जबसे शिवसेना का एनसीपी और कांग्रेस से गठबंधन हुआ तब से उद्धव ठाकरे की भाषा बदल चुकी है। उद्धव ठाकरे आजकल जिस तरह की बयानबाजी कर रहे हैं कि वह शिवसेना के मूल विचार और सिद्धांतों से परे है। 2020 में पालघर में निर्मम तरीके से भीड़ द्वारा मॉब लिंचिंग कर साधुओं की हत्या किए जाने के बाद उन्होंने बयान दिया था कि मामले को धार्मिक रंग देकर आग लगाने की कोशिश न की जाए। दोनों संत और ड्राइवर गलतफहमी का शिकार बने थे। यहां तक कि उद्धव ठाकरे सरकार ने इस मामले की जांच सीबीआई कराए जाने का भी विरोध किया था।
इसी तरह जब उद्धव ठाकरे के सहयोगी प्रकाश आंबेडकर ने महाराष्ट्र के संभाजी नगर स्थित औरंगजेब की मजार का दौरा कर वहां फूल चढ़ाकर सिर झुकाया था तब भी उद्धव ठाकरे चुप्पी साधे रहे थे। जबकि बालासाहेब ठाकरे हमेशा कहते थे कि जिस मुगल आक्रांता औरंगजेब से हमेशा छत्रपति शिवाजी राजे लड़ते रहे और हिंदवी राज्य की स्थापना की, उस धरती पर औरंगजेब जैसे आतताई की मजार होनी ही नहीं चाहिए।
दरअसल,बालासाहेब ठाकरे ने जिन उद्देश्यों और सिद्धांतों को लेकर शिवसेना की स्थापना की थी उद्धव ठाकरे उन सिद्धांतों से विमुख हो चुके हैं। शायद यही कारण है कि शिवसैनिकों ने उनसे दूरी बना ली और इसी कारण वह आज महाराष्ट्र में हाशिए पर हैं। राजनीति के चक्कर में वह कथित सेकुलर नेताओं की भाषा बोलते नजर आते हैं। उनके हालिया बयानों की बात करें तो इसी साल अगस्त में उन्होंने बयान दिया था कि कांग्रेस और एनसीपी (शरद पवार) द्वारा एमवीए के सीएम चेहरे के रूप में घोषित किसी भी उम्मीदवार का वो समर्थन करेंगे, जाहिर उनका यह बयान हर सूरत में शिवसेना शिंदे गुट और भाजपा को महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में सत्ता से दूर रखने के लिए दिया गया था।
इस माह में उन्होंने एक और बयान दिया था कि मैं ऐलान करता हूं कि अगर वक्फ बोर्ड की किसी संपत्ति को किसी ने छूने की भी कोशिश की तो मैं ऐसा नहीं होने दूंगा। उनका यह बयान भी कथित सेकुलरिज्म की वकालत करने वाले नेताओं की तरह का था। इससे पहले पिछले साल रत्नागिरी जिले में उद्धव ठाकरे ने एक रैली में बयान दिया था कि क्या हमारे देश को गोमूत्र छिड़ककर आजादी मिली थी। यह बयान उन्होंने शिवसेना का बंटवारा होने के बाद निर्वाचन आयोग द्वारा उद्धव गुट से शिवसेना के चुनाव चिन्ह तीर—धनुष को लेकर शिंदे गुट को दिए जाने के बाद आया था।
शिवसेना की स्थापना करने वाले उद्धव ठाकरे के पिता बाला साहेब ठाकरे को महाराष्ट्र का शेर और हिंदुत्व की राजनीति का अगुवा कहा जाता था। वह अपने बयानों से कभी पीछे नहीं हटे और बात जब हिंदुत्व की आई तो उन्होंने कभी समझौता किया हो ऐसा याद नहीं पड़ता है। वहीं उनके बेटे और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे शिवसेना को तो छोड़ो अपने परिवार तक को एकजुट तक नहीं रख पाए। उनके चचेरे भाई राज ठाकरे अपनी नई पार्टी महाराष्ट्र नव निर्माण सेना पहले ही बना चुके हैं, हालांकि ऐसा बालासाहेब के जीवित रहने के समय ही हो गया था लेकिन यदि उद्धव ठाकरे चाहते और उन्हें शिवसेना में यथोचित स्थान लेने देते तो शायद ऐसा नहीं हुआ होता।
बहरहाल, बालासाहेब ठाकरे के रहते समय शिवसेना में एक परंपरा थी कि ठाकरे परिवार से कोई चुनावी राजनीति में नहीं आता था, खुद बालासाहेब ठाकरे ने भी कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा लेकिन महाराष्ट्र की राजनीति हमेशा उनके इर्द —गिर्द ही घूमती रही। जो बालासाहेब ने कह दिया वह पत्थर की लकीर था। बालासाहेब का उत्तराधिकारी उनके भतीजे राज ठाकरे को माना जाता था क्योंकि वह बालासाहेब की तर्ज पर बोलते थे, लेकिन बाद में परिवारिक विरासत में शिवसेना मिली उद्धव ठाकरे को। बाला साहेब के निधन के बाद पहली बार ठाकरे परिवार से कोई चुनावी राजनीति में आया। अपनी उच्चाकांक्षा के चलते उद्धव ठाकरे स्वयं महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बनें और अपने पुत्र को मंत्री बनाया। लेकिन विरासत में मिली पार्टी को वो संभाल नहीं सके।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पहले हिंदुत्व का झंडा उठाने वाली शिवसेना बाला साहेब ठाकरे के विचारों पर आधारित थी। अब ऐसा नहीं है अब इसमें परिवर्तन हो चुका है। यह परिवर्तन उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में हुआ। इसलिए शिवसेना टूटी। हिंदुत्व शिवसेना की पहचान थी, इसी आधार पर पार्टी ने अपने को स्थापित किया। 2019 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के बाद, जब उद्धव ठाकरे ने शिवसेना को एनसीपी और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाने का निर्णय लिया तो यह सबसे गलत निर्णय था।
बाला साहेब ठाकरे राजनीति करते थे लेकिन हिंदुत्व के मामले में समझौता नहीं। वह कांग्रेस के खिलाफ सबसे पहले खड़े होने वाले नेताओं में से एक रहे। मराठी अस्मिता और हिंदुत्व को आगे रखकर बालासाहेब कभी कांग्रेस के साथ नहीं गए। इसके उलट उद्धव ठाकरे ने उन्हीं सेकुलर दलों के साथ मिलकर सरकार बनाई। तभी से हिंदुत्व के पारंपरिक एजेंडे पर चलने वाली शिवसेना ने एक महत्वपूर्ण मोड़ ले लिया और पार्टी की मूल पहचान पर सवाल उठने लगे। हाल ही में उद्धव ठाकरे ने कई बयानों में मुसलमानों के प्रति समर्थन व्यक्त किया है। उन्होंने हिंदुत्व की राजनीति को छोड़कर एक सेकुलर दृष्टिकोण अपनाने की कोशिश की है।
उद्धव के कई बयान ऐसे हैं जो कथित सेकुलरिज्म की वकालत करने वाले नेताओं की तरह हो चले हैं, जो पार्टी की मूल पहचान से अलग है। वह एक नई राजनीतिक पहचान को स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं जो घातक है। उद्धव की बयानबाजी और उनकी द्वारा की जा रही राजनीति कहीं उनके साथ बचे—खुचे समर्थकों को उनसे और दूर न कर दे। उद्धव ठाकरे का अब वह स्थान शिवसेना और महाराष्ट्र में नहीं बचा है जो कभी बालासाहेब ठाकरे का हुआ करता था, क्योंकि सत्य यही है कि जिस शिवसेना की स्थापना बालासाहेब ठाकरे ने की थी जो उन्हें विरासत में मिली वह उनके हाथ से छिटक चुकी है। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि वह अपने मूल समर्थकों को बनाए रखें और पार्टी की पहचान को पुनर्जीवित करें।
डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।