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सिमटती कांग्रेस, बढ़तीं चुनौतियां ?

गुजरात में 1990 के बाद से कांग्रेस की वापसी नहीं पाई है। दिल्ली में 2013 तक दिल्ली लगातर तीन बार कांग्रेस सत्ता में रही थी। आम आदमी पार्टी का उदय होने के साथ कांग्रेस तब से लगातार दिल्ली की सत्ता से बाहर है। दिल्ली में कांग्रेस के पास नेतृत्व ही नहीं है। महाराष्ट्र में कभी कांग्रेस का एक छत्र राज्य था।

जमीनी मुद्दों से भटकी रही देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस क्‍या अपना वजूद खो रही है? देश में माहौल लोकसभा चुनाव से पहले का है और नीति-कूटनीति से जुड़े दांव पेंचों के बीच कांग्रेस को लेकर ऐसे कई सवाल लोगों की जुबां से फूट रहे हैं। अधिकांश राज्‍यों में लगातार हार, कहीं-कहीं जीतने के बाद हिलती-डुलतीं सरकारें और उत्‍तर भारत में शून्‍य पर खड़ी हो चुकी पार्टी की स्थिति किसी से छिपी नही है। हालात कुछ ऐसे कि राष्‍ट्रीय राजनीति की दिशा तय करने वाले सबसे बड़े राज्‍य यूपी में कांग्रेस 90 में से महज 17 सीटें पर लड़ने को मजबूर है। उस पर पार्टी में अंदर-बाह्य हर स्‍तर पर असंतोष चुभते प्रश्‍नों का कारण माना जा सकता है।

139 साल पहले 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई थी। आजादी के बाद जब देश में चुनाव होने शुरू हुए तो उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक कांग्रेस का ही एकछत्र राज था। वहीं कांग्रेस अब हर राज्य में सिमट रही है। कई राज्य ऐसे जहां दशकों से कांग्रेस वापसी की राह देख रही है और दिनों दिन हाशिए जा रही है। दस बरस से केंद्र में भाजपा की सरकार है। दक्षिण भारत को छोड़ दें तो हर तरफ भाजपा का ही दबदबा है। वहीं कांग्रेस की हालत कुछ ऐसी है कि उसके प्रमुख नेता पार्टी छोड़कर दूसरे ठौर-ठिकाने तलाश रहे हैं। कई कांग्रेसी चेहरे तो हाथ से दामन छुड़ाकर अपना दल भी दल बना चुके हैं।

किसी भी राज्‍य की राजनीति में मुख्यमंत्री सबसे बड़ा चेहरा माने जाते हैं और कांग्रेस 13 पूर्व मुख्यमंत्री पार्टी को अलविदा कह चुके हैं। पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह, जम्मू कश्मीर में मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद, कर्नाटक में एसएम कृष्णा, आंध्र प्रदेश में मुख्यमंत्री किरण रेड्डी, छत्तीसगढ़ में अजित जोगी, अरुणाचल प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री पेमा खांडू और ओडिशा के पूर्व मुख्यमंत्री गिरधर गमांग ने कांग्रेस से अपनी राह अलग की है। गमांग जरूर 9 साल बाद फिर से कांग्रेस में शामिल हो गए हैं मगर कब तक साथ रहेंगे, कहा नहीं जा सकता। गोवा से कांग्रेस के मुख्यमंत्री रह चुके दिगंबर कामत, रवि नाइक और लुइजिन्हों फलेरियो ने भी कांग्रेस से किनारा किया है। इनमें इनमें से 2 भाजपा में भी शामिल हो चुके हैं। उत्तराखंड के 2 पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत एनडी तिवारी और विजय बहुगुणा ने भी कांग्रेस को छोड़ी थी। और अब महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण भी कांग्रेस की नाव से कूद चुके हैं। मध्‍यप्रदेश की राजनीति का बड़ा नाम ज्योतिरादित्य सिंधिया कभी के कांग्रेस के चमकते चेहरे माने जाते थे मगर वहां के हालात खराब देख भाजपा में आ गए। सिंधिया अभी केन्‍द्र की सरकार में अहम मंत्रालय संभाल रहे हैं। कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए हिमंत बिस्‍वा सरमा इस समय असम के मुख्यमंत्री हैं और कांग्रेस पर सबसे तीखे हमले बोलने के लिए पहचाने जाते हैं।

राहुल गांधी भारत जोड़ो न्याय यात्रा निकाल रहे हैं तो उनके पीछे चल रहे कांग्रेसी कहीं-कहीं आपस में लड़ते भी नजर आ रहे हैं। कांग्रेस में कलह और बगावत आगे उसे किस मोड़ पर ले जाने वाली है, यह पार्टी के मैराथन मंथन का विषय हो सकता है। पार्टी में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा तो इसके कई कारण माने जा सकते हैं। बताने की जरूरत नहीं कि कांग्रेस की राजनीति किस तरह हमेशा गांधी परिवार के इर्द—गिर्द ही घूमती दिखती है। लीडरशिप कोई भी हो मगर फैसले गांधी परिवार ही लेता है, यह बात खुद कांग्रेसी भी मानते हैं। पीवी नरसिंहाराव जब प्रधानमंत्री थे, तो उन्होंने काफी हद तक गांधी परिवार की परवाह नहीं की और अपने अनुसार सरकार को चलाया। इसके बाद से स्थितियां सबसे सामने हैं। कांग्रेस के लिए यह समय आत्ममंथन का है। जानकारों की मानें तो केंद्रीय स्तर पर कांग्रेस में नेतृत्व की कमी बड़ा कारण है। राहुल गांधी कांग्रेस का मुख्य चेहरा है, इस पर कांग्रेस के दिग्गजों में एक राय नहीं बन पाती। ऐसे में कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व का मजबूत न होना कांग्रेस के डगमगाने का एक बड़ा कारण है।

2022 में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने सोनिया गांधी को लिखे पांच पेज के इस्तीफे में तमाम तरह के आरोप लगाए गए थे। अब मध्य प्रदेश से कांग्रेस के बड़े नेता कमलनाथ जो नौ बार सांसद रहे हैं, मुख्यमंत्री भी रहे हैं, उनके कांग्रेस छोड़ने की चर्चा है, वह भाजपा में आएंगे या नहीं ये बाद की बाद है, लेकिन अफवाहों का बाजार गर्म है। हाल ही में उनके जब पत्रकारों ने पूछा कि वह भाजपा नहीं जा रहे हैं तो इन खबरों का खंडन करें तो उन्होंने कहा कि मैं खंडन क्यों करुं,उनका रुख क्या होगा ये तो भविष्य के गर्त में है, लेकिन हाल ही में हिमाचल में राज्यसभा चुनावों में कांग्रेस में स्पष्ट फूट दिखाई दी। सत्ता में होने के बावजूद कांग्रेस वहां चुनाव हार गई। भाजपा ने अविश्वास प्रस्ताव लाने की बात कही तो कांग्रेस पर हिमाचल में सत्ता गंवाने का खतरा मंडराने लगा। हाल —फिलहाल में क्रास वोटिंग करने वाले विधायकों को निलंबित कर मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू की सरकार भले ही बच गई हो लेकिन यह बात तो तय है कि हर राज्य में कांग्रेस नेतृत्व की कमी से जूझ रही है। पिछले दिनों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में आए चुनावी नतीजे भी इसी तरफ इशारा करते हैं।

मान लेते हैं राजस्थान में हर पांच साल में सत्ता में परिवर्तन होता है लेकिन मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस एक तरह आश्वस्त ही थी कि वहां कांग्रेस सरकार बनाने में कामयाब हो जाएगी। बावजूद इसके इन दोनों राज्यों में भी भाजपा सरकार बनाने में कामयाब रही। राजस्थान में सचिन पायलट और अशोक गहलोत के तनातनी की खबरें लगातार सुर्खियों में रहीं। गुटबाजी कांग्रेस में किस कदर हावी है यह आप हर उस राज्य में देख सकते हैं जहां कांग्रेस सत्ता में रही है। कांग्रेस कई राज्यों में दशकों से सत्ता से बाहर है। कभी उसकी वापसी होगी हाल—फिलहाल में ऐसे हालात कहीं नजर नहीं आते।

गुजरात में 1990 के बाद से कांग्रेस की वापसी नहीं पाई है। दिल्ली में 2013 तक दिल्ली लगातर तीन बार कांग्रेस सत्ता में रही थी। आम आदमी पार्टी का उदय होने के साथ कांग्रेस तब से लगातार दिल्ली की सत्ता से बाहर है। दिल्ली में कांग्रेस के पास नेतृत्व ही नहीं है। महाराष्ट्र में कभी कांग्रेस का एक छत्र राज्य था। 2014 के बाद से कांग्रेस यहां कुर्सी पाने के लिए लगातार प्रयास कर रही है लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है। तमिलनाडू में 1967 के बाद से कांग्रेस की सत्ता में वापसी नहीं हुई है। बिहार में 1952 में सबसे पहला विधानसभा चुनाव हुआ था। उसमें कांग्रेस को बहुमत मिला था। कांग्रेस ने तब 239 विधानसभा सीटें जीती थीं। उसके बाद 1990 तक कांग्रेस सत्ता में रही लेकिन इसके बाद कांग्रेस वहां कभी वापसी नहीं कर पाई। आज भी बिहार में कांग्रेस घिसट रही है।

उत्तर प्रदेश की बात करें तो वहां विपक्ष में समाजवादी पार्टी है लेकिन कभी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का बड़ा वोटिंग बैंक था। अंतिम बार 1985 में उत्तर प्रदेश में बहुमत से कांग्रेस की सरकार बनी थी। इसके बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में नए—नए अध्याय जुड़ते रहे, लेकिन कांग्रेस का ग्राफ वहां लगातार गिरता गया। हालात यह है कि कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने के लिए उसके बहुत बाद में बनी समाजवादी पार्टी से गठबंधन करना पड़ता है। हाल ही में लोकसभा चुनावों को लेकर हुआ यह गठबंधन भी सपा की शर्तों पर ही हुआ है। इस गठबंधन से कांग्रेस को फायदा होगा या नुक्सान इसका पता तो स्पष्ट तौर पर लोकसभा चुनाव के नतीजे आने पर भी पता चलेगा। कांग्रेस के दिग्गज कांग्रेस को छोड़ते रहे हैं। अतीत की बात करें तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस से लेकर आचार्य नरेंद्र देव, जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, चौधरी चरण सिंह, जगजीवन राम, हेमवती नंदन बहुगुणा, शरद पवार, ममता बनर्जी जैसे कांग्रेस के बड़े नेताओं ने कांग्रेस से किनारा कर लिया। पिछले दो दशकों की बात करें तो तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और वाईएसआर कांग्रेस जैसे तीन राजनीतिक दल अपने-इलाकों में कांग्रेस के विकल्प बन चुके हैं। इन राज्यों में भी कांग्रेस वजूद की लड़ाई लड़ती नजर आ रही है।

डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।