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क्या हम और संसार दो हैं? या दोनों एक हैं?,जानिए शंकराचार्य इस पर क्या सोचते थें!

आचार्य शंकर को मात्र 32 साल की उम्र मिली। 4-5 साल तो बचपन में ही निकल गये होंगे। 4-5 साल में तो हम चल भी नहीं पाते। लेकिन आचार्य शंकर को 8 साल की उम्र में वैदिक ऋचाएं आत्मसात थीं। वैदिक ऋचाएं कम-से-कम बीस हजार हैं। साढ़े दस हजार तो केवल ऋग्वेद में हैं। उन्हें सब याद हो गई आठ साल की उम्र में। शंकराचार्य का व्यक्तित्व आश्चर्य है। कैसे एक व्यक्ति आठ साल की उम्र में दर्शन शास्त्र का बड़ा ज्ञाता हो जाता है? बात क्या है?

नई दिल्ली। पूरा ब्रह्माण्ड, प्रकृति या सृष्टि सब एक है, अस्तित्व में द्वैत नहीं है। हम-आप संसार में बहुलता देखते हैं, कम से कम दो देखते हैं। आकाश की तरफ ध्यान करें या चन्द्रमा की तरफ। तारों की तरफ भी ध्यान करें। धरती की ओर, नक्षत्रों की ओर, शब्द की ओर, निःशब्द की ओर, ज्ञान, प्रज्ञान की ओर, ध्यान करें तो मोटेतौर पर दो दिखाई पड़ेंगे। एक हम, आप और एक संसार। लेकिन शंकराचार्य केवल ब्रह्म की सत्य जानते हैं। भारतीय दर्शन में प्राचीन समस्या है कि क्या हम और संसार दो हैं? या दोनों एक हैं? हमारे राष्ट्रजीवन में दर्शन के छः स्कूल उगे। छः विचारधाराएं। अधिकांश विचारधाराएं इसी के निकट पहुंचती थी कि हम हैं और दूसरा यह संसार है। सातवीं शताब्दी के बाद हमारे देश में धारणा बनी कि ईश्वर वैयक्तिक है। आज की भाषा में बात करें तो उसके पास सुपर कम्प्यूटर होना चाहिए, इंटरनेट होना चाहिए। ईश्वर है तो सब साधन होंगे ही। उनका सहायक भी होगा। वह बैठे-बैठे जगत संचालित करता होगा। ईश्वर संचालित करता है तो ईश्वर और जगत दो हो गये। ईश्वर और संसार। प्रश्न और भी हैं। क्या ईश्वर जगत की व्यवस्था में हस्तक्षेप करता है? गीता का ईश्वर ऐसा ही है- ‘‘यदा यदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युथानम् धर्मस्य, तदात्मानं सृजाम्यहम्।।’’ अर्थात्- ‘‘हे अर्जुन! जब-जब अस्तित्व की व्यवस्था गड़बड़ होती है, तब-तब मैं आऊंगा।’’

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आखिरकार संसार में कितनी गड़बड़ हो जाये तो ईश्वर आ जाएंगे? ऐसे प्रश्न मेरे मन में भी छात्र जीवन से आते हैं। मैं आपका ध्यान फिर दो की ओर आकर्षित करूंगा- हम और संसार। दर्शन में इसे ‘द्वैत’ कहते हैं। लेकिन हजारों वर्ष पहले ऋग्वेद के ऋषि कह रहे थें कि यहां दो नहीं हैं। ऋग्वेद में अदिति एक देवता हैं। ऋषि कहते हैं- अदिति पृथ्वी, अदिति अंतरिक्ष। अदिति आकाश है। फिर कहते हैं कि अदिति ही हमारे माता-पिता हैं। स्तुतियों में देवों को मां-बाप कहा जाता है। फिर ऋषि कहते हैं कि अदिति ही हमारे पुत्र और पुत्री भी हैं। बात अटक जाती है कि जो हमारे माता-पिता हैं। वही हमारे पुत्र और पुत्री कैसे हो सकते हैं? लेकिन ऋषि आगे कहते हैं- जो अब तक पीछे हो गया है, हजारों साल में, लाखों करोड़ों साल में में जो लोग पैदा हुए, वह सब अदिति हैं। पहाड़ उगे, पहाड़ गिरे, समुद्र आये, नये समुद्र बनें, वर्षा आई। सूर्य आये। चन्द्र आये। तमाम तरह के परिवर्तन आये। अब तक जो हो गया, वह और जो आगे होने वाला है, वह सब अदिति है।

कबीर बहुत सरल भाषा में कहते हैं कि- ‘प्रेम गलि अति सांकरी, तामें दो न समाय।’ जब तक प्रेम नहीं है तब तक दो हैं। ईश्वर है। संसार है। जब तक प्रेम नहीं है तब तक हम हैं, संसार है। लेकिन प्रेम और श्रद्धा के मार्ग में, दो हो ही नहीं सकते। ऋग्वेद के ऋषि पुरुष नाम के देवता को नमस्कार करते हैं। कहते हैं कि ‘‘वह सहस्त्रशीर्षा है। उसके हजारों शीर्ष हैं। हजारों पैर हैं। अंत में कहते हैं- ‘‘यत् भूतं भव्यं च।’’ जो अब तक हो गया वह पुरुष है। जो आगे होगा वह भी पुरुष है। भारतीय दर्शन का जन्म ऋग्वेद के उदय होेने के पहले हो गया था। पूर्वज पहले ही जान गये थे कि सृष्टि में दो नहीं है। उपनिषद् में ऋषि कहते हैं कि यह ब्रह्म हमारे सामने है। ब्रह्म पीछे है। ब्रह्म दायें है। ब्रह्म हमारे बायें है। ब्रह्म ऊपर है। ब्रह्म भीतर है। ब्रह्म ही सब कुछ है। हम ब्रह्म ही हैं। फिर दो नहीं रह जाते।दर्शन शब्द भारत से यूनान पहुंचा। यूनान में फिलॉस्फी हो गया। फिलॉस्फी का शाब्दिक अर्थ होता है- ज्ञान से प्रेम। लेकिन यहां दर्शन अस्तित्व का बोध है। उपनिषद् साहित्य सारी दुनिया का मार्गदर्शक है। उपनिषदों में भी अद्वैत की धारा है। उपनिषद् साहित्य एक महीने में, दस या बीस साल में एक साथ नहीं लिखा गया। अनेक ऋषि थे। अनेक विद्वान थे। उन्होंने अपने-अपने समय वाणी का सदुपयोेग किया। इस सारे काम को एक सूत्र में पिरोने का परिश्रम बादरायण ने किया ब्रह्मसूत्र देकर। ब्रह्मसूत्र बड़ी जटिल रचना है। संपूर्णता के लिए आए प्रतीकों का तात्पर्य यहां सूत्रों में समझाया गया है। छांदोग्य उपनिषद् में एक शब्द भूमा है। ब्रह्मसूत्र के ऋषि ने कहा कि भूमा भी वही एक है। उपनिषद में ब्रह्म शब्द आया है। उपनिषद् के ऋषि ने कहा कि ब्रह्म भी वही है। ब्रह्मसूत्र के ऋषि ने कहा कि अदिति भी वही एक है। बार-बार अद्वैत की प्रतिष्ठा।

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शंकराचार्य ने इसे तात्कालीन परिस्थतियों के अनुरूप विकसित करने का काम किया। आचार्य शंकर का यह काम आश्चर्यजनक है। उन्हें मात्र 32 साल की उम्र मिली। 4-5 साल तो बचपन में ही निकल गये होंगे। 4-5 साल में तो हम चल भी नहीं पाते। लेकिन आचार्य शंकर को 8 साल की उम्र में वैदिक ऋचाएं आत्मसात थीं। वैदिक ऋचाएं कम-से-कम बीस हजार हैं। साढ़े दस हजार तो केवल ऋग्वेद में हैं। उन्हें सब याद हो गई आठ साल की उम्र में। शंकराचार्य का व्यक्तित्व आश्चर्य है। कैसे एक व्यक्ति आठ साल की उम्र में दर्शन शास्त्र का बड़ा ज्ञाता हो जाता है? बात क्या है? कैसे एक व्यक्ति बहुत बड़े-बड़े विद्वानों को पराजित करने निकल पड़ता है। शंकराचार्य के परिश्रमपूर्वक तैयार किये गये दर्शन में यह सारी दुनिया एक है। दो है ही नहीं। तब अमेरिका, भारत, पाकिस्तान अलग नहीं है। सीरिया या ईरान अलग नहीं है। सारी दुनिया एक इकाई है। इसमें ग्रह-उपग्रह है। इसमें जो अभी नहीं जाना गया वह भी है। शंकराचार्य दर्शन के तल पर आकाश छू रहे थे। राष्ट्रजीवन को एक करने की दृष्टि से भी काम कर रहे थे। लोक को जोड़ना बड़ा काम है। लोक को उसके अनुभव में राष्ट्रजीवन के मूल्यों से जोड़ने के लिए उन्होंने कठोर परिश्रम किया।

भारत कभी विश्व गुरू कहा गया था। उसके पीछे ऋग्वेद का दर्शन था। उसके पीछे उपनिषदों की दृष्टि थी। शंकराचार्य का तप था। दार्शनिक डा. राधाकृष्णन की किताब ‘इण्डियन फिलॉस्फी’ में 195 पृष्ठ केवल शंकराचार्य पर हैं। पण्डित नेहरू की किताब है- ‘डिस्कवरी ऑफ इण्डिया’। डिस्कवरी ऑफ इण्डिया में 70 पेज हैं शंकराचार्य के दर्शन पर। आचार्य शंकर ने भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक, राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने का काम किया। हमारे पास विपुल ज्ञान संपदा है। लेकिन एक अकेला शंकराचार्य ही काफी है। अद्वैत दर्शन के अनुसार रूप अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं, लेकिन वे एक हैं। गीता में कहते हैं, ‘‘हे अर्जुन! ये अलग-अलग दिखाई पड़ने वाले सारे रूपों के भीतर जो एक चेतन देखता है। वही वास्तव में देखता है। ”यः पश्यति स पश्यति।’’ शंकराचार्य को बोध था कि सृष्टि में दो है ही नहीं। ब्रह्म सत्य है। बाकी सब अनित्य आवरण या आभास है। वे संसार को समता पूर्ण ढंग से संवारने के लिए सक्रिय थे। वे देश की सांस्कृतिक एकता के प्रवक्ता थे। उन्हें प्रणाम।