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संघ की ‘शाखा’ के कारण 25 साल पहले मेरा गाँव ‘इवैंजेलिकल कन्वर्जन’ से बचा

समाचार पढ़ते ही अचानक मेरे दिमाग में लगभग 30 साल पहले की यादें दौड़ने लगी. हिमाचल प्रदेश के एक गाँव में रहने से मुझे ..

आज जब ट्विटर देखा तो पाया कि भगवा आतंकवाद अथवा हिन्दू टेरर के झूठ का खुलासा करने वाले गृह मंत्रालय के अवर सचिव श्री आरवीएस मणि ने मुझे के एक ट्वीट में टैग कर रखा है. ट्वीट देखा तो उसमें राष्ट्रीय सहारा अखबार के समाचार की एक कटिंग पोस्ट की गयी थी. समाचार का शीर्षक था, “भटोली के सात परिवारों ने ईसाई धर्म अपनाया”. समाचार पढ़ते ही अचानक मेरे दिमाग में लगभग 30 साल पहले की यादें दौड़ने लगी. हिमाचल प्रदेश के एक गाँव में रहने से मुझे यह अंदाजा है कि पहाड़ों के गाँव बहुत छोटे-छोटे होते हैं. कहीं-कहीं तो 7 परिवारों का ही एक गाँव होता है. इसलिए जब राष्ट्रीय सहारा का यह समाचार पढ़ा तो ध्यान आया कि लगभग 25 साल पहले मेरे गाँव में भी ‘इवैंजेलिकल कन्वर्जन’ (ईसाई मतान्तरण) की भयानक मजहबी साजिश हुई थी. यदि वह साजिश सफल हो गयी होती तो मेरा गाँव आज शायद पुर्णतः ईसाई होता. लेकिन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कारण यह साजिश सफल नहीं हो पायी थी.
उन दिनों में शायद मैं प्राइमरी में पढ़ता था. आये दिन बाहरी लोगों (विदेशी भी) के झुंड (जिनमें महिला पुरुष दोनों शामिल होते थे) आते थे. रोहडू, रामपुर, पूर्वोत्तर भारत के लोग होते थे. उनके पास गिटार, म्यूजिक सिस्टम, वीसीआर, किताबें, मिठाई, बिस्किट, दवाईयां, कपड़े खासकर टी-शर्ट्स आदि होते थे. यातायात साधन नहीं होने के कारण वे लोग पैदल पहाड़ चढ़कर आते थे. उनके सम्पर्क में गाँव के कुछ युवा थे, जो स्वाभाविक है बेरोजगार थे. उन युवाओं में मेरे स्वर्गवासी चाचा जी भी थे. मिशनरी गाँव में आते तो गाँव वालों के लिए आकर्षण का केंद्र होते. वे गाँव वालों के साथ बड़े ही प्रेम से बातें करते, अपनापन जताते. भोलेभाले गाँव वाले भी उन्हें अपनों की तरह ही मानने लगे थे. यदि उनको खेतों में काम करते लोग मिलते तो वे भी उनके साथ काम करने लगते, घास काटने का ढोंग करने लगते. गाँव के युवाओं को सफेद टी-शर्ट्स पहनने को देते, जिन पर अजीब अजीब कलाकृतियाँ बनी होती थी, गाँव में कोई बीमार मिलता तो वे कुछ प्रार्थना जैसी करते थे और फिर छोटी मोटी दवाई देते थे. कुल मिलाकर इवैंजेलिकल ईसाई मिशनरी मेरे गाँव में हर तरह से घुल मिल चुके थे. गाँव में उनकी छवि अच्छी बन चुकी थी. पूरा झुंड 3-4 दिन तक गाँव में घूमता रहता था. रात में वीसीआर के माध्यम से ईसा मसीह की फील्में दिखाई जाती थीं. उस दौरान बच्चों को नमकीन बिस्किट बाँटें जाते थे. वो नमकीन बिस्किट मैंने भी बहुत खाया है. फिर ईसा के गीत गाए जाते थे. हमारा गाँव एक सामूहिक उत्सव की तरह उनके कार्यक्रमों में भाग लेने लग गया था.
फिर धीरे धीरे ईसा मसीह से जुडी किताबें डाक द्वारा हमारे घरों में आने लगी. मैंने भी वे किताबें पढ़ी हैं. गाँव के कुछ भोले युवा अनजाने में उनके पक्के एजेंट जैसे बन गये थे. उनकी प्रार्थना सभाएं और सामूहिक कार्यक्रम हमारे स्कूल में होते थे. कई बार तो अंग्रेज भी आते थे. अंग्रेजों को देखने के लिए तो पूरा गाँव उमड़ पड़ता था. स्कूल में सभी बच्चों को इकट्ठा किया जाता, अध्यापक कुर्सियों पर बैठते और फिर शुरू होता गिटार और दुसरे वाद्य यत्रों की सहायता से कार्यक्रम. बच्चों से भी गीता दोहराए जाते. एक गीत की 1-2 पंक्ति मुझे आज भी याद है और वह है, “गाते हैं, बजाते हैं, खुशियाँ हम मनाते हैं, क्योंकि परमेश्वर हमारे साथ है”. ऐसे और भी गीत होते थे. गाँव से शहर पैदल जाने के पहाड़ी रास्ते के मुख पर एक पीपल का पेड़ है, उस पेड़ पर मिशनरियों ने एक सफ़ेद रंग का झंडा लगा दिया था. जिसे हम लोगों ने उतारा था.
इवैंजेलिकल कन्वर्जन मिशनरी हमारे गाँव में रुकते थे. उनकी वास्तविक मंशा क्या थी ये भोले वाले गाँव वालों को पता न थी. गाँव वाले उनको सेवा करने वाले और प्रार्थना करने वाले मानते थे. मानवता के सेवक मानते थे और कहते थे कि ये लोग इतने दूर से अपना घर बार छोड़कर हमारी सेवा के लिए आये हैं. खासकर गाँव की भोली महिलाओं में उनको लेकर बड़ा ही आत्मीय भाव बन गया था. ये सारा खेल धीरे-धीरे 5-6 साल तक चलता रहा.
1994-95 के में मेरे पिताजी का सम्पर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हुआ. जिसके परिणामस्वरूप उनको इवैंजेलिकल कन्वर्जन मिशनरियों की साजिश का पता चला. उन्होंने गाँव के लोगों को बात समझाई. गाँव के लोग इस साजिश को समझ गए और एक दिन लगभग 25 मिशनरियों का झुंड गाँव में अपने गिटार, बाजे आदि लेकर आया. पिताजी सहित गाँव के लोगों ने उनसे कुछ बातें पूछी और उनको अच्छे से समझाकर गाँव से भगा दिया. अच्छे से समझाते समय मिशनरियों के गिटार बाजे जरुर टूट गए थे. हमारे शहर में जिस मकान में उनका ठिकाना था, उस मकान के मालिक को समझाया गया. उस घटना के बाद मिशनरी फिर झुंड में नहीं आये. फिर अकेले आना या दो लोग का आना चलता रहा. वो किताबे, पत्रक आदि बांटकर चले जाते थे. गाँव के कुछ युवा उनके सम्पर्क में थे जिन्हें गाँव वालों से समझाया तो वे भी पीछे हट गये.
फिर सन 1997 में मुझे पिताजी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रशिक्षण शिविर में भेज दिया. तब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता था. प्रशिक्षण के बाद मुझे कुछ-कुछ बातें समझ आ गयी थी. लेकिन, असली बात समझ आई वर्ष 2000 में जब मैं संघ का 20 दिन का प्रथम वर्ष प्रशिक्षण करके आया. पिताजी के साथ गाँव के कई लोगों ने भी प्रशिक्षण किया. 2001 तक मिशनरियों का छुपते-छिपाते गाँव में आना जाना होता रहा. वर्ष 2001 के बाद से मेरे गाँव में संघ की शाखा नियमित चलने लगी. गाँव के कई युवाओं ने प्रशिक्षण किया. संघ के कार्यक्रमों में गाँव की सहभागिता बढ़ी. और परिणाम यह हुआ की मिशनरी तब से गाँव में नहीं आये. संघ विचार के कारण हमारा गाँव ईसाई बनने से बच गया, नहीं तो जैसे बिस्किट वो खिला रहे थे, वही चलता रहता तो शायद आज मैं भी ईसाई होता. इवैंजेलिकल कन्वर्जन ने पूरी दुनिया की मूल सभ्यताओं का विनाश किया है. इससे बचना है तो संघ की शाखा प्रत्येक गाँव, मोहल्ले, बस्ती में खड़ी करना होगा. नारायणायेती समर्पयामि…..

डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।