के लिए।” सिख धर्म की पृष्ठभूमि में चारों युगों का वर्णन ध्यान देने वाला है। भाई मणी सिंह आगे लिखते हैं- “जगत् में विष्णु भक्ति मुसलमानों के कारण लुप्त हो रही है। इससे उद्धार की बिनती ईश्वर से की गई। तां महाराज ने धिआन से गुरुनानक जी का स्वरूप प्रगट हुआ।” यानी तब इस संकट से लड़ने के लिए गुरुनानक देवजी ने भारतवर्ष में जन्म लिया। इसी पुस्तक में गुरुनानक देवजी के अयोध्या जाने और रामजन्मभूमि के दर्शन का उल्लेख है। ब्रह्मघाट तीर्थ से वे नाव में बैठकर अयोध्या पहुँचे थे। (पृष्ठ 213) रामजन्मस्थान की स्थिति देख गुरुनानक देव ने यह भी कहा कि- “भाई मरदाना सो असी दसवाँ अवतार धार के मलेछा दा नास करांगे।” यानी दसवें गुरु गुरुगोविंद सिंहजी के रूप में शस्त्रधारी बनकर कालांतर में उन मलेच्छों का अंत करेंगे। (पृष्ठ 265) अयोध्या के गुरुद्वारा ब्रह्मकुंड के दर्शन के लिए दुनिया के कोने-कोने से सिख आते हैं। सिखपंथ के पहले गुरु गुरुनानक देव, नौवें गुरु तेग बहादुर और दसवें गुरु गुरुगोविंद सिंहजी ने ब्रह्मकुंड में ध्यान किया था। पौराणिक कथा के अनुसार यहीं कभी ब्रह्मा ने तपस्या की थी। इसी कारण इसका ‘ब्रह्मकुंड’ नाम पड़ा। गुरुगोविंद सिंहजी ने पटनासाहिब से आनंदपुर जाते हुए यहाँ रुककर रामलल्ला के दर्शन किए थे। कथा यह भी है कि रामजन्मभूमि की रक्षा के लिए गुरुगोविंद सिंह की निहंग सेना ने मुगलों की शाही सेना से कड़ा संघर्ष किया था। उस समय दिल्ली पर औरंगजेब का शासन था।

अयोध्या सबकी रही है। अनेक धर्म संप्रदाय के लोग यहाँ आए। राम के प्रति श्रद्धा सबको यहाँ खींचती रही। दलित संत रविदास भी बनारस से अयोध्या आए। संत रविदास की गुरुनानक देवजी से मुलाकात अयोध्या में ही हुई थी। Winand M. Callewaert, Peter G. Friedlander की पुस्तक “The Life and Works of Raidas” में उल्लेख है कि अयोध्या में जिन भक्तों के साथ गुरुनानक देवजी की मुलाकात हुई, उनमें एक रविदास भी थे। संत रविदास मध्यकाल के भक्तकवि थे। उन्होंने ‘रविदासिया पंथ’ की स्थापना की। काशी में पेशे से जूता सिलने वाले इस महान संत ने आत्मज्ञान का मार्ग दिखाया था। इनके कुछ भजन गुरुग्रंथसाहिब में संकलित हैं। मूर्तिपूजा के विरोधी रविदासजी की भी राम में आस्था थी। वे लिखते हैं- “रविदास हमारो राम तो, सकल रह्यो भरपूरि। रोम रोम मंहि रमि रह्यो, राम मसूक न दूरि॥” अद्वैत की खोज में आचार्य शंकर भी केरल के कलाडी से अयोध्या पहुँचे थे। आदिशंकराचार्य अपने अनुयायियों के साथ नैमिषारण्य से पैदल चलकर अयोध्या आए थे। वहाँ उन्होंने रामजन्मभूमि मंदिर, नागेश्वरनाथ मंदिर और कुछ अन्य मंदिरों में दर्शन भी किए। इसके संदर्भ भी मिलते हैं कि वे स्वर्गद्वार के पास एक शिवमंदिर में ठहरे भी थे। आदिशंकराचार्य अयोध्या में पाँच दिन तक रुके थे। विशिष्टाद्वैत मत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य भी बदरिकाश्रम से लौटते हुए अयोध्या में तीन रात ठहरे थे। वहाँ से वे सीधे सीता जन्मस्थान मिथिला गए। पुष्टिमार्ग के प्रणेता वल्लभाचार्य भी मथुरा से गंगासागर की यात्रा के दौरान अयोध्या आए थे। वे यहाँ रुके और प्रवचन भी दिया। दक्षिण भारत के आलावार संत ही हमारे भक्ति युग के आधार स्तंभ हैं। 12 में से 5 आलावार संत- मधुरकवि आलवार, थोंडाराडिप्पोडी आलवार, थिरुमंगई आलवार, कुलशेखर आलवार और नम्मालवार के अयोध्या आकर राम की अर्चना के संदर्भ मिलते हैं। ये सभी संत छठवीं से नौवीं शताब्दी के बीच के हैं। यानी अयोध्या हर धर्म, पंथ और संप्रदाय के लोगों को अपनी ओर खींचती रही। इसलिए रामजन्मभूमि मुक्ति के संघर्ष में ये सभी पंथ और संप्रदाय एकजुट थे।

ayodhya raam mandir

सनातन धर्म की संरक्षिका महारानी अहिल्याबाई होल्कर के भी अयोध्या आने का उल्लेख मिलता है। उन्होंने अपने जीवनकाल में जिन तीर्थों को सजाया सँवारा, उनमें एक अयोध्या भी है। सन् 1784 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने त्रेता के ठाकुर मंदिर का पुनरुद्धार करवाया। उन्हीं की लगाई हुई काले पत्थर की राम दरबार की मूर्तियाँ आज भी विद्यमान हैं। यह मंदिर अयोध्या में उसी स्थान पर स्थित है, जहाँ कभी श्रीराम ने अश्वमेध यज्ञ किया था। इन सिलसिलों का उल्लेख हम इसलिए कर रहे हैं कि राममंदिर का काम तो पूरा हुआ। अब अयोध्या के पुनर्निर्माण का काम भी होना चाहिए। यह रामजन्मस्थान मंदिर एक उपेक्षित ऐतिहासिक नगर का भारत के पुनर्जागरण और निर्माण की कथा के विविध सोपानों को देखने, समझने के लिए द्वार भी खोलता है। ‘राम का दार्शनिक पक्ष’ ‘राम की कथा’ से आगे जाता है। कबीर भी राम को भजते हैं और तुलसी भी। अल्लामा भी राम को सलाम करते हैं, और रामभद्राचार्य भी। श्रीराम की शक्ति ही तुलसी के महाकाव्य को हिंदी काव्य परंपरा का सर्वश्रेष्ठ सोपान बना देती है। वहीं तुकाराम से तिरुवल्लुवर तक राम पीड़ित, वंचित की दार्शनिक अभिव्यक्ति भी बन जाते हैं। तुलसी ने वाल्मीकि के माध्यम से हमें बताया कि राम किसके हैं? और राम का कौन है? ‘जन्मस्थान मंदिर’ इन सभी मूल्यों का प्रकाश- स्तंभ बन सकता है। रामकथा ‘सर्वानुमति की कथा’ है, इसलिए उनका मंदिर सर्वानुमति के मंदिर का भी संदेश देगा। महर्षि वाल्मीकि के रामायण रचने की शुरुआत भी ‘सर्वसम्मति’ से ही होती है। रामकथा को लिखने का निर्णय अकेले वाल्मीकि ने नहीं लिया, यह निर्णय भी नारदमुनि और ब्रह्मा ने सर्वमत से लिया था। वाल्मीकि रामायण में हमें जनतांत्रिक व्यवस्था की प्रथम झलक तब मिलती है, जब दशरथ वृद्धावस्था के बाद अपना उत्तराधिकारी चुनते हैं। यद्यपि राजतंत्र में यह  निर्णय बहुत सरल था कि राजा का पुत्र ही राजा बनेगा। लेकिन दशरथ पारिवारिक परंपरा से नहीं, सर्वमान्य राजा का चुनाव ही चाहते थे। भारतवर्ष के सभी राजाओं को वे अयोध्या बुलाते हैं और इन राजाओं से वे ‘इक्ष्वाकु वंश’ के उत्तराधिकारी ‘राम’ के नाम पर जन-स्वीकृति चाहते हैं।

हमारा भारत तो सदियों से राम की ऊर्जा से उज्जवलित और प्रेरित है। उस ऊर्जा को अब एक ‘विग्रह’ मिल गया है। और भारत की चेतना को मिल गया है अपना ‘हिरण्यमय कोश’, जो युगों तक असंख्य पीढ़ियों को मार्ग दिखा सकता है। भारत की चेतना को अगर एक शब्द में परिभाषित करना हो तो वह शब्द निश्चय ही ‘राम’ होगा। भारतीय समाज ने आदर्शों, मर्यादाओं, शील, करुणा, लोकमंगल, उम्मीदों को श्रीराम और उनके नाम के माध्यम से हजारों वर्षों से साधा है। आज के आधुनिक युग में भी सत्ता, शासन व्यवस्था, राजकाज, सामाजिक समरसता, पारिवारिक मूल्य, नारी उत्थान, विदेश नीति, शत्रु के विरुद्ध आचरण और संगठन शक्ति को खोजना हो तो वह राम के ही पास है। अयोध्या का जन्मस्थान मंदिर इन सुनहरे जीवन-मूल्यों को रेखांकित करेगा।

(लेखक एक फ्रीलांस ब्लॉगर हैं और आध्यात्म पर अपने विचार साझा करते रहते हैं।)