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West Bengal: हिंसा की राजनीति का भविष्य

West Bengal: बंगाल में राजनीतिक हिंसा का बहुत लंबा इतिहास रहा है। सन् 1977 से 2011 तक वामपंथी दल इसी संगठित राजनीतिक हिंसा के बलबूते राज्य की सत्ता पर काबिज रहे। यह ग्राम पंचायत से लेकर राज्य सरकार के स्तर तक सुनियोजित ढंग से संचालित होती रही।

केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने बंगाल विधान-सभा के हालिया संपन्न चुनावों में जीते हुए 75 भाजपा विधयाकों की सुरक्षा के लिए केन्द्रीय बल भेजने का निर्णय लिया है। यह निर्णय उपरोक्त चुनाव परिणामों में तृणमूल कांग्रेस की जीत के बाद बंगाल में घटित अभूतपूर्व हिंसा के बाद लिया गया है। इस हिंसा में तृणमूल कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं ने तीन दर्जन से अधिक निर्दोष भाजपा कार्यकर्ताओं को मार डाला और अनेक लोगों के हाथ-पांव काटकर उन्हें अपाहिज बना दिया और घर-बार जलाकर उनको उजाड़ डाला। हालत यह तक है कि लोगों को जान बचाने के लिए धर्म-परिवर्तन का सहारा तक लेना पड़ रहा है। यह निर्मम हिंसा बंगाल में तेजी से उभरते विपक्षी दल भाजपा के साथ चुनाव में खड़े होने वालों को सबक सिखाने की ममता बनर्जी की ममत्वहीन परियोजना का परिणाम था। विपक्षियों को पाठ पढ़ाने की इस कार्रवाई के दौरान बंगाल पुलिस-प्रशासन की चुप्पी और निष्क्रियता शर्मनाक और निंदनीय थी। बंगाल की बेटी ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस के उपद्रवियों द्वारा अंजाम दी जा रही इन हिंसक घटनाओं की ओर से आंखें मींचकर उन्हें पूरी शह दी। जब चुनाव आयोग, मानवाधिकार आयोग, केन्द्र सरकार द्वारा हालात का जायजा लेने के लिए भेजे गए पर्यवेक्षकों और स्वयं राज्यपाल महोदय ने इस प्रायोजित राजनीतिक हिंसा और नरसंहार का संज्ञान लिया, तब जाकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की नींद टूटी और उन्होंने सभी दलों के कार्यकर्ताओं को संयम बरतने की नसीहत दी। हालांकि, अभी तक हिंसा और उत्पीड़न जारी है। उल्लेखनीय है कि जो कांग्रेस-वाम गठजोड़ अपनी शर्मनाक चुनावी पराजय को भूलकर तृणमूल कांग्रेस की जीत और भाजपा की हार का जश्न मना रहा था, उसने भी चुनाव परिणामोत्तर घटित हिंसा पर चिंता व्यक्त की और उसे तत्काल रोकने की माँग की। तृणमूल कांग्रेस द्वारा इसबार बंगाल में की गयी भयावह हिंसा ने केरल में वामपंथियों द्वारा की जाने वाली हिंसा को भी पीछे छोड़ दिया है।

Bengal Violence

बंगाल में राजनीतिक हिंसा का बहुत लंबा इतिहास रहा है। सन् 1977 से 2011 तक वामपंथी दल इसी संगठित राजनीतिक हिंसा के बलबूते राज्य की सत्ता पर काबिज रहे। यह ग्राम पंचायत से लेकर राज्य सरकार के स्तर तक सुनियोजित ढंग से संचालित होती रही। सिंगूर और नंदीग्राम में वामपंथी सरकार द्वारा संचालित हिंसा का साहसिक विरोध करके ही ममता बनर्जी ‘बंगाल की शेरनी’ बनी थीं। लेकिन अब उन्होंने उस इतिहास और उसके सबक भूलकर खुद भी विरोधियों और विपक्षियों को ठिकाने लगाने की वामपंथी राजनीति को अपना लिया है। जबकि बंगाल की आम जनता ने इसी संगठित हिंसा, लोकलुभावन राजनीति और यथास्थितिवाद से त्रस्त होकर बंगाल की सत्ता उन्हें सौंपी थी। ममता बनर्जी संभवतः यह भूल गयी हैं कि विरोधियों और विपक्षियों की हत्या का यह तरीका हिटलर, स्टालिन और माओ का रास्ता है। बंगाल में भले हो लेकिन भारत में क्रूरता और निर्ममता की इस राजनीति का कोई भविष्य नहीं है। भारत का बहुसंख्यक समाज सहिष्णु, शांतिप्रिय, समावेशी और समरस है।


बंगाल जैसे बड़े प्रान्त में मिली लगातार तीसरी चुनावी जीत के बाद विकल्पहीन और निराश विपक्ष ममता बनर्जी को एक सम्भावना के रूप में देख रहा था। निःसंदेह लस्त-पस्त विपक्ष को एक सार्वदेशिक उपस्थिति और स्वीकार्यता वाले दमदार नेता की दरकार है। लेकिन उपरोक्त घटनाक्रम से ममता बनर्जी की क्षतिग्रस्त हुई छवि से विपक्ष भी व्याकुल और विचलित है। इस हाई प्रोफाइल चुनाव पर देश भर की नज़र थी। लेकिन चुनाव में जीत मिलते ही मुख्य विपक्षी दल भाजपा के कार्यकर्ताओं पर ढाए गए जुल्मों को भारत की जनता ने अपनी आँखों से देखा है। राज्य सरकार और सत्तारूढ़ दल तृणमूल कांग्रेस द्वारा प्रायोजित इस हिंसा ने ममता बनर्जी की राष्ट्रीय संभावनाओं को बड़ा धक्का लगाया है। अभी तक बंगाल की संगठित राजनीतिक हिंसा की संस्कृति उतनी जगजाहिर नहीं थी; लेकिन इस चुनाव के बाद जो कुछ हुआ और जिस बेशर्मी से हुआ उसे देश की जनता ने विभिन्न टीवी चैनलों और समाचार-पत्रों में अपनी आंखों से देखा-पढ़ा है। केंद्र सरकार और भाजपा के विरोधी माने जाने वाले मीडिया समूहों ने भी इस निर्मम हिंसा की ख़बरों को व्यापक कवरेज दी। कहने का आशय यह है कि इसबार असलियत सबके सामने आ गयी है। ममता बनर्जी को यदि राष्ट्रीय विकल्प बनने के बारे में सोचना है तो उन्हें राजनीतिक हिंसा की संस्कृति को तिलांजलि देनी होगी। उन्हें लोकतंत्र और लोकतान्त्रिक मूल्यों में अपनी आस्था व्यक्त करते हुए उनकी रक्षा के लिए कड़े कदम उठाने होंगे। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में राजनीतिक विरोधियों और विपक्षी दल के कार्यकर्ताओं के साथ शत्रुवत व्यवहार नहीं किया जाता है। वैचारिक विरोध और असहमति का सम्मान ही लोकतंत्र की आत्मा है। चुनावी प्रतिस्पर्धा शत्रुता का पर्याय नहीं बन जानी चाहिए। जो मेरे साथ नहीं हैं, वे मेरे खिलाफ हैं, वे मेरे शत्रु हैं और उन्हें जीने का अधिकार नहीं; इस प्रकार का दृष्टिकोण बहुत संकीर्ण, अलोकतांत्रिक और आत्मघाती है। इस समझ के तात्कालिक परिणाम भले ही अनुकूल हों; लेकिन दूरगामी परिणाम बहुत भयावह और प्रतिकूल होते हैं। वामपंथी दलों का उदाहरण सबके सामने है। सर्वहारा की तानाशाही और राज्यप्रेरित हिंसा की राजनीति करते-करते वे क्रमशः देश और दुनिया से ख़त्म होते जा रहे हैं। तमाम विपक्षी दलों को भी इस राज्यप्रेरित हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिए और ममता बनर्जी पर कानून-व्यवस्था की बहाली का दबाव बनाना चाहिए। इस समय की उनकी रणनीतिक चुप्पी का इतिहास समय लिखेगा। 2024 दूर नहीं है जब सब कठघरे में खड़े होंगे और जनता जवाबतलब करेगी।

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नारदा स्टिंग ऑपरेशन मामले में अभियुक्त अपने दो मंत्रियों- फिरहाद हकीम एवं सुब्रत मुखर्जी और दो विधायकों मदन मित्रा और सोवन चटर्जी की गिरफ्तारी के खिलाफ ममता बनर्जी ने कोलकाता में निज़ाम पैलेस स्थित सी बी आई कार्यालय के बाहर 6 घंटे तक धरना दिया। इसीप्रकार उन्होंने चुनाव आयोग के खिलाफ भी धरना दिया था। उनके इशारे पर उनकी एक अन्य मंत्रिमंडलीय सहयोगी चंद्रिमा भट्टाचार्या ने अपना कर्तव्यपालन करने वाले सी बी आई अधिकारियों के खिलाफ कोरोना प्रोटोकॉल के उल्लंघन का केस दर्ज कराया है। शारदा चिट फंड घोटाले के तार उनके भतीजे और राजनीतिक उत्तराधिकारी अभिषेक बनर्जी से जुड़े हैं। इन सब मामलों से ममता बनर्जी का भ्रष्टाचारमुक्त राजनीति संदिग्ध हुई है। सादगी और शुचिता की स्वघोषित ‘प्रतिमूर्ति’ ममता बनर्जी का संवैधानिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं में अविश्वास भी प्रकट हुआ है। नरेंद्र मोदी का विकल्प बनने के लिए उन्हें अपने दामन को दाग़दार होने से बचाना होगा। राष्ट्रीय राजनीति में ऐसा आचरण श्रेयस्कर और स्वीकार्य नहीं होगा। सत्त्ता-पक्ष के ‘पिंजड़े में बंद तोता’ मानी जाने वाली सी बी आई की साख के लिए अच्छा होता यदि वह नारदा स्टिंग ऑपरेशन मामले में नामित दलबदलू भाजपा नेताओं-सुवेन्दु अधिकारी और मुकुल रॉय को भी गिरफ्तार करती!

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किसी भी राज्य के विधायकों की सुरक्षा के लिए केन्द्रीय सुरक्षा बलों की नियुक्ति भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए शुभकर नहीं है। इससे देश का संघीय ढांचा प्रभावित होगा। कानून-व्यवस्था और नागरिकों की सुरक्षा राज्य सरकार का प्राथमिक दायित्व है। वह चाहकर भी इस जिम्मेदारी से अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती है। इसलिए गृह मंत्रालय को भी इस मामले का ‘शॉर्टकट’ समाधान न करते हुए राज्य सरकार के साथ सीधी बातचीत करनी चाहिए। उसे निर्दोष नागरिकों, भाजपा कार्यकर्ताओं और नवनिर्वाचित विधायकों की सुरक्षा–चिन्ताओं से अवगत कराते हुए उनकी सुरक्षा की गारंटी सुनिश्चित करने का कड़ा निर्देश देना चाहिए। अगर स्पष्ट निर्देश के बावजूद कानून-व्यवस्था दुरुस्त नहीं होती और राज्य-प्रेरित हिंसा की घटनाएं बदस्तूर जारी रहती हैं तो राज्यपाल से विचार-विमर्श करके राष्ट्रपति शासन के संवैधानिक प्रावधान का प्रयोग किया जा सकता है। यह सच है कि अगर निर्वाचित विधायक ही सुरक्षित नहीं होंगे तो आम नागरिक का क्या होगा! इसलिए विधायकों की सुरक्षा के लिए केन्द्रीय सुरक्षा बल भेजना समस्या का समाधान नहीं है; बल्कि एक नयी समस्या की शुरुआत है। इससे केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव बढ़ेगा। देश का संघीय ढांचा कमजोर होगा और लोकतान्त्रिक व्यवस्था भी क्षतिग्रस्त होगी। इसीलिए केंद्र सरकार को संविधान के दायरे में रहकर लोकतान्त्रिक मूल्यों और प्रक्रियाओं की रक्षा का कार्य करना चाहिए। सिर्फ विधायक ही नहीं सभी राजनीतिक कार्यकर्ता लोकतान्त्रिक मूल्यों और प्रक्रियाओं के ध्वजावाहक हैं। उन्हें सत्तारूढ़ दल के रहमोकरम पर नहीं छोड़ा जा सकता है।

ममता बनर्जी को चुनाव के बाद हुई हिंसा पर देश से माफ़ी मांगते हुए उच्च स्तरीय और निष्पक्ष जांच कराकर दोषी पार्टी कार्यकर्ताओं के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए ताकि देशवासियों को सही सन्देश दिया जा सके। ऐसा करके ही वे नुकसान की भरपाई और अपनी छवि पर लगे हुए बदनुमा दाग को धुंधला कर सकती हैं। वे पूरे पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री हैं। सिर्फ तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं याकि उन्हें मिले 48 प्रतिशत मतदाताओं मात्र की मुख्यमंत्री नहीं हैं। उन्हें बिना किसी भेदभाव और वैमनस्य के राज्य के सभी नागरिकों को सुरक्षा देनी चाहिए। उनके जान-माल और सम्मान की रक्षा करनी चाहिए और सरकार द्वारा संचालित तमाम कल्याणकारी और विकास योजनाओं में उनकी हिस्सेदारी पर ध्यान देना चाहिए। इसके अलावा उन्हें तत्काल केन्द्रीय गृह मंत्रालय और राज्यपाल को पत्र लिखकर नवनिर्वाचित सभी विपक्षी (भाजपा) विधायकों और सांसदों की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त करना चाहिए। निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों को आवश्यक सुरक्षा देनी चाहिए ताकि वे बिना किसी डर और दबाव के अपने दायित्व का निर्वहन कर सकें। उन्हें केन्द्रीय गृह मंत्रालय से विधायकों की सुरक्षा के लिए केन्द्रीय बल न भेजने का भी अनुरोध करना चाहिए क्योंकि यह राज्य पुलिस के मनोबल और निष्पक्ष छवि पर आघात होगा। किसी भी राज्य की पुलिस के ऊपर सत्तारूढ़ दल का कार्यकर्त्ता होने का ठप्पा लग जाना अत्यंत दुखद, दुर्भाग्यपूर्ण और चिंताजनक है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को अपनी और राज्य पुलिस की छवि को बचाने के लिए तत्काल इस दिशा में पहल करनी चाहिए। अगर दूर-दूर तक उनके मन में राष्ट्रीय विकल्प बनने की महत्वाकांक्षा है तो उन्हें विपक्षी नेताओं और कार्यकर्ताओं नहीं; बल्कि मानवता के सबसे बड़े शत्रु कोरोना के खिलाफ लड़ाई लड़नी चाहिए। इसके अलावा चुनाव के दौरान उन्होंने मुस्लिम तुष्टिकरण का परित्याग करके सर्व-धर्म समभाव का जो चोला ओढ़ा था; उसे ही अपना स्वभाव बनाना चाहिए। धर्म-विशेष के लोगों को शह देकर और सिर पर बैठाकर वे राष्ट्रीय नेता नहीं बन सकती हैं।

(लेखक जम्मू केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अधिष्ठाता, छात्र कल्याण हैं। लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)