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सभा का सामान्य अर्थ ही प्रकाशयुक्त होना होता है

मनुष्य एकाकी नहीं रह सकता। वह परिवार और समाज का अंग है। परिवार में परस्पर प्रेम का प्रसाद होता है। इसी तरह समाज में परस्पर प्रेम से राष्ट्र आनंद क्षेत्र बनते हैं।

मनुष्य एकाकी नहीं रह सकता। वह परिवार और समाज का अंग है। परिवार में परस्पर प्रेम का प्रसाद होता है। इसी तरह समाज में परस्पर प्रेम से राष्ट्र आनंद क्षेत्र बनते हैं। वैदिक समाज के सभी सदस्य परस्पर प्रेम और सद्भाव से युक्त थे। उनके वार्तालाप मधुमय थे। राष्ट्र जीवन के ध्येय समान थे। समान ध्येय के लिए साथ साथ वार्तालाप थे। इस समाज में सभी विषयों पर तर्क जिज्ञासा और प्रश्न आधारित लोकतंत्र था। यह लोकतंत्र प्रत्यक्ष भौतिक विषयों तक ही सीमित नहीं था। वैदिक समाज में पराभौतिक या आध्यात्मिक विषयों पर भी जिज्ञासा व प्रश्न थे। लेकिन साथ साथ चलने के संकल्प थे। ऋग्वेद के अंतिम सूक्त में परस्पर एकता की स्तुति है।democracy एकता आनंददाता होती है। वैदिक समाज में किसानों, श्रमशील लोगों का लोकतंत्र है। इसमें सभी पेशे वाले लोग हैं। श्रमशील व कृषक भी कवि हैं। सामूहिकता में रस लेते हैं। उनके लोकतंत्र में सभा व समिति विचार विमर्श के केन्द्र हैं। दोनों सदनों में लोकतांत्रिक विमर्श होते हैं। विमर्श में मधुर वाणी का महत्व है। ऋग्वेद (1.167.3) में वाणी को सभावती कहा गया है। सोमदेव से प्रार्थना है कि ‘‘हमारा पुत्र सभा का सदस्य हो, सुंदर वक्ता हो, वीरता का यश बढ़ाने वाला हो।” (1.91.20) एक मंत्र में सुयोग सभा सदस्य की तुलना चंद्रमा से की गयी है। कहते हैं, ‘‘वह सभा में चंद्रमा की तरह जाता है। सभा का सामान्य अर्थ ही प्रकाशयुक्त होता है। ‘स’ का अर्थ यहाँ सहित और ‘भा’ का अर्थ प्रकाश है। सभा में विनम्र व मधुर बोलने वाले का यश फैलता है। सब उसकी प्रशंसा करते हैं। (10.71.10)democracy

वैदिक काल में सभा के अलावा एक संस्था समिति है। समिति में राजा जाता है। सोम के लिये कहते हैं कि सोम कलश में वैसे ही जाता है, राजा न सत्यः समितीरियानः, जैसे राजा समिति में जाता है। (9.92.6) ओषधियाँ वैद्य देते हैं। वे वैद्य के साथ वैसे ही जाती हैं, जैसे राजानः समितौ इव, जैसे राजा समिति में जाते हैं। (10.97.6) समिति में तत्कालीन विद्वान एकत्र होते थे। समिति महत्वपूर्ण है। कहते हैं, ‘‘देवी समितिः भवति’’, यह समिति देवी होती है। देवों के समान सभासदों के भाग लेने से दिव्य हो जाती है। (10.11.8) समिति लोकतंत्र का अधिष्ठान है। ऋग्वेद के समानो मंत्रः समानी आदि मंत्र साक्ष्य है। समिति समान है। मंत्रणा का केन्द्र है। सबका मन समान है। समानं मंत्रम्, सबका मंत्र एक ही है। सबका ध्येय एक है। मैं, हम सब लोग मिलकर उपासना करें। (10.191.3) वैदिक जन समिति में विचार-विमर्श करते हैं। मंत्रणा करते हैं। तब निर्णय पर पहुँचते हैं। उसके अनुसार कार्य करते हैं।democracy

ऋग्वैदिक काल की सभा समिति परंपरा अथर्ववेद के काल में भी प्रवाहमान है। लेकिन अथर्ववेद में उनके आदर व सम्मान का भी उल्लेख है। कहते हैं, ‘‘सभा और समिति प्रजापति के द्वारा पुत्रियों के समान पालन किये जाने योग्य है।” (अथर्ववेद 14.12.1) यहां सभा और समिति के सम्मान का विशेष उल्लेख है। इसी मंत्र में आगे कहते हैं, ‘‘स्तुति है कि सभा व समिति हमारी रक्षा करें। सभा के सदस्य समुचित परामर्श दें। पितर हमे सभा में विनम्र बनायें और विवेकपूर्ण बोलने की बुद्धि दें।’’(वही) अथर्ववेद की सभा समिति शोर मचाने के मंच नहीं है। वे प्रजापति की पुत्री समान है। यहां विनम्रता और विवेक अपरिहार्य है।Indian Flag संभवतः सभा उत्कृष्ट सदन थी। ऋषि कहते हैं, ‘‘हे सभा! हम आपसे परिचित हैं। आपके नाम को भी जानते हैं। आपका नाम नरिष्ठा है- नरिष्ठा नाम वा असि। आप नरिष्ठा हैं, अरिष्ट दूर करने वाली हैं। आप कृपा करें कि सभी सदस्य समान रूप विचार वाणी वाले हों।’’ (वही-2) सभा में व्यक्त विचार उपयोगी हैं। कहते हैं, ‘‘सभा के सभी सदस्यों के ज्ञान व प्रभाव लाभान्वित करते हैं। हे इन्द्र! हमको पूरी सभा के समक्ष प्रतिष्ठित बनाएं। (वही-3) यह स्तुति संभवतः किसी विनम्र सभा सदस्य की है। वह शेष सदस्यों के विचार ध्यान से सुनता है। स्वयं सुंदर वक्ता होने का इच्छुक है। आगे के कथन से यह बात प्रमाणित होती है। कहते हैं, ‘‘हे सभा सदस्यों! आपका मन हमसे विपरीत है। हम विपरीत मन को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। आप सब कृपया हमारा कथन सुनें और उस पर विचार करें।’’ (वही-4) यहां अपने कथन पर जोर नहीं है। कथन सुने जाने का विनम्र आग्रह है। फिर उस पर विचार किये जाने की ही प्रार्थना है।Indian Flag

लोकतंत्र में विचार विमर्श का ही महत्व है। विचार विमर्श के सदनों की कार्यवाही के प्रति सभा सदस्यों का विश्वास जरूरी है। सदन के भीतर का अनुशासन सभा समिति के प्रति विश्वास से ही बनता है। अथर्ववेद के रचनाकाल में सभा समिति के प्रति अतिरिक्त भाव दिखाई पड़ता है। सभा के सदस्य भी अतिरिक्त आदरणीय है। अथर्ववेद (20.128.) में सभा सदस्य व सूर्य को देवों द्वारा अग्र्रगामी बनाने की बात कही गई है। अथर्ववेद (8.10.1) में सभा के विकसित होने का उल्लेख है। कहते हैं, ‘‘विराट शक्ति के क्रमशः ऊध्र्वगमन से सभा का उद्भव हुआ-सोद क्रामत सा सभायां न्यक्रामत।’’ आगे कहते हैं, ‘‘जो यह बात जानते है, वे सभा के योग्य हैं।’’ (वही-9) इसी तरह विराट के ऊध्र्वगमन से समिति का विकास हुआ। (वही-10) लोकतांत्रिक संस्थाओं का सतत् विकास हुआ है। ऋग्वैदिक काल की सभा समिति की परंपरा अथर्ववेद के काल में स्वाभाविक ही नई शक्ति ग्रहण करती है लेकिन महाभारत काल की सभा कमजोर है। निर्जीव है। सभा की शक्ति क्षीण होने के कारण ही महाभारत का विनाशकारी युद्ध हुआ।Indian Flag

लोकतंत्र स्वाभाविकता है। हम प्रकृति के अंग हैं, पृथ्वी के अंग हैं, जल, अग्नि, वायु और आकाश के अंग हैं। परिवार के अंग हैं और समाज के भी अंग हैं। किसी राजनैतिक दल के सदस्य होने के कारण दल के भी अंग हैं। समिति या अन्य संस्थाओं के भी अंग होते हैं। हम सब चिन्तनशील प्राणी हैं। पशु और वनस्पतियां भी प्राण ऊर्जा से भरी पूरी हैं। वे भी चिन्तनशील हैं। जनतंत्र की सफलता के लिए सबके प्रति अपने दायित्व का चिंतन जरूरी है। जनतंत्र मानव समाज की आंतरिक एकता है। यह आंतरिक एकता अर्जित करनी होती है। पश्चिम के जनतंत्र और भारतीय जनतंत्र में यही मौलिक अंतर है। वे केवल मनुष्य के बारे में सोचते हैं। भारत में सृष्टि के सभी अवयवों पर समग्र विचार की परंपरा है। यहां जन के साथ लोक का भी विचार चलता है। पश्चिम का जनतंत्र राजतंत्र की प्रतिक्रिया है। भारतीय जनतंत्र हमारे रस, रक्त प्रवाह का हिस्सा है। यहां का जन लोक से रस लेता है। फिर लोक को सींचता है। स्वयं भी रससिक्त है। लोक प्रीतिकर है, जन प्रीति इसी अनुभूति का अनुषंग है। जनतंत्र लोकतंत्र का अंग है।Neeraj Chopra with indian flag in Asian Games 2018.

लोकतंत्र में सूर्य चन्द्र नदी, पर्वत, कीट, पतिंग, वनस्पति, पशु और मनुष्य भी सम्मिलित हैं। क्या हम तमाम लोकों का अस्तित्व स्वीकार कर सकते हैं? चिन्तन की अल्प अवधि के लिए ऐसा सोचना बुरा नहीं। तब प्रश्न उठता है कि लोक अनेक हैं तो क्या सभी लोक स्वतंत्र इकाई हैं। लेकिन ऐसा असंभव है। प्रकृति एक अखण्ड सत्ता है। लोक इसी प्रकृति का ही भाग हैं। हम लोक में हैं। यह लोक सबके भीतर है, सबको आच्छादित करता है। दिक् के साथ काल को भी। सारे लोक भी परस्पर जुड़े हुए हैं। पृथ्वी को लोक जानें तो यह जल के नीचे पाताल लोक से जुड़ी हुई है। पाताल की बढ़ी ऊष्मा से ही धरती कांपती है और भूकम्प आते हैं। द्युलोक भी पृथ्वी से सम्बन्धित है। सारे लोक परस्परावलम्बन में हैं। मनुष्य और सभी जड़ व चेतन भी। तब इनके भीतर संगति, समन्वय, प्रीति और अनेकता के अंतरंग में एकता की लय भी होनी चाहिए। इसी अन्तस् एकता की वीणा के सभी तारों की सुर संगति का नाम लोकतंत्र है। लोकतंत्र नमस्कारों के योग्य है और उसका अंश जनतंत्र भी। ऋग्वेद अथर्ववेद में वर्णित लोकतांत्रिक संस्थाएं हमारे गौरवशाली इतिहास का अविस्मरणीय अध्याय हैं।