
मुगल आततायी औरंगजेब की प्रशंसा में पत्रकारों के सामने कसीदे पढ़ने वाले सपा नेता अबू आजमी को उनके बयान पर इतनी कड़ी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ेगा, यह संभवत: उन्होंने सोचा भी नहीं था। इस बयान पर ठाणे में अबू आजमी के खिलाफ केस दर्ज हुआ, महाराष्ट्र विधानसभा से पूरे सत्र के निलंबित होना पड़ा। जब चारों तरफ से वे इस मुद्दे पर घिर गए तो उन्होंने माफी मांग ली। उनकी खुद की पार्टी के मुखिया अखिलेश ने भी इस पर चुप्पी साध ली लेकिन अयोध्या से सपा सांसद अवधेश प्रसाद अबू आजमी के समर्थन में आ गए। उन्होंने औरंगजेब के महिमामंडन वाले बयान को न केवल सही बताया कि महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की जानकारी पर भी सवाल उठा दिए। भारत जैसे देश में जहां इतिहास की स्मृतियां लोगों के जहन में हमेशा रहती हैं, जहां छत्रपति शिवाजी महाराज उनके पुत्र संभाजी राजे के प्रति लोगों की अगाध श्रद्धा है ऐसे में दुराचारी, क्रूर, मजहबी उन्मादी औरंगजेब की यदि कोई प्रशंसा करेगा तो समाज से कड़ी प्रतिक्रियाएं तो आएंगी ही। औरंगजेब का नाम इस देश में कोई कैसे सम्मान से ले सकता है। औरंगजेब की वकालत करने वालों पर कार्रवाई तो होनी ही चाहिए।
कथित वामपंथी बुद्धिजीवी और कट्टरपंथी हमेशा से यह झूठा विमर्श खड़ा करने का प्रयास करते रहे हैं, ”औरंगजेब एक कुशल प्रशासक था। हिंदू राजाओं से जो लड़ाइयां उसने लड़ीं उसके कारण मजहबी नहीं बल्कि राजनीतिक थे। वह पांचों वक्त का नमाजी था, इस्लाम में आस्था रखने वाला, अपने हाथों से कुरान लिखने वाला और अपने खर्चे के लिए टोपियां सिलने वाला शासक था। वह सहिष्णु था।” भला कुरान लिखना, पांचों वक्त की नमाज पढ़ना, टोपियां सिलना उसके सहिष्णु होने का प्रमाण कैसे हो सकता है?
औरंगजेब पर सबसे ज्यादा काम करने वाले इतिहासकार जदुनाथ सरकार की एक किताब है ‘हिस्ट्री ऑफ औरंगजेब’। इस किताब में उन्होंने विस्तार से औरंगजेब के कुकर्मों के बारे में वर्णन किया है। किताब में स्पष्ट लिखा है, ”औरंगजेब ने गुजरात के गवर्नर को पत्र लिखकर आदेश दिया था कि सोमनाथ मंदिर को ध्वस्त करके वहां मूर्ति पूजा बंद करा दी गई थी तो फिलहाल वहां की क्या स्थिति है? यदि वहां फिर से मूर्ति पूजा होने लगी है तो मंदिर को बर्बाद कर दिया जाए।” औरंगजेब ने 9 अप्रैल 1669, को हिंदुओं के मंदिरों को गिराने का आदेश दिया था। इसका जिक्र खुद औरंगजेब के दरबारी लेखक साकी मुस्तैद खान ने अपनी किताब ‘मआसिर-ए-आलमगीरी’ में किया है। औरंगजेब के इस आदेश के बाद काशी विश्वनाथ मंदिर पर हमला कर मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया।
मुगल सेना में काम करने वाले भीमसेन बुरहानपुरी ने नौकरी छोड़ने के बाद ‘नुस्खा-ए-दिलकुशा’ नाम का ग्रंथ लिखा था। फारसी में लिखे गए इस ग्रंथ में औरंगजेब के शासनकाल के दौरान की बर्बरता और अत्याचारों का वर्णन किया गया है। भीमसेन ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों और उस समय की घटनाओं को इसमें उल्लेखित किया है। उन्होंने स्पष्ट लिखा है, ”औरंगजेब ने हिंदुओं के धार्मिक स्थलों को नष्ट करने का आदेश दिया और कई मंदिरों को तोड़ दिया गया। उसने जजिया कर फिर से लागू किया, जो गैर-मुसलमानों से वसूला जाता था।” इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने ‘नुस्खा-ए-दिलकुशा’ को उस समय के सबसे प्रमाणिक साक्ष्य के रूप में माना है, क्योंकि इसे औरंगजेब की सेना में नौकरी करने वाले भीमसेन ने लिखा और कतई औरंगजेब की चापलूसी नहीं की। पूरी प्रमाणिकता के साथ इसकी रचना की।
फ़ारसी में लिखी गई एक अन्य पुस्तक “किस्सा-ए-संजान” है, उसमें औरंगजेब की बर्बरता और उसके शासनकाल के अत्याचारों के बारे में बताया गया है। पुस्तक के लेखक पारसी विद्वान और पुजारी दस्तूर बहमन कैकोबाद हैं। वह पारसी समुदाय के प्रमुख विद्वानों में से एक थे। किताब में उन्होंने लिखा है, ”औरंगजेब ने मजहबी कट्टरपंथ के कारण कई मंदिरों और धार्मिक स्थलों को ध्वस्त किया। गैर-मुस्लिमों को कन्वर्जन के लिए मजबूर किया। पारसी समुदाय सहित गैर-मुस्लिमों पर कर लगाए। इस कारण पारसी समुदाय को अपनी सुरक्षा के लिए दूर-दूर तक पलायन पड़ा।”
हिंदू मंदिरों को तोड़ने वाला, हिंदुओं पर जजिया लगाने वाला, सिख गुरु तेग बहादुर की हत्या करने वाला, छत्रपति संभाजी राजे को अमानवीय यातनाएं देने वाला भला कैसे प्रशंसा का पात्र हो सकता है? इतिहास को तोड़—मरोड़कर लिखने वाले कथित सेकुलर इतिहासकार अक्सर यह कहते हैं कि गुरु तेग बहादुर की हत्या धार्मिक कारणों से नहीं बल्कि राजनीतिक कारणों के चलते की गई थी। जबकि यह कतई झूठ है। वेदांत और सिख दर्शन के विद्वान् और ज्ञानी संप्रदाय के विचारक भाई संतोख सिंह द्वारा रचित “गुरु प्रताप सूरज ग्रंथ” में स्पष्ट लिखा है कि उन्होंने कश्मीरी पंडितों और हिंदुओं की धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। उन पर इस्लाम कबूल करने का दबाव बनाया गया तो उन्होंने इंकार कर दिया। इसके बाद औरंगजेब ने उनकी हत्या करवा दी।
औरंगजेब के न्यायप्रिय होने के तर्क दिए जाते हैं। यदि न्याय प्रिय होता तो तख्त के लिए अपने ही भाइयों को नहीं मारता। अपने पिता शाहजहां को कैद नहीं करता। इतिहास में तमाम ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जो औरंगजेब की क्रूरता, उसके बर्बरता, उसकी मजहबी कट्टरता को उल्लेखित करते हैं। ऐसे में ऐसे बर्बर शासक की प्रशंसा कोई भी भारतीय कैसे बर्दाश्त कर सकता है। कोई कैसे क्रूर आततायी को कुशल प्रशासक बता सकता है। यदि कोई औरंगजेब की प्रशंसा में कसीदे पढ़ेगा तो उसे विरोध तो झेलना ही होगा। परिणाम भुगतने ही होंगे।
डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।