नई दिल्ली। खुद को कभी सुधारक कभी नास्तिक कहने वाले दिलीप मंडल का एक ट्वीट (https://twitter.com/Profdilipmandal/status/1671468639248343040) देखा, जिसमें उन्होंने लिखा था, “मनोज मुंतशिर शुक्ला के समर्थन में इससे ज़ोरदार लेख कोई लिख दे तो मैं उसे ₹5001 रुपए और एक नारियल दूँगा।‘
‘दी प्रिंट’ में प्रकाशित उनका लेख पढ़ा तो आभास हुआ कि बड़ा ही संतुलित और तथ्यपरक लेख है। लेकिन पढ़ने के बाद यह भी लगा कि करोड़ो रूपए के बजट से बनी आदिपुरुष फिल्म को लेकर सोशल मीडिया में जो प्रतिक्रियाऐं आ रही हैं उन्हें इस तरह का लेख लिखकर और शीर्षक में ही ‘भाषा विवाद’ बताकर ‘निरर्थक’ बता देना भी न्यायसंगत नही है, क्योंकि यह कोई साधारण बात नहीं है। और फिर ऐसा लिख कौन रहा है ये ध्यान देना बहुत आवश्यक हो जाता है। जहाँ तक दिलीप मंडल के सोशल मीडिया अस्तित्व की बात आती है तो हिन्दू धर्म और मान्यताओं और शास्त्रों अथवा धर्म ग्रंथों को लेकर बबाल काटने पर ही निर्भर है। उनके ट्विटर प्रोफाइल के फोटो में पेरियार और डॉ अंबेडकर हैं। पेरियार के बारे में जो लोग जानते हैं उनको मंडल साहब का भी अंदाजा हो जाएगा और जहाँ तक डॉ आंबेडकर की बात आती है तो उनसे आज भी लोग प्रेरणा लेते हैं। यह लेख पढ़कर एक बात तो पक्का हो गई कि निःसंदेह मंडल साहब के लिए पेरियार की ‘सच्ची रामायण’ वाल्मीकि रामायण से श्रेष्ठ होगी।
खैर अब इनके लेख पर बात करते हैं। मंडल ने लेख की शुरुआत बहुत ही शानदार तरीके से की है इसमें कोई संशय नहीं है। मंडल लिखते हैं,”इस विवाद के कई सबक हैं। …………..बल्कि इसके तौर-तरीके और नीयत को लेकर है।”
प्रथम दृष्टया मंडल साहब की शुरुआत प्रभावी दिखती है। लेकिन यदि उनके लेख का शीर्षक ध्यान से पढ़ें और फिर इन पंक्तियों को पढ़ें तब मंडल साहब अपनी ही बातों का खंडन करते प्रतीत होते हैं। वो कैसे? आईये देखते हैं- मंडल साहब के लेख का शीर्षक है, “लोक में पहुंचकर राम कथा शास्त्रीय नहीं रह सकती, आदिपुरुष का भाषा विवाद निरर्थक है।” लेकिन मंडल साहब लेख की शुरुआत में लिखते है,”इस प्रयोग या बदलाव का दायरा बहुत बड़ा है, क्योंकि माध्यम फिल्म है। विवाद का कारण भाषा संबंधी प्रयोग नहीं, बल्कि इसके तौर-तरीके और नीयत को लेकर है।” अब बताईये अगर ‘दायरा’ बहुत बड़ा है तो फिर आप शीर्षक में इसे मात्र ‘भाषा विवाद‘ तक ही क्यों समेट रहे हैं? और तो और आप अपने शीर्षक को “विवाद का कारण भाषा संबंधी प्रयोग नहीं, बल्कि इसके तौर-तरीके और नीयत को लेकर है” ये वाक्य लिखकर काट रहे हैं। क्या आपके लिए ‘तौर तरीके‘ और ‘नियत‘ का कोई महत्व नहीं है?
शायद इनको याद नही है कि आदिपुरुष फिल्म को लेकर अभिनेता सैफ अली खान ने कहा था कि इसमें रावण के मानवीय पहलु को दिखाया जाएगा और रावण द्वारा सीता के अपहरण को उचित ठहराया जाएगा। इससे बड़ा ‘नियत’ और ‘तौर तरीके का प्रमाण क्या चाहिए?क्या आपने मनोज मुन्तशिर के इंटरव्यू नही देखे? जिनमें ‘नियत’ साफ़ साफ़ झलक रही है।
दूसरे यदि आपको फिल्म की भाषा से कोई आपत्ति नही है और आपके लेख के शीर्षक अनुसार भाषा विवाद निरर्थक है तो फिर आप क्यों रामचरितमानस और दूसरे हिन्दू शास्त्रों में लिखी बातों अर्थात भाषा पर आये दिन बबाल काटते रहते हैं? फिर आपको हिन्दू शास्त्रों को प्रकाशित करने वाले गीता प्रेस को मिलने वाले गाँधी शान्ति पुरस्कार का विरोध नही करना चाहिए था? ये प्रश्न तो बनते ही हैं।
मंडल आगे लिखते हैं,”मेरा तर्क है कि राम कथा के 1987 में लोकप्रिय धारावाहिक ……. वर्तमान विवाद से ऐसा लगता कि अब राम कथा में होने वाला कोई भी बदलाव समस्या पैदा करेगा। ……….बिगड़ जाएगी।”
मंडल साहब भगवान राम टेलीविजन की खोज होने या उस पर आने वाले चलचित्रों के कारण लोगों के हृदयों में नहीं है। जिन गोस्वामी तुलसीदास को आप तुलसीदास ‘दुबे’ कहकर आये दिन जातिसूचक खेल खेलते रहते हैं उनके समय में टेलीविजन नहीं था। राम कथा बहुत पहले से लोगों के हृदय में स्थापित है।रामानंद सागर के रामायण सीरियल ने उसे थोडा सा बल बस दिया है।क्या इस बात को कोई नकार सकता है कि रामानंद सागर की रामायण से पहले रामायण आधारित फ़िल्में बन चुकी थी, जिनमें सन 1943 में बनी फिल्म रामराज्य, सन 1961 में बनी सम्पूर्ण रामायण, 1963 में बनी लव-कुश और 1967 में बनी रामराज्य आदि शामिल हैं। और यहाँ तक कि रामानंद सागर के धारावाहिक के बाद भी रामायण पर फ़िल्में और धारावाहिक बने। जिनमें वर्ष 1993 में बनी एनिमेटेड फिल्म रामायण: द लेजेंड ऑफ प्रिंस रामआज तक लोगों के हृदयों में राज करती है।सिया के राम धारावाहिक तो अभी अभी बना है। मंडल साहब का कहना कि दूरदर्शन पर उसके धारावाहिक प्रसारण के बाद इस कथा का स्वरूप काफी हद तक स्थिर हो गया है” का क्या मतलब?
इसी लेख में मंडल अपनी ही बात एक बार फिर काटते हैं,”लेकिन समय के साथ ये अलग अलग भाषायी समूहों और इलाकों में पहुंची और लोगों ने इसे अपने अपने तरीके से अपनाया और बदलावों के साथ स्वीकार किया।” मंडल जी लोगों ने बदलावों को स्वीकार किया है, ये वाक्य आपका ही लिखा है। फिर आप किस स्वरुप की स्थिरता की बात कर रहे हैं?और फिर आज अचानक बबाल क्यों हुआ? क्या इस पर विचारपूर्वक नही लिखना चाहिए? आखिर लोगों की स्वीकार्यता में आदिपुरुष को लेकर क्या समस्या आ गयी?दूसरी बात राम कथा में जबरदस्ती बदलाव करने की क्या आवश्यकता है? रामानंद सागर नेअपने धारावाहिक में कितनी बार बताया है कि ये कथा विशेष वाल्मीकि रामायण में नही है, लेकिन आमुक रामायण से ली गयी है। क्या इसे रामकथा में ‘बदलाव’ या ‘प्रयोग’ नहीं कहा जा सकता?
मंडल लेख के शीर्षक में जहाँ इस पूरे प्रकरण को ‘भाषा विवाद’ तक समेट रहे हैं वहीं लेख में भाषा के महत्व पर विस्तृत लिख भी रहे हैं। “रामकथा का स्थानीयकरण एक महत्वपूर्ण बात है,……सभी इलाकों में रामलीलाएं एक जैसी नहीं होतीं।”
मंडल साहब क्या वास्तव में यह एक भाषा विवाद है? जब इस फिल्म का टीज़र आया था तब लोगों की प्रतिक्रिया कैसी थी शायद ये आपको याद नहीं है या आप जानबूझकर भूल गए हैं। उस समय तो फिल्म के डाइलॉग भी लोगों को पता न थे। टीज़र के बाद सोशल मीडिया पर लोगों की प्रतिक्रिया के बाद इस फिल्म के संवाद लेखक मनोज मुन्तशिर का टीवी इंटरव्यू जो आजकल वायरल हो रहा है उसे क्या आपने यह लेख लिखने से पहले नहीं देखा। जिसमें मनोज कहा रहा है कि,”क्या हम ऑरिजिनल रामायण से हटे हैं, क्या हमने उसको मॉडर्नाइज करने का कोई प्रयास किया है, क्या हमने कोई अलग टेक लिया है इसका सीधा जबाब है देवांग जी ..बिल्कुल नहीं। जो रामायण लोगों ने सुनी है, पढ़ी है, देखी है, एग्जैक्टली वही रामायण है, उसके आलावा कुछ भी नहीं है।”
मनोज के इस वक्तव्य को मंडल साहब कैसे देखते हैं? यह वक्तव्य लगभग 8 महीने पुराना है। आखिर ये वक्तव्य क्यों दिया गया था? ये विचार किये बिना आपने इस पूरे प्रकरण को सामान्य घटना सिद्ध करने के लिए केवल ‘भाषा विवाद’ तक सीमित करने की कुचेष्टा में ये लेख लिख दिया।इसके साथ ही टीज़र को लेकर मिली कड़ी प्रतिक्रिया के बाद निर्माताओं और मनोज की ओर से सुधार के लिए समय मांगा था और बड़े-बड़े दावे किए गये थे कि हम फिल्म को बदलकर दर्शकों की आशाओं के अनुरूप ही बनायेंगे। इसके बाद फिल्म का टीज़र दोबारालौंच किया गया और सबसे बड़ा छल किया गया जिसमें इस बार रावण का विवादितचित्रण अथवा लुक छुपा लिया गयाऔरइस नए टीज़र में रावण का संन्यासी वेश में लुक दिखाया गया। क्या मंडल इस साजिश को भाषा के विवाद के रूप में देखते हैं?
जब फिल्म के टीज़र को लेकर हंगामा मचा थातब मनोज ने ही डींगे हांकते हुए लोगों से कहा था कि समय दीजिए मैं आपको निराश नहीं होने दूंगा। मनोज का ये वक्तव्य उस समय लोगों को ‘हूबहू’ वही रामायण देखने के लिए प्रेरित करने के लिए था जिसका दर्शन लोगों ने 90 के दशक मेंकिया था और आज की पीढ़ी ने कोरोना काल में कियाहै। आज जिस मनोज के लिखे बचकाना संवाद की आड़ में मंडल साहब पूरे प्रकरण को भाषा विवाद बता रहे हैं वही मनोज स्वयं टीवी इंटरव्यू में बोल रहा है कि हमने रामायण नहीं बनाई बल्कि हम रामायण से ‘प्रेरित‘ हैं, जबकि पहले कहा था कि हुबहू रामायण है।” मंडल साहब मनोज की इस ‘कुटिल वाक्पटुता’ और ‘पलटू भाषा’ पर आपका ध्यान नहीं गया क्या? आपके इस लेख में इसका जिक्र क्यों न है? क्या ये सामान्य बात है आपके लिए? दूसरे क्या वास्तव में ये ‘रामकथा का स्थानीयकरण’ का विषय है? मंडल जी ये फिल्म वैश्विक स्तर पर रिलीज की गई है नाकि किसी जिले या मुहल्ले में।
अपने इस लेख में मंडल साहब फिल्म के मुद्दे से हटकर वाल्मीकि रामायण और गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस की तुलना भीकरते हैं और रामलीलाओं, राम कथाओं और सीरियलों आदि के बारे में भी लिखते हैं और संस्कृत भाषा की ‘कम व्याप्ति’ का उल्लेख करते हैं। साथ ही समय के साथ प्रस्तुतिकरण में हुए बदलाव का जिक्र करते हैं और फिर लिखते हैं “मूल कथा के सारतत्व को बनाए रखते हुए ऐसे किए गए ऐसे बदलावों को लेकर हिंदू समाज भी उदार रहा है।”
मंडल साहब जब आप हिन्दू समाज की उदारता को जानते और समझते हैं तो फिर क्या आपका दायित्व नहीं बनता था कि इस बार हिन्दू समाज क्यों नकारात्मक प्रतिक्रिया दे रहा है, इस पर कुछ लिखते? पूरे प्रकरण को भाषा विवाद तक समेटने के बाद मंडल साहब रामानंद सागर के रामायण सीरियल पर सॉफ्ट तरीके से हमला करते हैं। और लेख में उपशीर्षक देते है,”सीरियल बनने के बाद राम कथाएं बंध गईं” “बंध गईं मतलब?” इतिहास में किस ‘गतिशीलता’ और नयेपन को ढूंढ रहे हैं आप? क्या रामानंद सागर की रामायण के बाद और धारावाहिक नही बने? क्या लोगों ने उन धारावाहिकों पर ऐसी प्रतिक्रिया दी जो अब आदिपुरुष के लिए हो रही है? क्या ये सोचने का विषय नही है कि ‘उदार’ हिन्दू समाज आक्रामक हो गया?क्या यह समझा जाए कि रामानंद सागर ने रामायण सीरियल बनाकर गलती की है? या सीरियल नहीं बनना चाहिए था? या फिर सीरियल देखकर लोगों को राम और रामायण के बारे में जानकारी मिली इससे आपके जैसे तथाकथित सुधारक और ‘नास्तिक’ को दुःख हुआ? या ये समझा जाए कि आपके मन को भाने वाला घटिया और कुत्सित खेल जो आदिपुरुष फिल्म के माध्यम से खेला गया, उसका प्रतिकार का कारण संभवतः रामानंद सागर का रामायण सीरियल बना है?
मंडल आगे लिखते हैं “राम कथाओं को स्थानीय परंपराओं और संस्कृति के अनुरूप ढालने की स्वतंत्रता अब पहले से काफी कम है।” अगर ऐसा है तो इसके पीछे का क्या कारण है मंडल साहब? मंडल साहब को बताना चाहिए कि आदिपुरुष फिल्म किन स्थानीय परम्पराओं और किस संस्कृति के अनुरूप बनाई गयी है? मण्डल साहब क्या आपको यह बताने की जरूरत है कि ट्वीट की गति से चलने वाली इस दुनिया में चलचित्रों और फिल्मों आदि का सामाजिक जीवन और लोगों पर कितना गहरा प्रभाव पड़ता है? क्या लोगों की आस्थाओं और मान्यताओं के साथ छेड़छाड़ करना आपको उचित लगता है? क्या जबरदस्ती मिथक गढ़ने के आप पक्षधर हैं? क्या मनोज के कुटिल व्यक्तव्यों को आप उचित मानते हैं? यदि भगवान बुद्ध को लेकर कोई ऐसी फिल्म बने और उनको अपने भिक्षुओं के साथ किसी के साथ रक्तरंजित युद्ध लड़ते हुए दिखाया जाये तो क्या आपकी प्रतिक्रिया ऐसी ही होगी? क्या आपकी प्रतिक्रिया ऐसी ही होगी यदि डॉ आंबेडकर पर फिल्म बने और उन्हें संविधान लिखने वाली टोली से गायब कर दिया जाए? वैसे इस विषय में आप आजकल ‘तंज’ कसते हुए ट्वीट ट्वीट खेलते रहते हैं? वास्तविकता अथवा तथ्यों के साथ की जाने वाली छेड़छाड़ को तथाकथित ‘बदलाव’ या ‘गतिशीलता’ कहना साज़िश ही हो सकता है मंडल साहब।
मंडल आगे लिखते हैं, “ये प्रश्न विचारणीय है कि आदिपुरुष में रावण को दाढ़ी में दिखाने पर ऐतराज कहीं …….छवि स्थिर हो चुकी है।“
रावण की दाढ़ी को लेकर मंडल साहब ने थ्योरी गढ़ दी है लेकिन थोडा सा खोजबीन कर लेते तो ये सब न करना पड़ता। मंडल साहब सोनी टीवी पर आने वाला संकटमोचन महाबली हनुमानसीरियल, स्टार प्लस पर आने वाला सिया के राम और एंडटीवी पर आने वाला कहत हनुमान जय श्रीराम जैसेसीरियल देखें हो तो उनमें आपको दाढ़ी और मूछ वाला रावण मिलेगा।इसलिए आपकी यह थ्योरी खोखली है कि रामानन्द सागर के रामायण सीरयल से छवि स्थिर हो चुकी है। जब ये सीरियल आये थे तब तो आदिपुरुष की तरह बबाल तो नही हुआ था, आखिर क्यों?
दूसरी बात क्या आप ये मानते हैं कि ओम रावत और मनोज मुन्तशिर को रामायण को लेकर लोगों की भावनाओं का पता नही होगा? जानबूझकर मान्यताओं के साथ छेड़छाड़ और भावनाओं को आहत करना क्या आपको उचित लगता है? मनोज तो सार्वजनिक मंचों पर बोल रहा हैहनुमान जी भगवान नही है हमने उन्हें भगवान बनाया है, इस पर आपका क्या कहना है? क्या वास्तव में ये ‘भाषा का विवाद’ है? क्या मान्यताओं और श्रद्धा को रूढ़ियाँ कहना उचित हैं मंडल जी?
मंडल आगे लिखते हैं, “आदिपुरुष ने दरअसल इस स्थापित स्वरूप से……स्थापित स्वरूप को ही चाहते हैं।“
मंडल साहब यहाँ आदिपुरुष के बचकाने संवादों को और पात्र निरूपण को स्थानीय रामलीलाओं के मंचन से जोड़कर आप क्या सिद्ध करना चाहतें हैं? रामलीलाओं के मंचन में भी ऐसा बचकानापन कहीं न होता है। आपकी छवि स्थिरता वाली थ्योरी पहले ही गलत सिद्ध हो चुकी है। कदाचित ऐसा लिखकर आप मनोज मुन्तशिर एंड पार्टी का साथ देने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन परिणाम क्या हुआ मनोज ने ट्विटर पर आपको ब्लॉक कर दिया, जिसका बाकयदा आपने स्क्रीन शॉट पोस्ट किया है।
मंडल आगे लिखते हैं,”इस बात की मीमांसा….. चिंतक जरूर विचार करेंगे।“
मंडल साहब ने फिर बड़ी चतुराई से ‘देवताओं के रूपों’ को बदलने वाला विषय छेड़ा है। और चिंतकों द्वारा विचार करने की आशा प्रकट की है, पर यह नही बताया की वो चिंतक कौन होंगे? क्या वे चिंतक पेरियार के अनुयायी होंगे? या स्वयं नास्तिक मंडल?दूसरे आदिपुरुष में आपको कौन सी सांस्कृतिक विविधता दिखी जिसका हवाला आप इस लेख में दे रहे हैं?
आगे मंडल साहब ने उपशीर्षक में ‘बाइबिल का अंग्रेजी में आना और संबंधित विवाद’ पर मत प्रकट किया है। इस उदाहरण का आदिपुरुष के प्रकरण से कोई लेना देना नही है मंडल साहब, क्योंकि यहाँ बाइबिल की तरह कोई अनुवाद नही किया गया है, बल्कि झूठ बोलकर (हुबहू रामायण है) मान्यताओं के साथ छेड़छाड़ करने का दुष्कृत्य किया गया है। आप इसका सामान्यीकरण इतनी आसानी से करके इस निंदनीय कृत्य पर मिट्टी नही डाल सकते।
आगे मंडल लिखते हैं,“कल्पना कीजिए कि अगर राम कथा संस्कृत में लिखी गई वाल्मीकि रामायण में ही रह जाती और तुलसीदास इसे अवधी में न लाते तो भी क्या रामलीलाएं इतनी लोकप्रिय हो पातीं?”
अच्छा होता मंडल यह बताते कि गोस्वामी तुलसीदास को रामचरितमानस लिखने की आवश्यकता क्यों पड़ी? मंडल साहब क्या भारत के बाहर भी गोस्वामी तुलसीदास के अवधी भाषा में लिखने के कारण ही रामायण ‘लोकप्रिय’ हुई? एक बात समझने में मुझे दिक्कत हो रही है कि जिन गोस्वामी तुलसीदास को मंडल साहब पानी पी पी कर कोसते रहते हैं. जिनके लिए जातिसूचक ‘दुबे’ शब्द का उपयोग मुखर होकर करते रहते हैं, उन गोस्वामी तुलसीदास को लेकर आदिपुरुष से जुड़े इस लेख में मंडल इतने सहिष्णु क्यों बने हुए हैं? क्या इसलिए कि फिल्म से जो लोगों की भावनाएं आहत हुई हैं इससे मंडल साहब बहुत प्रसन्न हैं? आगे मंडल ने एक बार फिर इस पूरे प्रकरण को भाषा की सीमा में समेटने का प्रयास करते हुए लिखा है,”आदिपुरुष के संवाद में समस्याएं हैं।……कामना डायलॉग लेखक या डायरेक्टर ने की थी।“
मंडल साहब ये सांप्रदायिक ओवरटोन क्या है? संप्रदाय तो सनातन धर्म का महत्वपूर्ण अंग हैं। सम्प्रदायों के माध्यम से ही तो सनातन धर्म आज तक टिका हुआ है। कहीं अंग्रेजी भाषा के ‘कम्युनिटी’ शब्द जिससे ‘कम्युनल’ निकला और जिसका हिंदी अर्थ ‘समुदाय’ होता है उसको सम्प्रदाय समझ बैठे हैं क्या? अगर ये संवाद का ही मुद्दा है तो फिर रावण का चमगादड़ पर उड़ना, सर्पों के बीच लोटना, विभीषण की पत्नी का अश्लील चित्रण, वैद्य सुषेण की जगह विभिषण की पत्नी द्वारा औषधि देना, लोहा कुटाई करता रावण, जैसे दृश्यों को आप क्या कहेंगे? क्या ये दृश्य भी ‘भाषा के विवाद’ हैं? या फिर फिल्म निर्माताओं के मन का कोढ़? दूसरी बार टीज़र में रावण का विवादित लुक क्यों छुपा लिया गया और सन्यासी का लुक दिखाया गया? क्या रचनात्मकता ऐसी भद्देपन की छूट देती है? क्या रामायण कोई हैरी पोर्टर जैसा काल्पनिक उपन्यास है? जो कुछ भी दिखा दो।
मंडल ने आगे लिखा है,”आदिपुरुष में भाषा के भदेसपने का अतिरेक…… ग्रंथ के हित में नहीं है।“
मुझे यह समझ नही आ रहा कि मंडल कौन सी ‘जनभाषा’ की बात कर रहे हैं? क्या मंडल जनभाषा के नाम पर भगवान राम और दूसरे चरित्रों से गाली गलौच कराना चाहतें हैं? क्या वे स्वयं किसी ‘जनभाषा’ का निर्माण कर रहे हैं जिसके माध्यम से वे इन शास्त्रों या ग्रंथों को लोक तक पहुंचाना चाहतें हैं।क्या हनुमान जी से टपोरियों जैसे डायलॉग बुलवाना मंडल को अच्छा लगा जो इस विवाद को निरर्थक बता रहे हैं? क्या इससे अधिक संतुलित नजरिया मंडल साहब बता सकते हैं कि अभी तक फिल्म निर्माताओं और संवाद लेखक को ‘सर तन से जुदा’ करने का फतवा नही दिया गया है? और दूसरी बात जिन हिन्दू शास्त्रों (ग्रन्थों) का अपमान करने का मौका मंडल कभी नही चूकते उनके ‘हित’ की बात मंडल कबसे से सोचने लगे? क्या ये एक नास्तिक का हृदय परिवर्तन है या फिर ‘हित’ के छद्म आवरण में खुशी मनाने का एक तरीका, जो लोगों की कड़ी प्रतिक्रिया के बाद किरकिरा हो गया है।
मंडल साहब वाल्मीकि रामायण में स्वयं भगवान राम ने नास्तिक मत का खंडन किया है और आस्तिक मत की स्थापना की है। इसलिए आप ‘भाषा के विवाद’ के नाम पर जितना मर्जी नास्तिक मत गढ़ते रहिये और फिल्म निर्माताओं के कुकर्मों पर पर्दा डालने का प्रयत्न कर लीजिये, अन्ततोगत्वा विजय ‘श्रीराम’ की ही होगी।
और अंत में ₹5001 और नारियल अपने इष्ट पेरियार के चित्र पर चढ़ा दीजियेगा।
जय श्री राम।
(ऊपर लिखा गया आर्टिकल लेखक के अपने विचार है)