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हम जिंदा रहें इसके लिए डॉक्टर लड़ रहे हैं जंग, कोरोना योद्धा कहने से पहले उनकी स्थिति तो समझिए…

भारत में 130 करोड़ जनता पर लगभग 8 लाख पंजीकृत एलोपैथिक डॉक्टर हैं। अर्थात 1500 पर एक डॉक्टर जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO)की मानें तो 1000 पर एक डॉक्टर होना चाहिए।

भारत में 130 करोड़ जनता पर लगभग 8 लाख पंजीकृत एलोपैथिक डॉक्टर हैं। अर्थात 1500 पर एक डॉक्टर जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO)की मानें तो 1000 पर एक डॉक्टर होना चाहिए। 2012 में WHO के अध्ययन के बाद स्वास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त करने के लिए यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज को तरजीह दी गयी और 2013 में सरकार ने योजना बनाई की 6 लाख डॉक्टरों की कमी को पूरा करने के लिए, 200 नए मेडिकल कॉलेज खोले जायेंगे। मतलब 8 वर्ष पूर्व ये योजना, कब किन कागज के पन्नों में दबी रह गयी आम जनता को इसकी भनक भी नहीं लगी। लगती भी कैसे क्यूंकि आज के दौर मे आप इतना व्यस्त हो कि खबरें भी आप अपने हिसाब से चुनते-सुनते और मगन रह जाते हो। ऐसे में जब कोरोना जैसी बिमारी आपके करीब पहुंचती है तब आप जागते हो। खैर जब जागो तभी सवेरा। अब आप ये समझो आजादी के बाद से 2012 तक के स्वास्थ्य सेवा के वो आंकड़े जो आपको निश्चित तौर पर ये समझा देंगे कि बिना आधुनिक सुविधाओं के, डॉक्टरों की कमी के बावजूद ये आंकड़े कैसे हासिल हुए आजादी के 60 साल बाद जब अध्ययन हुआ।

Corona Doctors

नवजात मृत्यु दर 150 से घटकर 50 हो गयी। मातृ मृत्यु दर 2000 से घटकर 200, लगभग 10 गुना कम हो गयी, लोगों की औसत आयु जो आजादी के वक़्त 31 साल थी वो 2012 में 65 साल हो गयी। हालांकि डाक्टर में लगभग 7 साल की कमी देखी गयी जो दर्शाता है भारत के डाक्टरों ने विषम परिस्थितियों में भी कठिन परिश्रम, अनुशासन और समाज के प्रति जिम्मेदार रवैया हमेशा बरकरार रख देश को स्वास्थ्य सेवा के बेहतर मार्ग की और अग्रसर किया। फिर सिलसिला कहां टूटा की आज हम अस्पतालों के बिस्तर को कभी होटल में तो कभी रेल गाडी के डिब्बों मे तलाश रहे हैं। हालांकि आपदा का मतलब ही यही होता है, संसाधनों से बड़ा समस्या का होना फिर भी आज इतने साल बाद भी देश स्वास्थ्य सेवा में क्यों पिछड़ा है, इसको समझने के लिए एक डॉक्टर की मनोस्थिति को समझना जरूरी है, अगर डॉक्टर को कोरोना योद्धा कह रहे हो तो सैनिक की बिना सुने तो युद्ध जीतना मुमकिन है क्या?

कोई देश स्वास्थ्य सेवा का तानाबाना अपने स्वास्थ्यकर्मी और जनता के आधार पर बुनता है ताकि सेवा तार्किक और सार्थक रहे मगर हमारे देश की स्वास्थ्य नीतियों को देखें तो ना ही कभी इसमें जनता को आधार बनाया गया ना ही डॉक्टरों के विचारों को अपनाया गया। स्वास्थ्य तंत्र आप के द्वारा चुने हुए नेताओं द्वारा लाल फीताशाही का गुलाम हो गया और नीतियों को अपने-अपने हिसाब से हर राज्य ने अपने आर्थिक लाभ के लिए कुछ अमीर चंदों को भेंट दे दिया। भारत की संसद में 70 MP ऐसे हैं जिनके अपने निजी मेडिकल कॉलेज हैं।

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खैर आप जानिए आपके कोरोना योद्धा की दशा, जिस देश को स्वास्थ्य सेवा को नियमित करने की व्यवस्था स्थापित करनी चाहिए वहां 70% से अधिक युवा डॉक्टर कॉन्ट्रैक्ट के कर्मचारी की तरह काम करते हैं क्यूंकि वो रेजीडेंसी स्कीम (एक दूधारी तलवार जैसी योजना जो डॉक्टर और सिस्टम दोनों को धीरे-धीरे निगल जाती है), के तहत आते हैं जिसकी अवधि 45 दिन से एक वर्ष की होती है और इसे 3 साल तक बढ़ाया जा सकता है बस। मतलब डॉक्टर सरकारी तंत्र में परमानेंट नहीं हो सकता जब तक परमानेंट कमीशन जो है UPSC के द्वारा नहीं चुन कर आये हो और यकीन मानिये यहां इतनी कम सीट होती है इसमें डॉक्टरों को ना चाहकर भी प्राइवेट सेक्टर जाना पड़ता है या तो नौकरी करने या अपना छोटा क्लिनिक या अस्पताल खोलने। देश में 70-75% स्वास्थ्य सेवाएं निजीकृत है बाकि सरकारी। समझें आप वोट इसलिए देते हैं कि आप को 5 साल और अंधेरे में रख लिया जाये, कहीं आम आदमी जाग नहीं जाये। और जो सवाल डॉक्टरों से जनता करती है वो नेताओं के पीछे छुपे हुए, बाबू लोग से ना करने लगे, वैसे भी ये जिम्मेदारी सरकार की है।

बात करते हैं डॉक्टर की जो 25 वर्ष की उम्र में MBBS करके जब समाज में निकलता है तो सरकार को उसे तीन मूलभूत सुविधाएं देनी चाहिए (क्यूंकि स्वास्थ्य समाज का विषय और जरूरत है) पहला एक डॉक्टर के लिए नौकरी, दूसरा उसकी आगे की पढ़ाई और रिसर्च के उचित अवसर, और तीसरी उसका उचित आर्थिक मूल्यांकन। जो डॉक्टर खुद ही कांन्ट्रेक्ट की सेवा प्रदान कर रहा हो वो यही सोच रहा होगा की वो कॉन्ट्रैक्ट के बाद क्या करेगा की उसकी जीविका चले, वो कैसे आपको नियमित सेवा दे पायेगा ऐसे तंत्र में जिसमें वो स्थिर नहीं? जैसे तैसे कुछ वक़्त वो सेवा कहो या डाक्टर की जरूरत, वो कुछ वर्ष का पैसा जोड़कर, फिर से पढ़ने लग जाता है अब स्पेशलिस्ट बनने की होड़ में ये सोचकर की वो उस उदासीन तंत्र के लिए उपयोगी बन जायेगा तो उसका भविष्य सुधर जायेगा। अब लगभग वो 30 साल का हो जाता है और सरकार द्वारा दो चीजें उसे अब मिल जाती है, एक कागज़ का टुकड़ा जिसे लोग अक्सर डिग्री कहते हैं और दूसरा अनिश्चित काल के लिए संघर्ष। जी हां, स्पेशलिस्ट की जॉब देश में और भी कम है। लोग बड़ी आसानी से सरकारी अस्पताल में जाकर पूछते हैं, हड्डी वाला क्यों नहीं है, सर्जरी वाला क्यों नहीं है? जनाब आप भारत में हैं, इसलिए सवाल करना सीख गए हैं, देश जितने कम डॉक्टर आपकी सेवा के लिए बनाता है, उससे कहीं कम ये बाबू लोग नौकरी निकालते हैं। आपके टैक्स का पैसा, उन्हें सही जगह लगाने से, बाबू लोग का नुकसान भी तो होता है जनाब।

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खैर हम बात करते है आपके 30 वर्ष के कोरोना योद्धा की जो अब स्पेशलिस्ट बनकर तिराहे पर आकर खड़ा हो जाता है। पहला वो किसी सरकारी नौकरी को पकड़ ले, जिसका चांस सबसे कम होता है, दूसरा वो अपना छोटा क्लिनिक या जॉब कर ले और तीसरा वो फिर से सुपर स्पेशलिस्ट का कोर्स करके खुद को फिर से तंत्र के और उपयोगी बनाये, है ना कमाल की मोटी बुद्धि, खुद को और 3-5 साल की पढ़ाई मे इस उम्र में झोंक देना जब उसके साथ के दोस्त अलग-अलग प्रोफेशन में बहुत आगे जा चुके होते हैं। एक और मज़ाक जो इन डाक्टरों के साथ होता है, इन्हें लगता है ये 10-15 साल पढ़ेंगे तो बड़ी-बड़ी कंपनी इनको कैंपस जॉब देने आएंगी और पैकेज पूछेंगी। मासूम है साहब, टैलेंट और लेबर में फर्क तब करें ना जब मेडिकल प्रोफेशन ने किया हो, टैलेंटेड लोग जब लेबर करते हैं तब वो डॉक्टर बन पाते है, मगर सिस्टम को तो लेबर चाहिए आपकी।

सब खुशकिस्मत नहीं होते क्यूंकि देश में सुपर स्पेशलिस्ट की नौकरी है ही नहीं, जो है वो बस बाबू लोगों ने मेडिकल कॉलेज में संसाधनों के खरीद फरोख्त के लिए अपने हस्ताक्षर देने हेतु नाम मात्र रखा है, जनता और डॉक्टर के हित में ना सोचे अगर आपने सुपर स्पेशलिस्ट सरकारी अस्पतालों में सुने हो।

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खैर वो 30-35 वर्ष का योद्धा, अब या तो किसी निजी संस्था को चला जाता है या फिर, खुद का क्लीनिक या हॉस्पिटल खोलकर आने वाले 5 सालों का नया संघर्ष चुन लेता है, मरता क्या ना करता। और फिर शुरू होती है सरकारी बाबू से टेस्ट मैच की सीरीज। जो अक्सर डाक्टरों को इनिंग खेलने के लिए 50 से ज्यादा लाइसेंस, फ़ॉलो ऑन की तरह झेलने पड़ते हैं। भ्रष्टाचार को करीब से देखकर, मरीजो के दर्द को समझना पड़ता है। जानते हुए मर्ज क्या है, कर्ज और फर्ज़ में उलझा हुआ कोरोना योद्धा आज कोरोना की महामारी मे PPE, मास्क, सैनीटाइजर खरीदने के लिए उसी समाज पर आश्रित है जो योद्धा को ये सब सामान ब्लैक में बेच रहे हैं। उस डॉक्टर को मिलने वाला हर शख्स उससे कमाने की कोशिश करता है पर उससे बस सेवा की उम्मीद करता है।

डॉक्टर अब 40 की उम्र तक पहुंच चुका होता है जब शायद ही वो कोई नया स्किल सीख सके, शायद इसलिए की उसने जीवन भर बस डॉक्टरी की होती है ना ज्यादा वक़्त होता है ना ही ज्यादा संसाधन की खुद को किसी और प्रोफेशन में आजमा सके। एक तंत्र कैसे एक नागरिक की ऊर्जा और वक़्त दोनों विधिपूर्वक नष्ट करता है ये भारतीय स्वास्थ्य तंत्र से सीखे।

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45 वर्ष की उम्र के बाद डॉक्टर का भविष्य तय हो जाता है उसके आस पास के समाज के मुताबिक अगर वो अपना क्लीनिक या अस्पताल चलाता है या फिर सरकार या निजी संस्थान के मुताबिक अगर वो नौकरी करता है। आप ज्यादा उम्मीद रखते है डॉक्टरों से, वो खुद अपना भविष्य 45 के बाद आप में ढूंढ़ते हैं। सरकार से आपको ज्यादा मिलेगा अगर एक बार सच में स्वास्थ्य को मुद्दा समझेंगे और पूछेंगे सवाल।

मनरेगा की तरह डॉक्टरों को रोजगार देने वाली सरकारें ना कभी आपके स्वास्थ्य के प्रति सजग थी और ना होंगी। बुरे वक़्त में आप डॉक्टर की तरफ देखते हो तो अच्छे वक़्त में उनके संघर्ष के सारथी क्यों नहीं बनते? कैसे सरकारें हर 5 साल बाद आपको बहकाने में कामयाब हो जाती है की स्वास्थ्य चुनाव का मुद्दा नहीं हो सकता, धर्म है। अगर धर्म चुनाव का मुद्दा इस देश में है तो मंदिर मस्जिद बंद क्यों और अस्पताल खुले क्यों? आपको सोचना होगा आज लॉकडाउन के बाद भी ये वायरस यहां रहेगा और अब आपको क्या चाहिए? भविष्य के लिए बेहतर स्वास्थ्य या उन्माद?

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एक डॉक्टर का जीवन संघर्ष है अगर उसे समाज के सभी वर्गों की तरह उन्नति के अवसर ना हो, मगर आज जो सरकारें, मीडिया डॉक्टरों को कोरोना योद्धा बता रही है उनकी मानसिकता सिर्फ हमारी शहादत तक सीमित होंगी, तंत्र नहीं सुधरेगा जब तक जनता सही सवाल नहीं करना जानेगी। डॉक्टर पर जब लोग हमले करते हैं तब पता चलता है, मगर जो हमले सरकार करती है उसे इस देश में स्वास्थ्य नीति कहा जाता है। करिये सवाल सरकार से, 2013 में योजना थी 200 मेडिकल कॉलेज बनाने की? 6 लाख डाक्टर बनाने की कहां है? क्यों हम स्वास्थ्य को चैरिटी बनाते चले गए? स्वास्थ्य को अधिकार क्यों नहीं बनाया? कोरोना जैसी घातक बीमारियों का क्रम अब शुरू हुआ है और इतिहास गवाह है कोई भी वायरस हारा नहीं विज्ञान के अनुसार। सस्ती TRP के लिए मीडिया तरह तरह के स्लोगन चला रहा है जो आपको अभी शायद अच्छा लगे और ऊर्जा दे पर दूरदृष्टि जरूरी है। लॉकडाउन को बस इतना समझें कि समस्या गेट पर है और थोड़ी कमजोर हुई है वक़्त पर लिए गए स्टेप्स की वजह से। ये सब फिर बिखर जायेगा अगर आप सभी अपने नेताओं को मजबूर नहीं करेंगे कि हमें अब और अस्पताल चाहिए, मूर्ति नहीं। जब तक डॉक्टर, समाज और मीडिया मिलकर इन हुक्मरानों से सही सवाल नहीं करेगा तब तक ये देश स्वस्थ नहीं हो सकता। कोरोना से हारने जीतने की बजाय, कोरोना के साथ रहना पड़ेगा बशर्ते अब स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने का वक़्त है। बुरे वक़्त में जो आपके साथ था, उसे याद रखें और डॉक्टर पर हमला ना करें। उन्हें आज आपसे सम्मान चाहिए। चाहे मीडिया डाक्टरों को योद्धा कहे ना कहे, उनका जीवन युद्ध से कम नहीं होता।

इस लेख के लेखक हैं डॉ अंकित ओम…इस पूरे लेख में व्यक्त विचार डॉक्टर अंकित ओम के निजी हैं। NewsRoomPost ने डॉ. अंकित ओम के विचार को अपने प्लेटफॉर्म पर जगह दी है।

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Dr ankit om
(Medical Director Ardent ganpati hospital, Delhi)

Ex DNB – Maharaja Agrasen hospital Punjabi bagh
Ex registrar -Acharya bhikshu delhi government hospital delhi