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भाजपा के इस दांव से कैसे निपटेंगे अखिलेश ?

उधर सपा के यादव वोटरों को साधने के लिए भाजपा ने अपना तीर तरकश से निकाल दिया है। भाजपा मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव के जरिए यूपी में यादव बिरादरी के बीच पैठ बनाना चाहती है।

देश में लोकसभा चुनाव की सरगर्मी जोरों पर है। अबकी बार 400 पार के नारे के साथ भाजपा के हौसले बुलंद हैं। वहीं विपक्षी पार्टियां भी भाजपा के विजयी रथ को रोकने के लिए जोड़-तोड़ में लगी हुई हैं। बात अगर उत्तर प्रदेश की करें तो मौजूदा हालात को देखते हुए भाजपा की स्थिति बहुत मजबूत है और प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों पर भाजपा नेता विपक्ष के क्लीन स्वीप का दावा कर रहे हैं। दूसरी ओर सपा प्रमुख अखिलेश यादव भी अपनी पूरी तैयारी में जुटे हैं। भाजपा को हराने के लिए यूपी में अखिलेश यादव और राहुल गांधी ने एक बार फिर हाथ मिला लिया है। अखिलेश एक ओर तो भाजपा को हराने के लिए नई प्लानिंग के तहत काम करते हैं तो दूसरी ओर उनको अपनों से ही धोखा मिल रहा है जो कि उनके सामने बहुत ही गंभीर समस्या है।
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राज्यसभा चुनाव से पहले अखिलेश के प्रमुख सहयोगी रहे रालोद के जयंत चौधरी इंडी गठबंधन का साथ छोड़ते हुए एनडीए के पाले में चले गए। इस बीच राज्यसभा चुनाव में अखिलेश के साथ उनके अपने विश्वास पात्र विधायकों ने दगा करते हुए भाजपा प्रत्याशी के पक्ष में वोटिंग कर दी जिससे सपा के तीसरे प्रत्याशी की हार हो गई। अखिलेश के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने विधायकों को एकजुट रखने की है। इतना ही नहीं सपा के अन्य सहयोगी दल भी अखिलेश की कार्यप्रणाली से सरेआम नाराज़गी जाहिर कर चुके हैं। अपना दल (कमेरावादी) की नेता पल्लवी पटेल ने राज्यसभा चुनाव में अखिलेश द्वारा जया बच्चन और पूर्व मुख्य सचिव आलोक रंजन को प्रत्याशी बनाए जाने को लेकर नाराजगी व्यक्त की थी। पल्लवी ने कहा था कि एक ओर तो अखिलेश यादव पिछड़ा, अल्पसंख्यक और दलित (पीडीए) की बात करते हैं ऐसे में बच्चन और रंजन जैसे सवर्णों को टिकट दिया जाना गलत है। बात अगर स्वामी प्रसाद मौर्य की करें तो उन्होंने भी सपा में रहते हुए अखिलेश के लिए कम परेशाानियां खड़ी नहीं कीं। स्वामी प्रसाद के बेफिजूल बयानों के चलते अखिलेश की काफी किरकिरी हो चुकी है। ऐसे में अखिलेश के सामने कई चुनौतियां खड़ी हैं। बात अगर पिछले लोकसभा चुनाव की करें तो अखिलेश ने मायावती और जयंत चौधरी के साथ मिलकर वो चुनाव लड़ा था तब अखिलेश के हिस्से सिर्फ पांच सीट आई थीं और बसपा के खाते में दस सीट गई थी। पूर्व के हालात को देखते हुए बात अगर मौजूदा परिदृष्य की करें तो अखिलेश के लिए स्थिति पहले से और ज्यादा कठिन हो गई है। आज मायावती और जयंत दोनों ही अखिलेश के खिलाफ हैं निश्श्चित ही इन पार्टियों के वोटबैंक का साथ अब अखिलेश को नहीं मिलेगा और खुद सपा के वोटर भी छिटक सकते हैं। उधर एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी ने भी यूपी में अपने प्रत्याशी उतारने की बात करते हुए अखिलेश से पांच सीटें मांगी हैं। ओवैसी ने कहा कि अगर अखिलेश पांच सीट नहीं देंगे तो हम 25 सीटों पर प्रत्याशी उतार देंगे। अब अखिलेश के सामने एक तरफ कुआं और एक तरफ खाई वाली स्थिति है। अखिलेश ओवैसी को सीट नहीं देना चाहते, ऐसे में अगर एमआईएम अपने कैंडिडेट उतारती है तो निश्चित ही वो एक वोटकटुआ पार्टी के तौर पर सपा के वोटों में सेंध मारेगी जिसका सीधा फायदा भाजपा को होगा।


कांग्रेस से गठबंधन के बाद अखिलेश कुछ आश्वस्त जरूर हैं लेकिन राजनीतिक जानकारों का कहना है कि सपा और कांग्रेस के इस गठबंधन से भाजपा पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण समेत भाजपा के कई ऐतिहासिक फैसलों से जनमानस के मन में पीएम मोदी और यूपी के सीएम योगी की ऐसी सकारात्मक छवि बन चुकी है जिसके आगे विपक्ष का कोई नेता नहीं टिकता।
उधर सपा के यादव वोटरों को साधने के लिए भाजपा ने अपना तीर तरकश से निकाल दिया है। भाजपा मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव के जरिए यूपी में यादव बिरादरी के बीच पैठ बनाना चाहती है। यही कारण है कि लखनऊ में हुए यादव महाकुम्भ में सीएम मोहन यादव बतौर मुख्य अतिथि शामिल हुए। उम्मीद की जा रही है कि भाजपा की इस चाल से सपा के वोटरों का झुकाव कमल की तरफ हो सकता है। ऐसे में अब देखना होगा कि भाजपा के इस दांव का अखिलेश क्या जवाब देते हैं। आने वाले लोकसभा चुनाव में अखिलेश को अपनों को साथ रखकर चुनौतियों से पार पाने की दिशा तय करनी होगी।