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आखिर कांग्रेस, राहुल गाँधी और सैम पित्रोदा से चीन प्रेम छुपाये क्यों नहीं छुपता !

सत्यनारायण गंगाराम पित्रोदा उर्फ़ सैम पित्रोदा के ताज़ा बयान से किनारा कर भी ले तो भी कांग्रेस का चीन प्रेम तो झुठलाया नहीं जा सकता। जवाहर लाल नेहरू को जिस चीन ने धोखा दिया उसे अबकी ये कांग्रेस इतना प्रेम क्यों करती है

इंडियन ओवरसीज कांग्रेस के अध्यक्ष और राहुल गांधी के करीबी सैम पित्रोदा ने कहा “भारत को चीन को अपना दुश्मन मानना बंद कर देना चाहिए। चीन से खतरे को अक्सर बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है।” अब लीपापोती करने के लिए भले ही कांग्रेस ने यह कहते हुए खुद को अलग कर लिया कि चीन पर पित्रोदा के व्यक्त किए विचार कांग्रेस के विचार नहीं है, लेकिन जो सत्य है वह सत्य है उसे झुठलाया तो नहीं जा सकता। चीन के प्रति प्रेम तो कांग्रेस के खून में है। चीन के साथ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठजोड़ नया नहीं है। यह पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पूरी दुनिया में चीन की पैरोकारी, उसे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता दिलाने के दौर से चला आ रहा है।

एक न्यूज एजेंसी को दिए इंटरव्यू में पित्रोदा ने कहा, ”चीन को दुश्मन मानने के बजाय उसे सम्मान देना चाहिए। मुझे समझ ही नहीं आता कि भारत को चीन से क्या खतरा है। हम सभी को साथ आकर काम करना चाहिए। भारत को चीन के प्रति अपने नजरिए को बदलने की जरूरत की है। हमारा रवैया पहले दिन से ही टकराव का रहा है। यह दुश्मनी पैदा करता है।” भारत के रवैये को टकराव वाला बताना वह भी उस चीन के लिए जो हमारी हजारों वर्ग किलोमीटर जमीन कब्जा कर बैठा है क्या यह काफी नहीं है यह बताने के लिए कि कांग्रेस हमेशा से चीन की कितनी बड़ी समर्थक रही है।

जब राहुल गांधी के पड़नाना पंडित नेहरू प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने 1947 में आजादी के महज दो साल बाद 1949 में हुई चीन की साम्यवादी क्रांति को मान्यता दे दी थी। जबकि वह चीन की विस्तारवादी नीति को अच्छी तरह से जानते थे। चीन सीमा पर जंग के बादल मंडरा रहे थे। आर्मी चीफ जनरल करियप्पा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को बताया कि चीन भारत पर हमले की तैयारी कर रहा है। नेहरू फट पड़े, कहा, कमांडर इन चीफ का ये काम नहीं है कि वह प्रधानमंत्री को बताए कि कौन हम पर कहां से हमला करने वाला है। चीन तो सीमा पर हमारी हिफाजत करेगा। तुम कश्मीर और पाकिस्तान पर ध्यान दो। ये नेहरू का जुमला 1962 की जंग में चीन से हमारी हार की हकीकत बयान करता है। चीन की अस्त्र—शस्त्रों से सुसज्जित सेना के समाने नेहरू ने भारतीय फौज को मरने के लिए छोड़ दिया था। बिना गोला-बारूद हमारे जवान संगीनों और खुखरियों से आखिरी सांस तक लड़े।

20 अक्टूबर, 1962 को जब चीन ने भारत पर हमला किया, तो नेहरू की स्थिति ठीक वैसी थी, जैसे कबूतर बिल्ली को देखकर आंख बंद कर ले। जब चीन ने तिब्बत को हड़पना शुरू किया था तब भी उन्होंने ऐसे ही आंखें बंद कर ली थी। चीन जब हमारी छाती पर आ चढ़ा था, उस समय नेहरू दिल्ली में बैठकर माओ के साथ दोस्ती के सपने सजा रहे थे। नतीजा सबको पता है क्या हुआ ? इस जंग में चीन के अस्सी हजार सैनिकों और तोपखाने के मुकाबले भारत के दस हजार जवान थे। जिनके पास न तो रसद की सप्लाई थी, न गोला-बारूद की। एक महीने के बाद 21 नवंबर को चीन ने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा की।

जो नेहरू ने किया वैसा ही राहुल गांधी के पिता राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए किया। उस समय के तमाम दिग्गज नेताओं जैसे अटल बिहारी वाजपेयी, प्रणब मुखर्जी और जॉर्ज फर्नांडीस के विरोध के बावजूद राजीव गांधी ने चीन के सामने घुटने टेके और निहायत शर्मनाक समझौता किया। 1987 में राजीव गांधी ने चीन यात्रा से पहले विपक्ष के नेताओं के साथ बातचीत में अपने इरादे जाहिर करने शुरू कर दिए थे। राजीव का कहना था कि भारत कुछ किलोमीटर जमीन के बदले में चीन से शांति हासिल कर सकता है। इस सपने को पाले हुए राजीव गांधी 1988 में चीन की यात्रा पर गए। 19 दिसंबर 1988 को राजीव गांधी जब बीजिंग पहुंचे तो उन्होंने ऐलान किया, ”मैं यहां पुरानी मित्रता को फिर जीवंत बनाने आया हूं। सीमा के मसले पर बातचीत हो सकती है।” चीन को भारत में ऐसे ही नेताओं की तो तलाश रहती है। राजनीति और कूटनीति दोनों ही मोर्चे पर नौसिखिए राजीव गांधी को चीन के चालाक वार्ताकार ये समझाने में कामयाब रहे कि भारत और चीन के बीच सीमा का विवाद हमेशा के लिए सुलझ सकता है। बशर्ते भारत अरुणाचल प्रदेश के तवांग क्षेत्र पर चीन के दावे को स्वीकार कर ले। तवांग सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण क्षेत्र है। राजीव गांधी को यह भी समझाया गया कि अगर पूर्वी मोर्चे पर भारत चीन की बात मान लेता है और बाकी जगहों पर चीन भारतीय चिंताओं का ख्याल रखेगा।

पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार शिव शंकर मेनन उस समय सीमा से संबंधित वार्ताओं में भारत के विशेष प्रतिनिधि थे। वह कई दौर की वार्ताओं में वह शामिल हुए थे। उन्होंने अपनी किताब ‘चॉइसेस इनसाइड द मेकिंग ऑफ इंडियाज फॉरेन पॉलिसी’ में लिखा है, ”चीन ने साफतौर पर कहा कि वह पूर्व में अरुणाचल का तवांग इलाका चाहता है। हालांकि भारत में किसी भी सरकार के लिए इसे स्वीकार करना बहुत मुश्किल था क्योंकि तवांग पूरी तरह भारतीय क्षेत्र है और पहले चुनाव से संसद में अपना प्रतिनिधि भेजता रहा है। सुप्रीम कोर्ट भी 1956 में बेरूबाड़ी मामले में फैसला दे चुका था कि सरकार किसी और देश की सरकार के साथ अपने संप्रभु क्षेत्र पर समझौता नहीं कर सकती। इसके लिए संवैधानिक संशोधन की दरकार होगी।”

चंद चीनी पिट्ठुओं और वामपंथियों के अलावा राजीव गांधी की इस चीन भक्त नीति को विपक्ष से कोई समर्थन नहीं मिला। उस समय कांग्रेस से निष्कासित प्रणब मुखर्जी जो बाद में भारत के राष्ट्रपति भी रहे, उन्होंने ने तो ऐलान कर दिया था कि वह राजीव गांधी की इस आत्मसमर्पण नीति का विरोध अरुणाचल जाकर करेंगे। जनता पार्टी ने भी मैकमोहन रेखा को लेकर संदेह खड़ा करने के मसले पर राजीव गांधी को आड़े हाथ लिया था। जनता पार्टी ने कहा था, ”मैकमोहन लाइन किसी छोटे से नक्शे पर खिंची मोटी लकीर नहीं है। यह अंतरराष्ट्री सीमा को रेखांकित करती है। जिसका चीन ने उल्लंघन किया है।” अटल बिहारी वाजपेयी उस समय संसदीय मामलों की सलाहकार समिति के सदस्य थे। उन्होंने अरुणाचल को लेकर चीनियों के प्रस्ताव पर साफ कह दिया गया था कि यह न तो व्यवहारिक है और न ही संभव है। यही नहीं उन्होंने चीनियों के सामने मांग रखी थी कि अक्साई चिन को भारत के हवाले किया जाए। बहरहाल, चीन के साथ समझौते को लेकर आम राय बनाने की राजीव गांधी की कोशिश हवा हो गई। हालांकि इसके बावजूद चीन ने पूर्वी मोर्चे पर जमीन हासिल करने के लिए सरकार में बैठे अपने पिट्ठुओं के जरिए दबाव बनाने की रणनीति जारी रखी।

2008 में जब देश में कांग्रेस का शासन था 7 अगस्त को कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी ने बीजिंग के ग्रेट हॉल ऑफ द पीपल में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के अंतरराष्ट्रीय विभाग के मंत्री के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। उस समय कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग मौजूद थे। वह समझौता क्या था आज तक किसी को नहीं पता। इस पर आज तक कोई स्पष्ट सफाई कांग्रेस की ओर से नहीं आई। तब सुप्रीम कोर्ट तक को टिप्पणी करनी पड़ी थी कि देश का कोई दल इस तरह का समझौता कैसे कर सकता है। आज यदि कोई कांग्रेसी कहता है कि चीन को दुश्मन मानने के बजाय उसे सम्मान देना चाहिए। उसके साथ मिलकर काम करना चाहिए तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। कांग्रेस चीन का पहले से समर्थन करती आई है और आज भी कर रही है। अगर चीन के सुर में भारत के कम्युनिस्टों से भी आगे बढ़कर कोई बोलता है, तो वह कांग्रेस है। बीजिंग में बैठा तानाशाह कांग्रेस को कठपुतली की तरह नचाता रहता है और कांग्रेस नाचती रहती है।

डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।