बसंत आ गया है। तिथि के हिसाब से ऋतुराज बसंत आगमन पर प्रबुद्धों में चर्चा जारी है, लेकिन वास्तव में बसंत की रूप, रस, गंध दिखाई नहीं पड़ती। वायु में मधु गंध नहीं है। आम वैसे नहीं बौराये जैसे हर बसंत में बौराते थे। कोयल भी वैसे नहीं गाती जैसे पहले बसंत के आगमन पर अपना तान पूरा लेकर गीत गाती थी। महुआ के पेड़ कट गये हैं। जहां-जहां बचे हैं, वहां-वहां महुआ के कूचे भी रसीले नहीं हैं। न सुंदर रूप, न मधु मस्त वायु, न गंध, न मदिर गंध और न ही मधुरस भरी पूरी वाणी है। बसंत के साथ हमारे अपने राज्य उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में चुनाव भी हैं। बसंत में सबके हृदय रस पूर्ण होते हैं। वाणी मधुर हो जाती है, लेकिन चुनाव प्रचार ने वाणी को कटु बनाया है। नए-नए शब्द आ गए हैं। बसंत का रस चुनावी बयानबाजी के कारण तिक्त हो गया है। चुनाव लोकतंत्र का महापर्व होते हैं और एक नियत समय के बाद बार-बार होते हैं। ऐसे ही बसंत भी मधु रस लेकर हर बरस आता है। इस बार भोले बाबा शंकर को भी सुविधा है। बसंत में पूरी प्रकृति बासंती मदन गंध लेकर नहीं आई। वायु में मदन गंध नहीं है। भोले बाबा शिव को तीसरा नेत्र खोलने की जरूरत नहीं है। ये शिव ही तो हैं। उन्होंने बसंत के बिगड़ैले प्रभाव के विरूद्ध तीसरा नेत्र खोलकर कामदेव को भस्म कर दिया था। बताते हैं तब से कामदेव अनंग हो गये थे। शिव कृपा से वह सभी प्राणियों में अंग रहित होकर व्याप्त हैं।
शिशिर की विदाई हो गई है। तोम्त कामदेव बसंत के सारे उपकरण लेकर नहीं दिखाई पड़ते हैं। सोचता हूं कि बसंत के पूरे लावलस्कर के साथ न आने का कारण क्या है? पंचांग बताता है कि बसंत आ गया, लेकिन प्रकृति में बसंत के उपकरण रूप, रस, गंध लेकर नहीं आये। जान पड़ता है कि प्राकृतिक नियमों के शासक वरूणदेव भी कहीं क्षुब्ध हैं। प्रकृति को नियम बंधनों में रखना उन्हीं की जिम्मेदारी है। ऋग्वेद के ऋषि बता गये हैं कि प्रकृति के नियमों को लागू करना वरूणदेव का ही काम है, लेकिन यहां बसंत की ऋतु में भी बार-बार वर्षा हो रही है। बसंत में सावन के मेघ। हमारे आवास के साथ सुन्दर पार्क है। गुलाब खिले हैं। गेंदा भी हंस रहा है। लेकिन बेमौसम की बरसात ने गुलाब की पंखुड़ियां तोड़ गई हैं। मेरा मन बार-बार प्रश्नाकुल होता है कि बसंत के खुलकर अपने मधुमय अस्त्र न चलाने का कारण क्या है? क्या चुनाव आचार संहिता ने बसंत को अपना प्रभाव फैलाने से रोक रखा है। पर्यावरणविद् कहेंगे कि यह प्रकृति के साथ मनुष्य द्वारा किये गये शोषण दुर्व्यवहार का परिणाम है। कुछ न कुछ जरूर हुआ है। ऐसा न होता तो सब तरफ बासंती मधुर गंध होती। सब तरफ रस होता। सब तरफ सौंदर्य नर्तन करता। जान पड़ता है कि प्रकृति की जीवन लीला में कुछ गड़बड़ी हो गयी है। जहां मधुरस होना चाहिए वहां रस नहीं है। जहां रूप सौंदर्य होना चाहिए वहां सौंदर्य नहीं है। जहां प्रेम गीत होने चाहिए वहां गीत नहीं है। बसंत सबका है। प्रकृति के प्रत्येक प्राणी का है। मैं बार-बार अपने भीतर और बाहर का बसंत खोजता हूं, लेकिन निराशा हाथ लगती है। भीतर बसंत है नहीं। बाहर बसंत कैसे होगा? बसंत अस्तित्व की निरंतरता का प्रसाद है। यह प्रसाद बिना मांगे ही सबको मिलता रहा है। हम सब बसंत नहीं ला सकते हैं। प्रकृति द्वारा लाये गये बसंत का आनंद ले सकते हैं, लेते रहे हैं।
खेतों में सरसों के फूल खिले हैं। बहुत दूर-दूर तक पीले रंग की चादर दिखाई पड़ती है। वह बसंत का स्मरण कराते हैं। सरोवर अब है नहीं। जहां है वहां कमल खिले हैं। कालीदास कमल फूल पर मोहित थे। मेघदूत में उन्होंने अनेकशः कमल गंध का उल्लेख किया है। उसके पहले अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में कमल की मधुर चर्चा है। कहा गया है कि सगंधा पृथ्वी की समूची गंध कमल के फूल पर उतर आई है और यही गंध देवों ने सूर्य की पुत्री सूर्या के विवाह में फैलाई थी। कमल जल में उगता है, लेकिन जल स्पर्श से अप्रभावित रहता है। मैं कमल का अनुरागी रहा हूँ। भारतीय परंपरा ने कमल को अतिरेकी प्यार दिया है। मेरे मन के भीतर और बाहर कमल गंध है। कमल के प्रति राग है, प्रीति है। कमल हमारी श्रुति स्मृति में छाया हुआ है। बसंत भी ऐसे ही छाया रहता है हर बरस। हमारा राग-अनुराग बार-बार संसार के आकर्षण में ले जाता है। संसार कर्तापन और भोक्तापन का परिणाम है। शंकराचार्य यही बता गये हैं। संसार आकर्षित करता है। हम सकाम कत्र्ता हो जाते हैं कर्तापन निश्चित ही भोक्तापन बनता है। पर हाथ कुछ नहीं लगता।
मनुष्य संवेदनशील प्राणी है। वह प्रकृति को देखकर संवेदित होता है। मनुष्य क्या पशु, पक्षी भी प्रकृति से संवेदित होते हैं। वे आहाल्द में होते हैं, शोक में भी होते हैं। वे पतझड़ देखकर उदास होते हैं, बसंत देखकर आनंदमग्न होते हैं। महाप्राण निराला ने इसका शब्दचित्र बनाया- वर्ण गंध धर/मनमरन्द भर/ तरू-उर की अरूणिमा तरूणतर/खुली रूप-स्तर सपुरिसरा/ रंग गई पग-पग धन्य धरा। निराला से पहले कवि तुलसी के बसंत चित्रण में ‘सृष्टि को ब्रह्ममय देखने वाले योगी भी कण-कण में स्त्री देखने लगे।‘ प्रकृति संवेदन जगाती है तो योग धरा रह जाता है। मुर्दे भी उठ पड़ते हैं। तुलसी कहते हैं- सीतल जागे मनोभाव मुएंहु मन वन सुभगता न परे कही/ सुगंध सुमन्द मारूत मदन अनल सखा सही/ विकसे सरन्हि बहु कंज गंुजल पुंज मंजुल मधुकदा/ कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपसरा। तुलसी के भी बहुत पहले कालिदास भी बसंत और आम्रगंध में बौरा गए। उन्होंने ‘कुमारसम्भव‘ में कहा, ‘पवन स्वभाव से ही आग भड़काऊ है, बसंत कामदेव के साथ आया। उसने नई कोपलों के पंख लगाकर आम्र मंजरियों के बाण तैयार किए। आम्र मंजरियां खाने से नर कोकिल का सुर मीठा हुआ। उसकी कूक पर रूठी हुई स्त्रियां रूठना भूल जातीं।‘ पूर्वजों का अप्रतिम संवेदन और सौंदर्यबोध हजारों बरस प्राचीन राष्ट्र के सामाजिक और सांस्कृतिक विकास का परिणाम है।
बसंत का सौंदर्य हमारे रचे मानसिक संसार का परिणाम है। पीछे कुछ बरस से बासंती वायु रूप, रस, गंध का रथ लेकर नहीं आती। काल का पहिया इस मनोदशा को रौंदते हुये आगे निकल जाता है। उपनिषद के पुरखे बता गये हैं कि वह पूर्ण है, यह पूर्ण है, पूर्ण से ही यह पूर्ण निकला है। पूर्ण में पूर्ण घटावो तो पूर्ण ही बचता है। क्या स्वयं बसंत भी ऐसा होता है? उसे ऐसा होना भी चाहिए। बसंत भी उस पूर्ण से निकला हुआ इस पूर्ण का भाग है, लेकिन इसका गणित उस पूर्ण से भिन्न है। बसंत में बसंत घटावो तो बसंत नहीं बचता। बसंत नित्य नहीं है। आता है अपनी सेना लेकर और काल की गति का शिकार हो जाता है। जीवन की पूर्णता सत्य के साक्षात्कार में है। बसंत की पूर्णता में नहीं। जीवन की पूर्णता में सब सम्मिलित है, लेकिन हम सबका मन रीता है। जीवन एक प्रवाह है प्रकृति का। प्रकृति हमारे राग की प्रतीक्षा नहीं करती। प्रकृति की अपनी गति है। वह हमारी गति की प्रतीक्षा नहीं करती। हम काल क्रम में शिशु तरूण और वृद्ध होते जाते हैं। प्रकृति बूढ़ी नहीं होती है। हमारे अग्रजों ने बताया है कि प्रकृति की अपनी गति है। मनुष्य प्रकृति का भाग है, लेकिन स्वयं को अलग मानने के कारण अपने राग के अनुसार काम करता रहता है। कभी मनोवांछित फल मिलते हैं तो कभी निराशा। इसीलिए प्रतीक्षा को सुंदर गुण बताया गया है। आस्तिक प्रतीक्षा मनुष्य के चित्त को विचलित नहीं होने देती। बसंत भी इस वर्ष अपने पूरे रूप, रस, रंग में नहीं खिला तो शिकायत की कोई गुंजाइश नहीं है। वह हमारे बिना लाये ही आगे खिलेगा। कमल भी जेसे खिलते आये हैं वैसे और खिलेंगे। आस्तिकतापूर्ण प्रतीक्षा में ही आनंद के फूल खिलते हैं।