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लड़ाई तो विपक्ष पहले ही हार चुका है, अब बस दिखावे के लिए मैदान में है

कांग्रेस और तमाम अन्य विपक्षी राजनैतिक दलों, जैसे सपा, तृणमूल कांग्रेस, राजद और वामपंथियों के पास कहने के लिए कुछ नया नहीं है।

लोकसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। लोकतंत्र में सत्ता पाने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी होता है जनता का साथ, तमाम दल आरोपों और तमाम चुनावी वादों को लेकर मैदान में हैं। हर हालत में भाजपा को हराना है, इसके लिए तमाम हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, लेकिन विपक्ष के पास ऐसा कुछ नहीं है जिसके माध्यम से वह भाजपा को घेर सके। कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल, तृणमूल, सपा, राजद, वामपंथी पार्टियां सभी मोदी को हराने के नाम पर एक साथ होने का दावा कर रही हैं, लेकिन उनके पास कोई विचारधारा तो कहीं नजर नहीं आती। विचारधारा और विचार विहीन होने की वजह से उनके पास चुनावों में वोटरों को बताने, समझाने और प्रभावित करने के लिए कुछ नहीं है। जहां तक विपक्ष के एकजुट होने की बात है तो वैसी एकजुटता भी विपक्ष में कहीं दिखाई नहीं दे रही। इसका एक उदाहरण ममता बनर्जी का ले सकते हैं, वह पश्चिम बंगाल में कांग्रेस से अलग रहकर चुनाव लड़ रही हैं, कहने को वह इंडी गठबंधन का हिस्सा हैं।

गत 31 मार्च को इंडी गठबंधन की दिल्ली के रामलीला मैदान में महारैली हुई थी। विपक्षी दलों की राजनीतिक एकता का उसी दिन पता चल गया था जब लोकतंत्र बचाओ के नाम पर की गई इस रैली में मंच पर बीचों—बीच सींखचों के पीछे अरविंद केजरीवाल की तस्वीर दिखाई गई। इसे देखते ही विरोधी दलों, खासकर के कांग्रेस के नेताओं के माथे पर बल पड़ गए। विरोध के बाद आनन—फानन में इस तस्वीर को हटाया गया। दरअसल हर राजनीतिक दल अपनी और अपने नेता की श्रेष्ठता सिद्ध करना चाहता है।
आम आदमी पार्टी मोदी को तानाशाह बता रही है, क्योंकि दिल्ली के आबकारी घोटाले में उनके मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सहित अन्य कई नेता जेल में हैं और कई पर गिरफ्तारी की तलवार लटक रही है। राजनीति में पिछले 10 वर्षों में एक आंदोलनकारी से मुख्यमंत्री बनने तक के सफर में केजरीवाल राजनीति को भी एक आंदोलन की तरह ही समझने की भूल कर बैठे। संभवत: वह यह मान रहे थे कि जैसे ही वह गिरफ्तार होंगे देश की राजधानी दिल्ली के लोग सड़कों पर निकल पड़ेंगे, देश विदेश का मीडिया उन्हें ऐसे ही कवर करेगा जैसे अन्ना आंदोलन के समय किया था। इसके बाद जब वह दिल्ली के मुख्यमंत्री बने तब भी उन्हें जबरदस्त कवरेज मिली थी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। दरअसल पिछले 10 सालों से दिल्ली की जनता उनकी राजनीति को देख रही है और साथ ही समझ भी रही है। 2013 में जब वह मुख्यमंत्री बने तो बड़ी संख्या में युवा उनके साथ जुड़े हुए थे, यह वह युवा थे जो या तो अपना पहला या फिर दूसरा वोट डाल रहे थे। युवाओं को अरविंद केजरीवाल में देश का भविष्य नजर आ रहा था। उनकी भावनात्मक अपील का असर भी होता था, लेकिन दस सालों में दिल्ली के युवाओं समेत दिल्ली का आम जनमानस उनकी आरोपों और सिर्फ आरोपों की राजनीति को देख भी चुका है और समझ भी चुका है।

कांग्रेस और तमाम अन्य विपक्षी राजनैतिक दलों, जैसे सपा, तृणमूल कांग्रेस, राजद और वामपंथियों के पास कहने के लिए कुछ नया नहीं है। ये सभी राजनैतिक दल पुराने घिसे—पिटे जुमलों के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को घेरने का प्रयास कर रहे हैं। भाजपा को मुस्लिम विरोधी पार्टी बताकर, देश में लोकतंत्र को बचाने की बात कहकर, यह बोलकर कि यदि एक बार फिर से मोदी सरकार बनी तो देश में लोकतंत्र नहीं बचेगा, तानाशाही आ जाएगी आदि। ऐसी तमाम घिसी—पिटी बातें बोलकर भाजपा को घेरने की नाकाम कोशिश हो रही हैं। वहीं इस बार 400 पार का नारा देकर जनसंघ की विचाराधारा पर अडिग रहने वाली भाजपा अपने काम गिनाकर मतदाताओं के बीच जाकर वोट मांग रही है।

2014 से अभी तक देखें तो आत्मनिर्भर भारत, मेक इन इंडिया और स्टार्ट अप इंडिया रूपी योजनाओं और आधारभूत ढांचे के कायाकल्प आदि नीतिगत उपायों से भारत दुनिया की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। इससे अनुमान लगाया जा रहा है कि 2014 में जो भारत 11वें पायदान पर था वह 2027 तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा अपनी प्रतिबद्धता, पिछले दस सालों में किए गए अपने काम और विकास जैसे मुद्दों के साथ पीएम मोदी के चेहरे के साथ चुनावी मैदान में है तो विपक्ष बिना किसी के चेहरे के और बिना मजबूत मुद्दों के साथ चुनाव में अपनी नैया पार लगाने की कोशिश में है जो हाल—फिलहाल तो संभव नजर नहीं आता।