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प्रेस क्लब ऑफ इंडिया साहित्य महोत्सव और पुस्तक मेले के दूसरे दिन प्रेस स्वतंत्रता पर हुई चर्चा

प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के महासचिव नीरज कुमार ने एक गंभीर मुद्दा उठाया—उन्होंने बताया कि जब पत्रकार सत्ता से सवाल पूछते हैं, तो कई बार उनके अपने संस्थान भी उनका समर्थन करने से पीछे हट जाते हैं। उन्होंने जोर दिया कि एक ऐसा मजबूत प्रेस संगठन होना चाहिए, जो पत्रकारों को कानूनी, वित्तीय और पेशेवर सुरक्षा दे सके।

नई दिल्ली। प्रेस क्लब ऑफ इंडिया द्वारा साहित्य महोत्सव और पुस्तक मेले के दूसरे दिन मीडिया स्वतंत्रता और पत्रकारों के सामने बढ़ती चुनौतियों पर गहन चर्चा हुई। वक्ताओं ने न केवल अपने अनुभव साझा किए, बल्कि प्रेस की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने के लिए ठोस सुझाव भी दिए।

दूसरे दिन की शुरुआत “मीडिया संस्थाएं प्रेस स्वतंत्रता की रक्षा कैसे कर सकती हैं?” विषय पर एक महत्वपूर्ण पैनल चर्चा से हुई। इसमें वरिष्ठ पत्रकार और मीडिया संगठनों के प्रतिनिधि शामिल हुए, जिनमें अभिनंदन सेकरी (DIGIPUB), सुजाता माधोक (DUJ), अनंत नाथ (EGI), बिन्नी यादव (IWPC) और नीरज कुमार (PCI) शामिल हुए, वहीं चर्चा का संचालन वरिष्ठ पत्रकार विनय कुमार ने किया।

एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के अध्यक्ष अनंत नाथ ने मीडिया संगठनों द्वारा जारी किए जाने वाले बयानों की अहमियत पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि ये बयान सिर्फ औपचारिकता नहीं, बल्कि सरकार और जनता को एक सख्त संदेश देने का माध्यम हैं। उन्होंने कॉमेडियन कुणाल कामरा के आईटी नियम 2023 के खिलाफ कानूनी संघर्ष में एडिटर्स गिल्ड की भूमिका का उदाहरण देते हुए बताया कि कैसे इस लड़ाई में बॉम्बे हाईकोर्ट ने पत्रकारिता के पक्ष में फैसला दिया।

DIGIPUB के अभिनंदन सेकरी ने कहा कि पत्रकारों को केवल अपने समाचार कार्य तक सीमित नहीं रखा जा सकता। उन्होंने ज़ोर दिया कि मीडिया संस्थानों को एक पेशेवर सचिवालय विकसित करना चाहिए, जो कानूनी और वित्तीय मदद देने के साथ-साथ नीतिगत स्तर पर मीडिया स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ सके। उन्होंने बताया कि DIGIPUB इस दिशा में एक मजबूत तंत्र विकसित कर रहा है, जिससे स्वतंत्र पत्रकारों और डिजिटल मीडिया संस्थानों को लाभ होगा।

सुजाता माधोक ने पत्रकारिता में बढ़ती आर्थिक अस्थिरता पर चिंता जताई। उन्होंने यूनाइटेड न्यूज़ ऑफ इंडिया (UNI) की द स्टेट्समैन को ₹44 करोड़ में बिक्री का उदाहरण देते हुए पूछा कि क्या यह रकम यूनियन कर्मचारियों की बकाया सैलरी और पीएफ चुकाने के लिए पर्याप्त होगी? उन्होंने स्पष्ट किया कि जब तक पत्रकार आर्थिक रूप से सुरक्षित नहीं होंगे, तब तक मीडिया की स्वतंत्रता भी सुरक्षित नहीं रह सकती।

प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के महासचिव नीरज कुमार ने एक गंभीर मुद्दा उठाया—उन्होंने बताया कि जब पत्रकार सत्ता से सवाल पूछते हैं, तो कई बार उनके अपने संस्थान भी उनका समर्थन करने से पीछे हट जाते हैं। उन्होंने जोर दिया कि एक ऐसा मजबूत प्रेस संगठन होना चाहिए, जो पत्रकारों को कानूनी, वित्तीय और पेशेवर सुरक्षा दे सके।

वहीं अनंत नाथ ने इस बात पर प्रकाश डाला कि कैसे सरकारी विज्ञापनों पर बढ़ती निर्भरता मीडिया की स्वतंत्रता को प्रभावित कर रही है। उन्होंने कहा कि कई मीडिया संस्थान इस दबाव को समझते हैं और इससे बचना चाहते हैं, लेकिन सरकारी फंडिंग का प्रभाव इतना व्यापक है कि इससे निकल पाना मुश्किल हो रहा है। उन्होंने मीडिया संगठनों से अपील की कि वे मिलकर इस आर्थिक दबाव का मुकाबला करें।

इसके बाद दोपहर में “मीडिया और कानून” विषय पर एक और महत्वपूर्ण सत्र हुआ, जिसमें कानूनी विशेषज्ञों वारिशा फराज़त, सरीम नवेद, पामेला फिलिपोस और विवेक मुखर्जी ने हिस्सा लिया और संचालन पत्रकार महताब आलम द्वारा किया गया।

इस सत्र में जम्मू-कश्मीर जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में पत्रकारों के खिलाफ हो रही कानूनी कार्रवाइयों पर विशेष ध्यान दिया गया। वारिशा फराज़त ने बताया कि गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (UAPA), जिसे पहले आतंकवाद के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता था, अब पत्रकारों को चुप कराने के लिए इस्तेमाल हो रहा है।
पामेला फिलिपोस ने आगाह किया कि डिजिटल मीडिया, जिसे कभी स्वतंत्र अभिव्यक्ति का माध्यम माना जाता था, अब बढ़ते सरकारी नियंत्रण में आ रहा है। सरीम नवेद ने बताया कि स्वतंत्र डिजिटल पत्रकारों को कई बार कानूनी तौर पर पत्रकार ही नहीं माना जाता, जिससे वे ज्यादा संवेदनशील हो जाते हैं।

सत्र के अंत में पामेला फिलिपोस ने पत्रकारों और आम जनता से अपील की कि वे उन कानूनों पर नजर बनाए रखें, जो मीडिया की स्वतंत्रता को प्रभावित कर सकते हैं। उन्होंने चेतावनी दी कि हाल ही में प्रस्तावित कुछ नीतियों के तहत आम नागरिकों को भी यह अधिकार मिल सकता है कि वे पत्रकारों की रिपोर्टिंग को “राष्ट्र-विरोधी” बताकर उनके खिलाफ शिकायत कर सकें।

साहित्य महोत्सव और पुस्तक मेले के दूसरे दिन की चर्चाओं से एक स्पष्ट संदेश उभरा—प्रेस स्वतंत्रता की रक्षा केवल पत्रकारों की जिम्मेदारी नहीं हो सकती। मीडिया संगठनों, कानूनी विशेषज्ञों और नागरिक समाज को मिलकर बढ़ती सेंसरशिप और दबाव का मुकाबला करना होगा, ताकि लोकतंत्र का यह अहम स्तंभ मजबूती से कायम रह सके।