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प्रवक्ताओं के बयान से किनारा करने का ढोंग आखिर कब तक करेगी कांग्रेस, विवादित बयान देने वाले नेताओं पर कठोर अनुशासनात्मक कार्रवाई क्यों नहीं करती !

देशभर में गुस्से की लहर थी बावजूद इसके कांग्रेस ने हमेशा की तरह यह कहकर इतिश्री कर ली कि कांग्रेस पार्टी उनके बयान से सहमत नहीं है।

ब्रिटिश लेखक और पत्रकार ए जी गार्डिनर का एक निबंध है ‘On Saying Please’ इसका सार है कि व्यक्ति को बोलते समय संयम रखना चाहिए। शारीरिक चोट तो व्यक्ति भूल जाता है लेकिन शब्द बड़े गहरे घाव देते हैं। कांग्रेस के नेता अक्सर ऐसे ही शब्द बोलते नजर आते हैं। विवाद होने पर कांग्रेस आलाकमान उनसे सहमत नहीं होने का बयान जारी कर देता है और मामला ठंडे बस्ते में चला जाता है। लेकिन सवाल तो उठेंगे ही और सवाल उठाए जाना जरूरी भी है कि आखिर कब तक कांग्रेस के नेता कटु शब्दों से चोट करते रहेंगे। कांग्रेस उन नेताओं पर कार्रवाई करने की बजाए कब तक उनके बयान से सिर्फ असहमत होने का बहाना बनाती रहेगी।

हाल ही में कांग्रेस पार्टी की नेता और राष्ट्रीय प्रवक्ता शमा मोहम्मद ने भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान रोहित शर्मा को ‘मोटा’ कह दिया। शमा ने रोहित शर्मा के शारीरिक आकार पर टिप्पणी करते हुए उनका मजाक उड़ाया। इतना ही नहीं, उन्हें अब तक का सबसे अप्रभावशाली कप्तान कहा। मामले ने तूल पकड़ा तो कांग्रेस ने हमेशा की तरह शमा मोहम्मद के बयान से किनारा करते हुए यह कहकर इतिश्री कर ली कि पार्टी इस तरह के बयानों से सहमत नहीं है, लेकिन सवाल उठता है कि जब पार्टी को इस बयान से असहमत थी, तो उन्होंने शमा मोहम्मद को पार्टी में ही क्यों रखा है और वो भी राष्ट्रीय प्रवक्ता के तौर पर।

कांग्रेस पार्टी के नेताओं द्वारा विवादित बयान दिए जाना कोई नई बात नहीं है। ऐसे मामलों में कांग्रेस पार्टी अक्सर बयान देने वाले नेता के बयान पर महज यह कहकर किनारा कर लेती है कि पार्टी उनके इस बयान से सहमत नहीं है। कांग्रेस के नेता गाहे—बगाहे ऐसा बयान देते रहते हैं। कांग्रेस का हर बार का यह जुमला होता है कि वह फलाने नेता के इस बयान से सहमति नहीं रखती। यदि सहमति नहीं रखती तो ऐसे नेताओं पर कार्रवाई क्यों नहीं करती। उन्हें पार्टी में रखती क्यों है? केवल इस मामले में ही नहीं बल्कि कांग्रेस नेताओं द्वारा दिए जाने विवादित बयानों के बाद कांग्रेस हमेशा से ऐसा करती आई है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं द्वारा दिए गए ऐसे विवादित बयानों की एक लंबी फेहरिस्त है।

याद करें, आदिवासी समुदाय से आने वाली देश की पहली महिला राष्ट्रपति बनीं द्रौपदी मुर्मू को लेकर कांग्रेस सांसद अधीर रंजन चौधरी ने कितना विवादित बयान दिया था। उन्होंने द्रौपदी मुर्मू को ‘राष्ट्रपत्नी’ के रूप में संबोधित किया था। जब इस मामले में दोनों सदनों में हंगामा हुआ तो उन्होंने यह कहकर सफाई दी थी उन्होंने इस शब्द का इस्तेमाल करने में गलती की है। उनकी जुबान फिसल गई। सिर्फ इतना भर कह देने से कि मेरी जुबान फिसल गई क्या उस अपमान की भरपाई हो सकती है जो उन्होंने किया? क्या उनका आचरण एक नेता वाला था, तो जवाब है नहीं। इसी तरह 2018 में शशि थरूर ने कहा था कि अगर 2019 में भाजपा चुनाव जीतती है, तो भारत “हिंदू पाकिस्तान” बन जाएगा। कांग्रेस ने थरूर के इस बयान को उनकी व्यक्तिगत राय बताया था।

पिछले दिनों इंडियन ओवरसीज कांग्रेस के अध्यक्ष और राहुल गांधी के करीबी सैम पित्रोदा ने बयान दिया था कि भारत को चीन को अपना दुश्मन मानना बंद कर देना चाहिए। चीन से खतरे को अक्सर बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है। इस बयान के आने के बाद जब हंगामा हुआ तो लीपापोती करने के लिए कांग्रेस ने यह कहते हुए खुद को अलग कर लिया कि चीन पर पित्रोदा के व्यक्त किए गए विचारों से कांग्रेस सहमत नहीं है। यह उनके निजी विचार हैं। क्या इस बयान के बाद पित्रोदा पर कार्रवाई नहीं होनी चाहिए थी? सैम पित्रोदा को विदेश नीति के मामले में इस तरह के बयान देने का अधिकार किसने दिया। लोकसभा चुनाव के दौरान पित्रोदा ने पूर्वोत्तर के लोगों की तुलना चीन के लोगों से कर दी थी। उन्होंने कहा था कि पूर्वोत्तर के लोग चीनी जैसे लगते हैं। ऐसे ही सिख दंगों पर जब उनसे सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा था कि हुआ तो हुआ। यही नहीं उन्होंने पुलवामा में शहीद हुए जवानों पर भी विवादित बयान दिया था। 2019 में जब पुलवामा में आतंकी हमला हुआ था और सीआरपीएफ के 40 जवान शहीद हुए थे तो पित्रोदा ने कहा था कि पुलवामा जैसे हमले होते रहते हैं।

देशभर में गुस्से की लहर थी बावजूद इसके कांग्रेस ने हमेशा की तरह यह कहकर इतिश्री कर ली कि कांग्रेस पार्टी उनके बयान से सहमत नहीं है। कांग्रेस नेताओं द्वारा इस तरह के विवादित बयान सामने आते हैं, तो पार्टी क्यों नहीं सख्त कदम उठाती। क्यों नेताओं को पार्टी से निकालने के बजाय, पार्टी केवल बयानों से किनारा करती है? एक ओर जहां पार्टी का कहना होता है कि ये बयान पार्टी की विचारधारा से मेल नहीं खाते, वहीं दूसरी ओर वे नेताओं को पार्टी में बनाए रखते हैं। यह सवाल पार्टी की आंतरिक राजनीति और अनुशासन पर भी सवाल उठाता है। केवल बयान देने के बाद सार्वजनिक रूप से माफी मांगने या किनारा करने लेने भर से ऐसे बयानों द्वारा पहुंचाई गई शाब्दिक चोट के जख्म नहीं भर जाते हैं। इस तरह के विवाद फिर न हो इसके लिए कांग्रेस को अपनी आंतरिक नीतियों को फिर से परखने की जरूरत है।

डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।