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प्रकृति हैं में अनेक अंश और अंग

प्रकृति में अनेक अंश और अंग हैं। मनुष्य भी प्रकृति का भाग हैं। मनुष्य और प्रकृति के बीच स्थाई आत्मीयता है। सृष्टि के आदिकाल से मनुष्य प्रकृति में उपलब्ध पदार्थो और शक्तियों का उपयोग करता रहा है।

नई दिल्ली। प्रकृति में अनेक अंश और अंग हैं। मनुष्य भी प्रकृति का भाग हैं। मनुष्य और प्रकृति के बीच स्थाई आत्मीयता है। सृष्टि के आदिकाल से मनुष्य प्रकृति में उपलब्ध पदार्थो और शक्तियों का उपयोग करता रहा है। प्रकृति और मनुष्य के मध्य अन्तर्विरोध भी हैं। मनुष्य प्रकृति को लगातार अपने अनुकूल करता रहता है। सुन्दर घर बनाता है। प्राचीन काल में पत्थर के उपकरणों का भी विकास मनुष्य ने किया। अब मनुष्य प्रकृति से विद्युत पैदा कर रहा है। परमाणु ऊर्जा का विकास मनुष्य ने कर लिया है। स्थापत्य के क्षेत्र में भी मनुष्य ने आश्चर्यजनक प्रगति की है। ऐसी तमाम आश्चर्यजनक उपलब्धियां मानव इतिहास का हिस्सा हैं। प्रकृति के पदार्थो और शक्तियों का सदुपयोग करते हुये मनुष्य ने अनेक आविष्कार किए। अपने जीवन को लगातार सुन्दर बनाने के लिए तमाम उपाय किये हैं। भारत में सभ्यता के विकास का इतिहास सहस्त्रों वर्ष पुराना है। मनुष्य प्राचीन को लगातार अधुनातन बना रहा है।

हम मनुष्य चिंतनशील प्राणी है। प्रकृति के रहस्य महत्वपूर्ण है। मनुष्य ने बुद्धि के सदुपयोग से प्रकृति के अनेक रहस्यों की खोज की है। बुद्धि का सदुपयोग और कर्म क्षेत्र भौतिक है। प्रकृति रहस्यों के प्रति जिज्ञासा के अनेक क्षेत्र हैं। आंख, कान, नाक आदि इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त भौतिक जगत के ज्ञान का विवेचन भी होता रहता है। सृष्टि के जन्म और विकास पर भी यहां जिज्ञासा का वातावरण रहा है। भूकंप और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं से भी निपटने के लिए मनुष्य ने तमाम उपाय किए हैं। मनुष्य ने सुख और आनंद के लिए सभ्यता का विकास किया है। मनुष्य सामाजिक प्राणी भी है। जैसे एक मनुष्य की अपनी अलग बुद्धि होती है वैसे ही गतिशील समाजों में समाज की भी बुद्धि होती है। सामूहिक इच्छा, सामूहिक उद्देश्य और सामूहिक कर्म सभ्यता का भाग हैं। मनुष्य ने सामूहिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए अनेक सामाजिक और राजनैतिक संस्थायें भी विकसित की हैं। राजनैतिक संस्थाओं का विकास समाज को अराजकता से बचाने के लिए किया गया था। मनुष्य अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तमाम व्यक्तिगत व सामूहिक उपाय करता है। लेकिन विचार और दर्शन के माध्यम से मनुष्य अपने लिए कर्तव्य भी निर्धारित करता है। इससे सभ्यता का विकास होता है। सभी मनुष्य जीवन को ज्ञानवान और सुन्दर बनाने के प्रयत्न करते रहे है। दार्शनिक चिन्तन और अन्तःकरण में आनन्द प्राप्ति की इच्छा से काव्य, साहित्य आदि का जन्म होता है। संगीत और कला जैसे सृजन भी मनुष्य की आनन्दकामी चेतना का विस्तार है। लोकमंगल के लिए किए गए मनुष्य के सारे प्रयास संस्कृति हैं। सभ्यता मनुष्य जीवन के भौतिक विकास का आयाम है और संस्कृति मनुष्य जीवन के अन्तस का छन्दस है।

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भारत की सभ्यता और संस्कृति अति प्राचीन है। संस्कृति मनुष्य की लोक मंगलकारी अभिलाषा का परिणाम है। सभ्यता और संस्कृति का विकास किसी एक व्यक्ति के प्रयत्न से सम्भव नहीं है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता में सामूहिक प्रयासों की निरन्तरता है। यह पीढ़ी दर पीढ़ी नई पीढ़ी को परम्परा से प्राप्त होती रहती है। सुन्दर जीवन और आनन्दमगन समाज मनुष्य की सामूहिक अभिलाषा है। संस्कृति प्रवाह में कालवाह्य छूटता जाता है। काल संगत जुड़ता जाता है। हम भारतवासी अपनी संस्कृति और सभ्यता पर गर्व करते हैं। यह सहस्त्रों वर्ष से निरन्तरता में गतिशील है। सुमेरिया, असिरीया, बेबीलोनिया की सभ्यतायें अपना अस्तित्व खो चुकी हैं। मिस्र क्षेत्र की भी प्राचीन संस्कृति नष्ट हो गयी है। नील नदी की घाटी में विशाल पिरामिडों का निर्माण करने वाली सभ्यता समृति शेष है। प्राचीन ग्रीस और रोम की सभ्यतायें भी नष्ट हो चुकी हैं। लेकिन भारत की सभ्यता और संस्कृति सहस्त्रों वर्ष पुरानी होने के बावजूद विकासशील है। वैदिककाल सभ्यता दर्शन और संस्कृति अभी भी राष्टंजीवन का स्पंदन है। बुद्ध और महावीर अभी भी आदरणीय हैं। भरत खण्ड पर सतत् विदेशी आक्रमणों का भी इतिहास है। यवन, शक, कुषाण, हुण, तुर्क, अफगान, मुगल और अंग्रेज जातियों ने भारत में आक्रमण किये। इनमें से अनेक ने दीर्घकाल तक शासन भी किया। अधिकांश आक्रामक जातियां प्राचीन संस्कृति में घुल मिल गयी है। मुस्लिम और यूरोपीय सभ्यता के साथ भी भारत के लोगों ने लंबे समय तक जीवन बिताया। यहां ब्रिटिश राज्य का प्रभाव पड़ा। ब्रिटिश राज्य के प्रभाव में हमारे साहित्य इतिहास लेखन और शिक्षा आदि पर अनेक प्रभाव भी पड़े लेकिन भारतीय संस्कृति की मूल धारा अविछिन्न प्रवाहमान है। इसका नेतृत्व भारतीय दर्शन ने किया है।


ऋग्वेद के रचनाकाल से लेकर अब तक सारी दुनिया का कल्याण इस संस्कृति का ध्येय है। भारत में राज व्यवस्था का जन्म वैदिककाल में ही हो गया था। इसका मुख्य काम विधि का उल्लंघन करने वालों को दण्डित करना है। अनेक विदेशी यात्रियों ने अपने यात्रा वृतांत में मौर्य काल के शासन की प्रशंसा की है। उसके बाद के शासन भी प्रशंसनीय रहे हैं। दीर्घकाल की अंग्रेजी सत्ता के बाद 1947 में देश स्वतंत्र हुआ। संविधान की उद्देशिका में ‘हम भारत के लोग’ शब्दों का उल्लेख है। संविधान निर्माण के समय यहां जाति क्षेत्र आदि के भेद थे लेकिन संविधान निर्माताओं ने ‘हम भारत के लोग’ शब्द प्रयोग किया। सम्पूर्ण समाज को ‘हम भारत के लोग’ के रूप में एक देखना एक करना भारत का उद्देश्य था और है। लेकिन हम भारत के लोग एक आदर्श नागरिक समाज नहीं बन सके हैं। हम उत्सव और उल्लास के दिनों में भी शील और मर्यादा का पालन नहीं करते। पुलिस हमारे उत्सव सम्पन्न कराती है। सड़क पर बायें चलने के
लिए भी पुलिस की आश्यकता पड़ती है। हम प्रदूषण के प्रति भी सजग नहीं है। हम जल प्रदूषण करते हैं, वायु प्रदूषण करते हैं। ऐसी सारी गलतियों के लिए सरकार को दोष देते हैं। लेकिन स्वयं विधि सम्मत आचरण से दूर रहते हैं। सभ्यता का अर्थ है सभा के योग्य आचरण करना। जो सभा योग्य है वह सभ्य है।

पूरा देश सभा है। यहां हमारी वाणी और आचरण में सभ्य व्यवहार की अपेक्षा की जाती है लेकिन ऐसा सम्भव नहीं प्रतीत होता। सभ्यता का अंग्रेजी अनुवाद सिविलाइजेशन है। इसका अर्थ नागरिक समाज है। सभी नागरिक सभ्य होने चाहिए। ऐसे समाज में संस्कृति और विधि व्यवस्था का अनुपालन अपरिहार्य होता है। लेकिन यहां कोरोना महामारी के दौरान मास्क लगाने व न्यूनतम दो गज की दूरी का पालन कराने के लिए भी पुलिस की जरूरत पड़ती है। इसके नुपालन को क्रियान्वित कराने की अपेक्षा भी सरकार से की गयी है। दुनिया 21वीं सदी में अतिरिक्त आधुनिक हो रही है लेकिन हम सामान्य यातायात नियमों का
भी पालन नहीं करते हैं। ऐसी हमारी आदत आदर्श समाज के विकास में बाधा हैं।