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जाने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क्यों कहा कि कांग्रेस का इतिहास ही नहीं इरादे भी खतरनाक हैं

दिग्विजय सिंह के बयान से पहले पिछले महीने 6 मार्च को कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पवन खेड़ा ने बयान दिया था कि लोकसभा चुनाव में अगर उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो वे नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2019 (सीएए) को रद्द कर देंगे। यहां सवाल उठता है कि ऐसा बोलकर कांग्रेस आखिर किस को खुश करना चाहती है।

हाल ही में कच्चातिवु द्वीप को लेकर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने कहा कि कच्चातिवु द्वीप पर कोई रहता है क्या, मैं पूछना चाहता हूं ? इस पर राजस्थान के करौली में एक जनसभा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जवाब देते हुए कांग्रेस को घेरा और कहा कि कांग्रेस ने कच्चातिवु को श्रीलंका को दे दिया था। इस देश विरोधी कृत्य को कांग्रेस बेशर्मी से जायज ठहरा रही है। रेगिस्तान में भी कोई नहीं रहता इसका अर्थ यह तो नहीं इसे भी किसी को दे देंगे ? कांग्रेस का इतिहास ही नहीं बल्कि इरादे भी खतरनाक हैं। आखिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐसा क्यों कहा ? इसको समझने के लिए हमें इतिहास में जाने और कांग्रेस नेताओं के बयानों को देखने की जरूरत है।

दिग्विजय सिंह के बयान से पहले पिछले महीने 6 मार्च को कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पवन खेड़ा ने बयान दिया था कि लोकसभा चुनाव में अगर उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो वे नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2019 (सीएए) को रद्द कर देंगे। यहां सवाल उठता है कि ऐसा बोलकर कांग्रेस आखिर किस को खुश करना चाहती है। जाहिर है कांग्रेस हमेशा की तरह मुस्लिम तुष्टीकरण कर सत्ता पाना चाहती है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता का ऐसा बयान कांग्रेसी सोच को दर्शाता है। कांग्रेस के 2024 घोषणा-पत्र में पार्टी ने वादा किया है कि अल्पसंख्यकों के पर्सनल लॉ हों। जहां एक तरफ तीन तलाक जैसी कुप्रथा को लेकर कानून बनाया गया है और समान नागरिक संहिता की बात की जा रही है वहां कांग्रेस अलग ही राग अलाप रही है। कांग्रेस नेताओं की सोच का एक और उदाहरण है। पिछले दिनों कांग्रेस सांसद डीके सुरेश ने बयान दिया था कि दक्षिण के राज्यों को अलग राष्ट्र बनाया जाना चाहिए। हालांकि बाद में कांग्रेस ने इस बयान से किनारा करते हुए इसको उनका निजी बयान बताया, लेकिन इस बयान के बाद कांग्रेस ने अपने नेता के खिलाफ कठोर कार्रवाई करनी तो दूर बल्कि बेंगलुरु दक्षिण से लोकसभा का टिकट देकर पुरस्कृत किया ।

बहरहाल इतिहास में जाकर झांके तो जिस कच्चातिवु द्वीप की बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की उसका नियंत्रण 1921 में ब्रिटिश सिलोन (अब श्रीलंका) में मिलाये जाने से पहले तक तमिलनाडु के रामनाथपुरम के रामनाद जमींदारों के हाथ में ही था। ब्रिटिश राज के दौरान यह मद्रास प्रेसीडेंसी का हिस्सा बना, लेकिन 1921 में भारत और श्रीलंका दोनों ने मछली पकड़ने की सीमा निर्धारित करने के लिए द्वीप पर दावा किया। इस मामले पर दोनों देशों के बीच विवाद था।

1961 में कच्चातिवु द्वीप को लेकर संसद में कई बार बहस हुई। तब पंडित नेहरू ने कहा था कि ये छोटा सा द्वीप है और मैं इसकी बिल्कुल परवाह नहीं करता, इसको श्रीलंका को देने में मुझे जरा सी भी हिचक नहीं होगी। इस मुद्दे को बार-बार उठाया जाना भी मुझे पसंद नहीं है। ऐसे ही 1962 के युद्ध के बाद अक्साई चिन चीन के कब्जे में चले जाने को लेकर विपक्ष ने लगातार सदन में हंगामा काट रखा था, तब भी पंडित जवाहर लाल नेहरू ने संसद में यह बयान दिया था कि अक्साई चिन में तिनके के बराबर भी घास तक नहीं उगती, वो बंजर इलाका है।हालांकि तब कांग्रेस के ही एक नेता महावीर त्यागी ने इस मुद्दे पर नेहरू की संसद में बोलती बंद कर दी थी। उन्होंने अपना गंजा सिर दिखाकर कहा था कि इस पर एक भी बाल नहीं उगता तो क्या मैं इस सिर को कटवा दूं। तब महावीर त्यागी अकेले ऐसे नेता थे जिन्होंने कांग्रेसी होते हुए भी इस मुद्दे पर पंडित नेहरू का विरोध किया था। आज संभवत: कांग्रेस में कोई भी नेता ऐसा नहीं है। कांग्रेस नेता दिग्विजय के बयान पर किसी कांग्रेसी ने विरोध नहीं जताया। कच्चातिवु द्वीप समुद्र में श्रीलंका के नेदुनथीवु और भारत के रामेश्वरम के बीच स्थित है और इसका उपयोग पारंपरिक रूप से दोनों पक्षों के मछुआरों द्वारा किया जाता रहा था।

यह विवाद 1974 तक नहीं सुलझा था। 1974 में, इंदिरा गांधी ने भारत-श्रीलंका के बीच समुद्री सीमा विवाद को सुलझाने की बात बोलकर एक समझौते के तहत कच्चातिवु को श्रीलंका को सौंप दिया, उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि इस द्वीप का कितना रणनीतिक और सामरिक महत्व है। बता दें कि इस द्वीप को श्रीलंका को सौंपने से पहले संसद में कोई बहस नहीं हुई थी। यानी स्वयं को सबसे समझदार और सर्वोच्च समझने की जो सोच पंडित नेहरू की थी, वही सोच इंदिरा गांधी की भी थी। दरअसल कांग्रेस की यही मानसिकता रही है कि सत्ता है तो वह कुछ भी करेंगे, इसके लिए किसी की राय लेने की कोई जरूरत नहीं। जबकि लोकतंत्र में सारे निर्णय सहमति से ही होने चाहिए। 1974 में, तत्कालीन विदेश सचिव केवल सिंह ने तमिलनाडु के सीएम रहे करुणानिधि को कच्चातिवु पर अपना दावा छोड़ने के भारत के फैसले से अवगत कराया। तब इंदिरा गांधी के इस कदम के खिलाफ जोरदार विरोध प्रदर्शन हुए थे। 1991 में श्रीलंकाई गृहयुद्ध में भारत के दखल के बाद कच्चातिवु को दोबारा वापस लेने की मांग उठी । 2008 में तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता ने कोर्ट में अर्जी दी थी। इसमें कहा गया था कि संवैधानिक संशोधन के बिना कच्चातिवु को किसी अन्य देश को नहीं सौंपा जा सकता। वह इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक गईं।

वहीं 2014 में भाजपा के सत्ता में आने से पहले तत्कालीन अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट को कहा था कि कच्चातिवु 1974 में एक समझौते के तहत श्रीलंका को दिया गया था। आज इसे वापस कैसे लिया जा सकता है ? अगर आप कच्चातिवु को वापस चाहते हैं, तो आपको इसे वापस पाने के लिए युद्ध करना होगा। यह सोचने वाली बात है कि इंदिरा गांधी ने बिना किसी से सलाह किए, बिना देश के लोगों को विश्वास में लिए इतना बड़ा कदम उठाया और जो द्वीप भारत का हिस्सा था उसे श्रीलंका को सौंप दिया।

ऐसे में जबकि चीन श्रीलंका में लगातार अपने पैर—पसार रहा है तो यह द्वीप भारत के लिए सामरिक और रणनीतिक दृष्टि से कितना महत्वपूर्ण है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। प्रश्न यह है कि राष्ट्रीय स्तर का निर्णय लेते हुए इस द्वीप को लेकर जनभावना और जुड़ाव को नहीं समझा गया। सत्ता में मौजूद किसी भी राजनीतिक दल को सोचना चाहिए कि जब भी आप कोई संवेदनशील राष्ट्रीय निर्णय ले रहे हों तो उसके लिए संसद में सहमति बनाना आवश्यक होता है। कांग्रेस नेता दिग्विजय द्वारा दिए गए इस बयान को लेकर यदि कांग्रेस के अंदर से ही विरोध हुआ होता तो बेहतर था, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसके उलट कांग्रेसी, इस कदम को जायज ठहराने के लिए बिना बात के तर्क दे रहे हैं जो कांग्रेस के लिए ही आत्मघाती साबित होगा।

डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।