मानवीय सृजन कर्म का सबसे बड़ा फल है भाषा

मानवीय सृजन कर्म का सबसे बड़ा फल है भाषा। भाषा अद्भुत लब्धि है। भाषा सामाजिक संपदा है। वाणी के जन्म का इतिहास बहुत प्राचीन है। ऐतरेय उपषिद (1.4) में कहते हैं “सबसे पहले हिरण्यगर्भ था। तप से अण्डे की तरह फूटा।

नई दिल्ली। मानवीय सृजन कर्म का सबसे बड़ा फल है भाषा। भाषा अद्भुत लब्धि है। भाषा सामाजिक संपदा है। वाणी के जन्म का इतिहास बहुत प्राचीन है। ऐतरेय उपषिद (1.4) में कहते हैं “सबसे पहले हिरण्यगर्भ था। तप से अण्डे की तरह फूटा। इससे मुख छिद्र बना। मुख से वाणी निकली।” वाणी का रस बड़ा प्यारा है। ‘बतरस’ का आनंद ही कुछ और है। हम सब जीवन का अधिकांश भाग संवाद में लगाते हैं। भाषण और लेखन भी संवाद है। लेखन में पाठक सामने नहीं होते। लेखक अपने वाक्यों को संशोधित भी कर सकते हैं। भाषण में संशोधन की गंुजाइश नहीं होती। जान पड़ता है कि पशु पक्षी भी अपनी भाषा में बतियाते हैं।

तुलसीदास ने ‘खग जाने खग की ही भाखा लिखा है। ‘भाखा’ यहां भाषा है। समाज ने वाणी के ध्वनि प्रतीकों को सार्वजनिक बोध का उपकरण बनाया। ऋग्वेद के ज्ञान सूक्त (10.71) में भाषा विकास के संकेत हैं, “प्रारम्भिक स्थिति में पदार्थो के नाम रखे जाते हैं। इनका शुद्ध ज्ञान, अनुभूति गुफा में छुपा रहता है।” ऋग्वेद का संकेत है कि भाषा मनुष्य का अपना कर्मफल है। कहते हैं “मेधावी जन बुद्धि ज्ञानशक्ति से भाषा को सुसंस्कृत करते हैं।” भाषा लगातार सुसंस्कृत हुई है। रूपों को नाम देना आसान नहीं है। नाम सुनकर रूप याद करना आसान है। रूप का आकार होता है। हरेक रूप दूसरे रूप से भिन्न होता है। इसलिए नाम लेते ही रूप का स्मरण होता है और रूप देखते ही नाम का भी। वाक्-अभिव्यक्ति मनुष्य की अनूठी उपलब्धि है। वाक् यानी वाणी। शब्द और अर्थ भाषा की संपदा है।

Existence in world

भाषा ही समाज और संस्कृति निर्माण का मुख्य उपकरण है। वाद-विवाद संवाद ने समाज को मजबूत बनाया। उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन आए। सांस्कृतिक रिश्तों के साथ आर्थिक रिश्तों का विकास हुआ। संस्कृति, सभ्यता, उद्योग, व्यापार और ज्ञान विज्ञान का उपकरण भी भाषा ही थी और है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति का समूचा इतिहास और ज्ञान भारतीय भाषाओं में उगा। 99 प्रतिशत भारतीय अपनी भाषा में ही सोचते हैं। सोचते समय हम भाषाहीन नहीं होते। हमारी भाषा रूप, रस, गंध, ध्वनि और अनुभव अनुभूति को शब्द वाक्य बनाती हैं। विचार भाषा के माध्यम से दिग्दिगंत व्यापी होते हैं। विचारों का जन्म और विकास भी मातृभाषा में ही होता है। वह सोच विचार की दिशा भी निर्धारित करती है। मनुष्य का अन्तर्जगत् रहस्यपूर्ण है। प्रेम, राग, द्वैष, ममत्व, अवसाद, विषाद और प्रसाद जैसे अनेक भाव वस्तु या पदार्थ नहीं हैं। इनके रूप हैं नहीं। इन्हें नाम देना आसान नहीं है। भारत में भावजगत् के स्पंदनों के लिए भी नाम हैं। ऐसा चमत्कार संस्कृत में ही ज्यादा है। यहां प्रत्यक्ष भौतिक जगत के साथ-साथ अव्यक्त जगत् पर भी गहन चिन्तन हुआ। नये शोध निष्कर्षो के लिए नये शब्द गढ़ने में कोई कठिनाई नहीं होती।

प्रीति, प्रेम, राग, ईष्र्या, द्वैष, रूचि, अरूचि आदि भाव हैं। श्रद्धा, आस्तिकता, समर्पण भक्ति आदि गहन अनुभूतियां हैं। भारतीय भाषाओं में विशेषकर संस्कृत में अनुभूतिपरक ध्वनि प्रतीकों/शब्दों का कोष बड़ा है। उत्तर वैदिक काल में ही स्थूलजगत, भाव जगत व अनुभूत अंतःकरण से जुड़े भिन्न तलों के लिए अलग-अलग शब्द उपलब्ध थे। सौन्दर्य अनुभूति को बताना आसान नहीं। संवेदन की अभिव्यक्ति तो और भी दुरूह साधना है लेकिन भाषा की शक्ति सामथ्र्य बड़ी है। यहां व्याकरण का अनुशासन है। भाषा का अपना संगीत और नाद है। ब्रम्हाण्ड बड़ा है। इसका ओर छोर बताना असंभव । संस्कृत में इसे कहने के लिए ‘विराट’ शब्द आया। यूरोपीय भाषाओं में विराट का समानार्थी शब्द नहीं मिलता। इनफिनटी अनंत का पर्याय जान पड़ती है। विराट में बोध का भाव है, अनंत में असमर्थता का। पति-पत्नी को मिलाकर यहां शब्द दम्पत्ति है। गैर भारतीय भाषाओं में ऐसा शब्द नहीं है। नमस्कार का भाव गहरा है, गुड मार्निग जैसे शब्द अंतःकरण की सूचना नहीं देते। दिव्य के लिए डिवाइन शब्द है। जान पड़ता है कि दिव्य ही डिव और डिवाइन बना। पर ऐसी बातें भाषा विज्ञान का विषय हैं। नमस्कार जैसा शब्द विदेशी भाषा में नहीं है। यह ‘प्रणाम’ भी अनूठा है। लेकिन हमारे समाज में गालियाँ भी हैं। इनमें दुर्भाग्यपूर्ण अश्लीलता है। सिनेमा लोकप्रिय कला है। कला का काम समाज के उदात्त बनाना है और संवेदनशील सुचालक भी। लेकिन यथार्थवाद के नाम पर सिनेमा और ओटीटी में गालियों का प्रवाह है। गालियां भारतीय संस्कृति का भाग नहीं है। वैदिक साहित्य के 20 हजार से ज्यादा श्लोकों मंत्रों में गालियाँ नहीं है। दोनों महाकाव्यों रामायण व महाभारत का केन्द्रीय आधार युद्ध है। युद्धपूर्व दोनों पक्षों में उत्ताप होता है। आधुनिककाल में लोग झगड़ते हैं, पहले गाली बकते हैं फिर लड़ाई करते हैं। गाली प्रायः सभी लड़ाई झगड़ों का पूर्वकथन होती है। लेकिन दोनों महाकाव्यों में गालियाँ नहीं है। भाषा का उद्भव और विकास भू-सांस्कृतिक आवश्यकता व धरातल में होता है। भारतीय भाषाओं विशेषतया हिन्दी संस्कृत में गालियाँ नहीं है। भारतीय संस्कृति और परपंरा में गालियाँं होती तो हमारी भाषाओं में भी गालियाँ होतीं।

भारत में उर्दू भी चलती है। उर्दू जुबान के स्रोत भारतीय नहीं है। उर्दू में बेशक प्रेम मोहब्बत का ढेर सारा साहित्य है। अनुभूति भी गहरी है। लेकिन उर्दू शायरी में अरबी फारसी के शब्दों की बहुतायत है। जैसे हिन्दी में संस्कृत भाषा के शब्द प्रयोग की समृद्धि है वैसे ही उर्दू में अरबी, फारसी, तुर्की के भाषाई संस्कार हैं। संस्कृत या हिन्दी में गालियाँ नहीं है। सबसे ज्यादा प्रयोग में आने वाली गाली माॅं के विरूद्ध है। माॅ के लिए अरब में मादर शब्द है। मादर के साथ गाली में प्रयुक्त होने वाला दूसरा शब्द हिंसक और स्त्री विरोधी है। अधिकांश गालियों में स्त्री ही निशाना है। समझ में नहीं आता कि पुरूषों की लड़ाई में भी माॅ और बहिन ही निशाना क्यों होती है? पुरूषों को दी जाने वाली गालियाँ भी ध्यान देने योग्य हैं। इनमें हरामजादा या हरामी की औलाद में भी स्त्री ही निशाना है। हराम शब्द भी अरबी है।

गालियाँ हिन्दी भाषी लोक में भी हैं लेकिन इनमें स्त्री यौनिकता नहीं है। हिन्दी में सीधे पुरूषों के लिए ही गालियां हैं। अपमानित करने के लिए ‘चिरांध’ शब्द प्रयोग बार होता है। कोई काम न करने वाले को ‘नल्ला’ कहा गया है। हिन्दी प्रदेशों में गधा, चपड़गंजू, मग्घा आदि शब्द भी गाली की तरह इस्तेमाल होते हैं। चूतिया शब्द भी खूब चलता है। यह शब्द संस्कृत के च्युत-शब्द से विकसित प्रतीत होता है। इसका अर्थ भटका हुआ गिरा हुआ व्यक्ति है। गीता में श्रीकृष्ण के लिए “हे अच्युत” शब्द आया है। अच्युत का अर्थ है- जो भटका या गिरा नहीं है और च्युत का अर्थ भटका हुआ गिरा हुआ है। च्युत-या का अर्थ जो भटक गया है। यहां ‘या’ का अर्थ है-जो। जान पड़ता है कि च्युतया ही बोलचाल में चूतिया हो गया। यौनिक गालियाँ भारतीय परंपरा और भाषा का हिस्सा नहीं है।

तुलसीदास की एक प्रेमपूर्ण रचना है- रामलाल नहछू। नहछू में गुदगुदाने वाली गालियाँ हैं। नहछू वाली गालियाँ हास परिहास पैदा करती हैं। विवाह के अवसर पर अब भी महिलाएं भारतीय पृष्ठभूमि से उत्पन्न गालियां गाती हैं। भारत के बाहर गालियाँ गाई नहीं जाती, गालियां दी जाती हैं। संभवतः भारत दुनिया का अकेला देश है जहाँ गालियाँ गाई जाती हैं। राम लला नहछू में गाने वाली गाली के एक अंश में कहते हैं कि “काहे रामजिव सांवर लछिमन गोर हो/राम अहहि दशरथ के लछिमन आन के हो।” सूरदास की सूरसागर में भी ऐसा ही प्रसंग है। श्रीकृष्ण के लिए गाया है, “गोरे नंद यशोदा गोरी/तू कत श्याम शरीर।” श्रीराम मर्यादा पुरूषोत्तम हैं। श्री राम विवाह का अवसर है। महिलाएँ गाली गाने में मस्त हैं। नहछू में कहते हैं “रामलला सकुचाहिं देखि महतारी हो।” साहित्य और कला उद्देश्यपरक होते हैं। तुलसी ने भी नहछू में बताया है कि नहछू गाने वाले को ऋद्धि सिद्धि कल्याण मिलेगा।