भारत के पुनरुत्थान में वैश्विक शांति और विकास की कुंजी को देखते थे स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda) जी के जीवन में घटित हुए अनेक प्रसंगों और उनके कथनों के माध्यम से हमें उनके विचारों का पता चलता है। रेल गाड़ी में उद्योगपति जमशेदजी टाटा से हुई उनकी भेंट और वार्ता का भारत के उद्योग और विज्ञान दोनों ही क्षेत्रों पर विशेष असर पड़ा। भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. ए.पी.जे अब्दुल कलाम अनेक अवसरों पर यह बता चुके हैं कि भारत का पहला स्वदेशी विज्ञान शोध संस्थान (जिसे अब बंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस कहते हैं) स्वामी जी द्वारा श्री टाटा को दिए गये सुझाव का ही प्रतिफल था।

श्री निवास Written by: January 12, 2021 1:58 pm

स्वामी विवेकानंद जी की आज 158वीं जयंती है। मृत्युलोक के संसार से विदा होने के 119 साल बाद भी, उनका चित्र देश में सबसे आसानी से पहचाने जाने वाली छवियों में से है| बहुत बड़ी संख्या में युवा उन्हें अपना प्रेरणास्रोत मानते हैं, उनकी छवि को अपनी पढ़ई की मेज़ पर रखते हैं।

swami-vivekananda

मात्र 39 वर्ष जीने वाले इस संन्यासी का भारत पर इतना गहरा प्रभाव क्यों है?

आज स्वामी जी की जयंती पर यदि हम इस प्रश्न का उत्तर तलाशने का प्रयास करें तो हमें यह ध्यान आता है कि स्वामी जी के विषय में सामान्यतः सभी लोगों को यह तो पता ही है कि वे रामकृष्ण परमहंस जी के शिष्य थे और 1893 के शिकागो के विश्व सर्वधर्म सम्मलेन में उन्होंने हिन्दू धर्म की सनातन परंपरा को अपने ऐतिहासिक भाषण के माध्यम से प्रस्तुत किया था जिससे पूरा पश्चिमी विश्व चकित हुआ था। लेकिन कम ही लोगों को यह मालूम होगा कि महाकवि रविंद्रनाथ टैगोर स्वामी जी के बारे में यह कहते थे कि, “यदि भारत को जानना है तो स्वामी विवेकानंद को पढ़ो”। यह भी कम लोगों को ही मालूम होगा कि गांधी जी ने कहा था कि, “स्वामी विवेकानंद जी को पढ़ने के बाद भारत के प्रति मेरी भक्ति एक हज़ार गुणा बढ़ गयी”। जब ऐसे लोग जिन्हें स्वयं ही महामानव कहा जाता है यदि उन्होंने किसी के विषय इतनी बड़ी बातें कही हों उस कोटि के व्यक्तित्व को हमारे देश और ठीक से परिचित कराने की आवश्यकता थी।

लेकिन भारतीय अकादमिक जगत और नीति-नियंताओं ने लम्बे समय तक सेकुलरवाद की राजनीति के चलते स्वामी विवेकानंद जैसे युगद्रष्टा को मात्र एक साधारण धार्मिक संन्यासी में परिवर्तित किया और उनके विचारों के दर्शन के आधार पर कोई विशेष शोध और प्रचार नहीं होने दिया।

swami-vivekananda

इसके बावजूद भी, आज सूचना क्रांति के दौर के युवा जब अपने लिए और अपने समाज के लिए आदर्श विचार और व्यक्तित्व की तलाश करते हैं तो उनकी तलाश स्वामी विवेकानंद जी की तरफ उन्हें जरुर ले जाती है। ऐसा होना स्वाभाविक ही है क्योंकि स्वामी जी ने आध्यात्मिक जगत के साथ साथ सामाजिक जीवन, आर्थिक जीवन, ज्ञान-विज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में भी इतने सटीक विचार दिए की आज तक भारतीय मानस पर उनकी गहरी छाप है। वे एक योद्धा संन्यासी थे जिन्होंने अंग्रेजी शासन में बंधे हुए भारतवासियों को राष्ट्रीयता का बोध कराया और उनमें अपनी संस्कृति के प्रति अनुराग और प्रतिबद्धता पैदा की थी।

स्वामी विवेकानंद जी के जीवन में घटित हुए अनेक प्रसंगों और उनके कथनों के माध्यम से हमें उनके विचारों का पता चलता है। रेल गाड़ी में उद्योगपति जमशेदजी टाटा से हुई उनकी भेंट और वार्ता का भारत के उद्योग और विज्ञान दोनों ही क्षेत्रों पर विशेष असर पड़ा। भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. ए.पी.जे अब्दुल कलाम अनेक अवसरों पर यह बता चुके हैं कि भारत का पहला स्वदेशी विज्ञान शोध संस्थान (जिसे अब बंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस कहते हैं) स्वामी जी द्वारा श्री टाटा को दिए गये सुझाव का ही प्रतिफल था। यही संस्थान आगे चलकर आईआईटी जैसे संस्थानों के लिए मॉडल साबित हुआ। इसी प्रकार से दक्षिण भारत में राजा सेतुबंधन से स्वामी जी की चर्चा में कृषि के आधुनिकीकरण की बात हुई जो अपने समय से कहीं आगे की बात थी। रामकृष्ण मिशन की स्थापना करके स्वामी जी ने सेवा कार्यों के साथ आध्यात्मिक और शैक्षणिक विकास के लिए भी एक दीर्घकालीन व्यवस्था कर दी।

swami-vivekananda

स्वामी जी का भारत के स्वतंत्रता संग्राम में इतना गहरा असर था कि स्वयं अंग्रेज अधिकारियों ने इस बात का उल्लेख किया कि 1897 के बाद उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ क्रांति करने वाले जिन भी सेनानियों को पकड़ा उनमें से अधिकांश के पास स्वामी की फोटो या उनसे सम्बंधित कोई साहित्य जरुर से प्राप्त होता था।

स्वामी विवेकानन्द जी जब विदेश गये तो यूरोपीय और अमेरिकी -विश्वविद्यालयों के विद्वान, जो भारत के विषय में बहुत खराब धारणा रखते थे और भारतीयों को ‘आदिम’ और ‘असभ्य’ कहते थे वे इस युवा भिक्षु के तर्कों के आगे नतमस्तक हुए थे। अमेरिकी विद्वान जॉन हेनरी राइट (1852-1908) ने स्वामी विवेकानंद के बारे में कहा कि ” एक अकेले स्वामी जी का ज्ञान हमारे सभी अमेरिकी प्रोफेसरों के ज्ञान के कुल जोड़ से अधिक है।”

स्वामी जी बेलूर मठ के मूर्तिपूजक कालीभक्त रामकृष्ण परमहंस के शिष्य थे। अपनी जानकारी और ज्ञान से भारत के साथ साथ पश्चिमी विश्व को भी झकझोर कर रख देने वाले स्वामी विवेकानंद कभी भी इस बात का उल्लेख करना नहीं भूलते थे कि वे एक ऐसे दिव्य गुरु के शिष्य हैं जिन्हें हस्ताक्षर करना भी बमुश्किल ही आता था, लेकिन जिनका आत्म-ज्ञान इतना उन्नत और प्रबल था कि स्वयं स्वामी विवेकानंद जी भी अपने ज्ञान भी उसने समक्ष कुछ भी नहीं मानते था। इस उल्लेख के माध्यम से ही स्वामी जी हमें ज्ञान के प्रति पश्चिमी दृष्टि और सनातन भारतीय दृष्टि का अंतर बताते थे। उनका कहना था कि पश्चिम मानता है कि ज्ञान व्यक्ति के बाहर बिखरा हुआ है और शिक्षकों, कक्षाओं और पुस्तकों के माध्यम से उसे व्यक्ति के भीतर प्रवेश कराना है, वहीँ भारतीय दृष्टि यह कहती है कि ज्ञान व्यक्ति के भीतर ही होता है परन्तु भौतिक और सांसारिक आवरणों के कारण वह ढका हुआ होता है, जिसे योग्य गुरु के माध्यम से अपने भीतर के ज्ञान का विकास करना होता है तभी हम वास्तविक अर्थों में संसार जगत और आध्यात्म जगत दोनों को समझ पाते हैं।

swami-vivekananda

शिक्षा के क्षेत्र में, वह भी विशेषकर स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में, स्वामी विवेकानन्द जी के विचार इतने प्रभावशाली थे कि उनके प्रभाव से विदेश से आकर मार्गरेट एलिजाबेथ नोबेल, जिन्हें हम भगिनी निवेदिता के नाम से जानते हैं, उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। सिस्टर निवेदिता ने एक बार स्वामी विवेकानंद को ‘ भारत का लघु रूप’ करार दिया था।

1886 में रामकृष्ण परमहंस जी का परिनिर्वाण होने के बाद स्वामी विवेकानंद जी ने संन्यास लिया और निर-अवलंब संन्यासी की तरह पूरे भारत वर्ष का भ्रमण किया। इस यात्रा में वे राजाओं के अतिथि भी रहे तो उन्हें कई-कई बार भूखे पेट भी सोना पड़ा। इन कष्टों को सह कर उनके भीतर भारत के निर्धन और वंचितों के लिए स्वाभाविक करुणा के संस्कार जागे। इस यात्रा ने उनको भारत के वास्तविक सत्य का दर्शन कराया। उत्तर से लेकर दक्षिण तक एक एक प्रान्त घूमकर, वहां के लोगों के बीच घुल मिलकर उन्होंने भारत के कष्ट को समझने का प्रयास किया। दक्षिणतम बिंदु कन्याकुमारी पहुंच कर उन्होंने समुद्र में स्थित एक शिला पर तीन दिन (25दिसंबर से 28 दिसंबर,1892) तक अखंड ध्यान लगाया, और अपनी लम्बी यात्रा की सभी अनुभूतियों को संश्लेषित करके भारत के भूत, वर्तमान और भविष्य का दर्शन किया।

उन्होंने पाया कि वर्तमान में भारत की सबसे बड़ी समस्या आत्म-विश्वास और स्वाभिमान का अभाव है। उन्होंने सोचा कि हम सभी क्षेत्रों में अंग्रेजों को स्वयं से श्रेष्ठ मान रहे हैं और इसके कारण उनके द्वारा शासित होने पर भी हमारे भीतर तिलमिलाहट नहीं हो रही। अतः इसके निवारण के उन्होंने पश्चिम के मंच पर स्वयं जाकर वहां भारतीय ज्ञान की पताका लहराने का निश्चय किया। 1893 से 1896 के बीच उनके द्वारा अमेरिका और यूरोप के देशों में दिए गये वक्तव्यों ने भारत को देखने की पश्चिम की दृष्टि ही बदल दी। कहाँ तो पश्चिम भारत को समस्याओं में गुथी हुई पिछड़ी और असभ्य लोगों की भूमि मानता था, वही पश्चिम स्वामी जी के तर्कों के प्रभाव से भारत के ज्ञान को पश्चिम की समस्याओं के हल के स्त्रोत के रूप में देखने लगा। इस परिवर्तन से भारत में आत्म-विश्वास के एक नए दौर का सूत्रपात हुआ। राष्ट्रीय स्वाभिमान जागृत हुआ जिसके फलस्वरूप न केवल हमारा स्वतंत्रता संग्राम तेज़ हुआ बल्कि समाज में भी अपने ऐतिहासिक गौरव को दुबारा प्राप्त करने की चेतना आई।

स्वामी विवेकानन्द जी ने भारत के पुनरुत्थान को ही विश्व शांति और बन्धुत्व का एकमेव विकल्प बताया था। आज जब वैश्विक शांति अभूतपूर्व रूप से शक्तिशाली चुनौतियों का सामना कर रही है, तो वैश्विक मानवतावाद ’के सबसे बड़े प्रवक्ता स्वामी विवेकानंद की ओर देखने की आवश्यकता है। ऐसा लगता है कि मानवता को नैतिक विचारों और करुणा के मूल्यों के एक नए प्रवाह की जरुरत है जो स्वामी जी ही दे सकते हैं। भारतीय सभ्यता उच्च मानवीय मूल्यों का सबसे बड़ा भंडार है, और स्वामी विवेकानंद में ही हम इन मानवीय मूल्यों की सबसे संवेदनशील अभिव्यक्ति पाते हैं। संभवतः इसी कारण से भारतीय मन बड़ी सरलता से स्वामी विवेकानंद जी से जुड़ाव का अनुभव कर लेता है और काफी समय बीत जाने के बाद भी स्वामी जी भारतीय युवाओं के लिए प्रेरणा के सबसे प्रमुख स्त्रोत बने हुए हैं और बने रहेंगे।

(लेखक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय सह संगठन मंत्री हैं। इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)