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या तो धर्मांतरण करो, या भागो या फिर मरने के लिए तैयार रहो: 1990 में कश्मीरी हिंदुओं का निर्वासन जेहादी था षड्यंत्र

लगभग 1100 मस्जिदों में से प्रत्येक के लाउडस्पीकर पर इन फरमानों से उन्मादी इस्लामिक भीड़ को जिहाद में शामिल होने का आह्वान किया गया। अपने बच्चों और बुजुर्गों सहित सभी पुरुष मुसलमान इस जिहाद में हिस्सा लेने के लिए मचले जा रहे थे।

नई दिल्ली। पिछले कल यानी 19 जनवरी को सन 1990में भारत के अभिन्न अंग जम्मू और कश्मीर की कश्मीर घाटी में कश्मीरी हिन्दुओं के सामूहिक नरसंहार और पलायन का स्मरण किया गया और दिन भर किसी न किसी मंच पर इसकी चर्चा भी होती रही। वास्तव में 1990मेंभारत के सबसे पुराने भारतीय समुदायों में से एक कश्मीरी पंडितों या कश्मीरी हिंदुओं का रक्तरंजित पलायन पहली बार नहीं हुआ था।अभी भी यह निश्चय के साथ नहीं कहा जा सकता है कि ‘अल्पसंख्यक कश्मीरी हिंदुओं’ पर कश्मीर घाटी में होने वाले अथक, अत्यधिक क्रूर, भयावह और प्रतिकारक हमले आखिर कब तक तक होते रहेंगे। कालक्रम के संदर्भ में, पहला पलायन इस्लाम के आगमन के साथ 1389-1413 के आसपास हुआ, इसके बाद दूसरा 1506-1584 के आसपास हुआ, तीसरा 1585-1752 के बीच, और चौथा 1753 में हुआ। पांचवां पलायन 1931 से 1965 के बीच हुआ और छठा 1986 में हुआ, लेकिन कश्मीरी हिंदुओं का सबसे कुख्यात, भयानक और भीषण पलायन था (जिसे हम कदाचित अंतिम पलायन कह सकते हैं) जो 19 जनवरी 1990 को आधी रात में हुआ था। कश्मीर घाटी में 18 और 19 जनवरी को मध्य रात्रि के दौरान अंधकार का अनुभव हुआ था, जिसमें मस्जिदों (जिनसे कश्मीरी हिंदुओं को मिटाने का आह्वान करते हुए।

विभाजनकारी और आग लगाने वाले नारों का प्रसारण किया था) को छोड़कर हर जगह बिजली बंद हो गई थी। रात ढलते ही कश्मीर घाटी इस्लामवादियों के रक्तपिपासु हुंकारों से गूंजने लगी।हिन्दुओं का घाटी से पलायन कराने के लिए मुसलमानों को भड़काया गया और सड़कों पर ले जाने के लिए बहुत आक्रामक, सांप्रदायिक और धमकी भरे नारों का उपयोग किया गया। मस्जिदों से मुस्लिमों को फ़रमान जारी किए गए कि असली इस्लामी व्यवस्था की शुरूआत करने के लिए काफिरों को अंतिम धक्का देना होगा। इन नारों के साथ हिंदुओं के खिलाफ साफ़ साफ़ और अचूक धमकियां दी गईं। कश्मीरी हिन्दुओं को तीन विकल्प दिए गए थे: रालिव, चालिव या गालिव(इस्लाम स्वीकार कर लो, या भाग जाओ या मौत के लिए तैयार रहो)। सैंकड़ों की संख्या में कश्मीरी मुसलमान घाटी की सड़कों पर उतर आए, और जोर जोर से नारे लगाए गए ‘भारत को मौत ‘ और ‘ काफिरों को मौत ‘।

लगभग 1100 मस्जिदों में से प्रत्येक के लाउडस्पीकर पर इन फरमानों से उन्मादी इस्लामिक भीड़ को जिहाद में शामिल होने का आह्वान किया गया। अपने बच्चों और बुजुर्गों सहित सभी पुरुष मुसलमान इस जिहाद में हिस्सा लेने के लिए मचले जा रहे थे। ताकत के इस घृणित प्रदर्शन के पीछे एक ही मकसद था-पहले से ही भयभीत कश्मीरी हिन्दुओं में मौत का डर पैदा करना। कश्मीरी मुसलमानों के सेक्युलर, सहिष्णु, सुसंस्कृत, शांतिपूर्ण और शिक्षित विश्वदृष्टि के लिबास, जिन्हे तथाकथित भारतीय बुद्धिजीवियों और उदारवादी मीडिया ने उन्हें अपने कारणों से पहनने के लिए मजबूर किया था इस सांप्रदायिक उन्माद के क्षण में उतर गये थे।सैकड़ों कश्मीरी पंडितों ने जम्मू, श्रीनगर और दिल्ली में उच्च अधिकारियों से संपर्क किया और उन्हें इस मृत्युदायक आपदा से बचाने के लिए गुहार लगायी। लेकिन दिल्ली वास्तव में पहले से ही बहुत दूर थी। केंद्र सरकार को लकवा मार गया था और उसकी एजेंसियां, विशेष रूप से सेना और अन्य अर्धसैनिक बल किसी आदेश या निर्देशों के अभाव में समय पर कार्रवाई नहीं कर सकीं। तत्कालीन राज्य सरकार इतनी निकृष्ट हो गई थी कि श्रीनगर में प्रशासन ने उन्माद से पागल हुई भारी इस्लामिक भीड़ का सामना नहीं करने का फैसला किया।

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आज तक हम नेहरूवादी-सेक्युलरिस्टों और तथाकथित बुद्धिजीवियों के आचरण से सदमें में रहते हैं क्योंकि जब भी कश्मीरी हिंदुओं के साथ हुए अमानवीय अत्याचार और अन्याय को स्वीकार करने की बात आती है तो उनके मुँह में फेविकोल लग जाता है, ऐसा इसलिए है क्योंकि यह भारत के भीतर रहने वाले भारत विरोधी गैंग की कथा के अनुरूप नहीं है। इसके बजाय, उनके द्वारा की गयी हत्याओं को माफ़ कर दिया जाता है, और आतंकियों और अपराधियों को भटके हुए नौजवान या ‘एक स्कूल अध्यापक के बेटे’ के रूप में प्रचारित करके बचाने का कुत्सित खेल खेला जाता है। इस्लामिक जिहाद एक अंतहीन युद्ध है। पश्चिमी मीडिया हिंदूफोबिक स्तंभकारों को उनकी भारत विरोधी झूठी धारणाओं को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करता रहता है। जम्मू-कश्मीर और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में अनेक समाचारों पर मीडिया द्वारा मिटटी डाल दी जाती है। असम में एक मुस्लिम व्यक्ति को पुलिस की गोली लगना पूरे गिरोह के लिए उसे ‘नरसंहार’ के रूप में प्रोपगैंडा फ़ैलाने का मसाला बन जाता है। कुछ एकतरफा अनुमान भी हैं। लगभग सभी अच्छे रूप में बेतुके हैं और बुरे रूप में हास्यास्पद हैं। जैसा की तथाकथित सेक्युलर बुद्धिजीवी बोलते हैं कि आतंकवाद और अलगाववाद का कभी भी कश्मीरियत, इंसानियत या जम्हूरियत से कोई वास्ता नहीं था। लेकिन यदि उनके नारों का अवलोकन किया जाए तो यह हमेशा से ही इस्लामी राज्य की स्थापना और भारत की बहुलतावादी, हिंदू बहुल जड़ों से अलग होने के बारे में था। उनके द्वारा इस्तेमाल किए गए कुछ नारे निम्नलिखित हैं:

“ज़ालिमों, ओ काफ़िरो, कश्मीर हमारा छोड़ दो”

“कश्मीर में अगर रहना है, अल्लाह हु अकबर कहना होगा”

“ला शर्किया ला घरबिया, इस्लामिया! इस्लामिया!”

“कश्मीर बनेगा पाकिस्तान”

“पाकिस्तान से क्या रिश्ता? ला इलाहा इल्लल्लाह”

अब नेहरूवादी सेक्युलरिज्म और उनके चेलों द्वारा निर्मित भ्रम से मुक्त होने तथा वास्तविक और कठोर प्रश्नों पर विचार करने का समय है

जिनका उत्तर देश की अस्मिता और अखंडता के लिए अत्यावश्यक है:

1.भारत जैसे सेक्युलर देश को किसी रिलिजन के साथ अलग व्यवहार क्यों करना चाहिए?

2.जब बुरहान वानी जैसे आतंकवादी के लिए भारी भीड़ इकट्ठा हुई तो फिर डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के अंतिम संस्कार में मुट्ठी भर लोग क्यों शामिल हुए?

3. क्या होगा यदि भारतीय दंड संहिता को समाप्त कर दिया गया क्योंकि शरीयत को नागरिक कानूनों के लिए ‘मुस्लिम पर्सनल एक्ट’ की आवश्यकता है? अगर मुस्लिम पर्सनल लॉ इस्लाम पर आधारित है तो आईपीसी की जगह शरीयत की मांग क्यों नहीं होती?

4. क्या यह अन्य मत पंथ अथवा धर्म के लोगों के लिए अपमानजनक नहीं है जब दिन में पांच बार अज़ान बजायी जाती है और ‘ला इलाहा इल्लल्लाह’ शब्द लाउड स्पीकरों के माध्यम से गुंजाये जाते हैं? यदि इस पर चर्चा नहीं हो सकती है या बंद नहीं किया जा सकता है, तो फिर दूसरों को सेक्युलर होने की आवश्यकता क्यों है?

5. इस्लामी आक्रमणकारियों ने अपनी पवित्र पुस्तक के नाम पर मंदिरों को अपवित्र किया, वहां रहने वालों का संहार किया और सांस्कृतिक प्रतीकों को नष्ट किया। आज भी किताब नहीं बदली है, तो एक ही किताब के वर्तमान अनुयायी अलग कैसे हो सकते हैं?

6. ऐसे मुद्दों को उठाना इस्लामोफोबिया है या फिर उन्हें नजरअंदाज करना इस्लामोफोबिया है?

अंत में, ‘रालिव, गालिव, चालिव’ कश्मीर में लगाया गया एक बार का नारा नहीं है। कश्मीरी जिहाद का तब तक कोई हल नहीं निकलेगा, जब तक उपरोक्त प्रश्नों के उत्तर नहीं दिए जाते। कश्मीर इसका सिर्फ एक उदाहरण है कि अगर ये मुद्दे पूरे भारत में बिना उत्तर के रहते हैं तो आगे क्या होगा। सम्पूर्ण विश्व ने हाल ही में अफगानिस्तान में “जिहादी आतंक” और “मानवीय आपदा” के खतरे का साक्षात्कार किया है। मानवता का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि इस मुद्दे को कितनी जल्दी और सफलतापूर्वक हल किया जाता है। अफगानिस्तान में खरबों डॉलर और एक दशक के पुरूषर्थी कार्यों का सफाया करने में केवल कुछ ही दिन लगे। जब तक हम कुछ भी न करने के खतरों या हाथ पर हाथ धर कर बैठने की मानसिकता के खतरों को समझने के लिए पर्याप्त परिपक्व नहीं हो जाते, तब तक कश्मीर को फिर से पाषाण युग में ले जाने के लिए जिहाद को एक उपकरण के रूप में लोकतांत्रिक उपक्रम बनाया जाएगा और खुलकर उपयोग किया जाएगा।