नई दिल्ली। आत्मविश्वास और अहंकार में बस रत्तीभर का ही फर्क होता है। जरा सा भी फिसले तो आत्मविश्वास अहंकार में बदल जाता है, और अहंकार तो कभी किसी का भी नहीं रहा, यही हाल कांग्रेस का हुआ। लोकसभा चुनावों में तमाम तरह का प्रोपेगेंडा फैलाने के बाद पहले से कांग्रेस की स्थिति कुछ अच्छी क्या हुई तमाम कांग्रेसियों और खासकर के राहुल गांधी के सिर पर दंभ चढ़ गया। हर बात पर ज्ञान देने लगे। भाषा की मर्यादा की उम्मीद तो वैसे भी कांग्रेस के वर्तमान नेताओं से नहीं रखी जा सकती। हरियाणा और कश्मीर के चुनावी नतीजों ने कांग्रेस को उसकी स्थिति दिखा दी है।
हरियाणा के एग्जिट पोल देखकर कांग्रेस के नेता फूले नहीं समा रहे थे। कांग्रेस के नेताओं में पहले से ही ‘कौन बनेगा मुख्यमंत्री’ खेल खेला जाने लगा था। हाईकमान यानी राहुल गांधी और सोनिया गांधी को अपने पक्ष में करने के लिए तमाम तरह की जुगत लगाने में भुपेंद्र सिंह हुड्डा, शैलजा कुमारी दोनों के बीच रस्साकशी भी शुरू हो गई थी, जब नतीजे आए तो अरमानों पर पानी फिर गया। सुबह से ढोल और ताशे लेकर कांग्रेस मुख्यालय पर जुटे कांग्रेसी कार्यकर्ता दोपहर 12 बजे तक वहां से खिसकना शुरू हो गए थे। हरियाणा में पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने का दावा करने वाली कांग्रेस हरियाणा में महज 37 सीटों पर सिमट गई। भाजपा के दस साल के शासन और उसकी नीतियों को कटघरे में खड़ा करके एंटी इनकंबेंसी का दावा कर कांग्रेस के सरकार बनाने के सपने हवा में उड़ गए।
ऐसा ही जम्मू—कश्मीर में हुआ। जम्मू—कश्मीर में 2014 के बाद 10 सालों बाद विधानसभा चुनाव हुए। कांग्रेस ने जम्मू कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस ‘जेकेएनसी’ के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा। फिर भी वह कुल छह सीट ही जीत पाई। जिसमें घाटी की पांच और जम्मू क्षेत्र की सिर्फ एक सीट है। कांग्रेस ने जम्मू—कश्मीर में 32 सीटों पर चुनाव लड़ा था वहीं जेकेएनसी ने 51 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। जेकेएनसी 42 सीटें जीतने में कामयाब रही। जम्मू क्षेत्र में कांग्रेस के 29 उम्मीदवारों में से एक को ही जीत हासिल हुई जो कांग्रेस का आज तक का सबसे खराब प्रदर्शन रहा। कांग्रेस के कई प्रमुख नेताओं को चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। जानकारों यह भी कहना है कि यदि जेकेएनसी से कांग्रेस का गठबंधन नहीं होता तो जम्मू—कश्मीर से कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो सकता था।
सहारे पर टिकी कांग्रेस, साथी ही दे रहे नसीहत
कांग्रेस की वर्तमान स्थिति क्या है यह किसी से छिपी नहीं है। हरियाणा में तमाम दावों के बाद भी कांग्रेस सरकार नहीं बना सकी तो जम्मू कश्मीर में ‘जम्मू कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस के साथ गठबंधन करके कांग्रेस ने चुनाव लड़ा। नतीजे आने के बाद जम्मू—कश्मीर के मुख्यमंत्री बनने जा रहे उमर अब्दुल्ला से स्पष्ट कहा कि यदि हम कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ते तो हमारी सीटें और ज्यादा होतीं। उन्होंने कांग्रेस को नसीहत तब दे डाली कि कांग्रेस बैठ कर इन नतीजों का हिसाब-किताब करें और महाराष्ट्र-झारखंड के चुनाव से पहले सुधार करे।
वहीं शिवसेना (यूबीटी) ने भी अपने मुखपत्र सामना में कांग्रेस पर तंज कसा है। इसमें कहा गया है, ”कांग्रेस को हरियाणा के नतीजों से सीख लेने की जरूरत है।” आम आदमी पार्टी भी आगामी विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने का फैसला किया है, पार्टी नेता मनीष सिसोदिया ने कहा है कि हरियाणा में भाजपा को हराया जा सकता था लेकिन लेकिन कांग्रेस की रणनीति और उसकी एकजुटता में कमी रही। कांग्रेस का उत्तर प्रदेश में सपा के साथ गठबंधन है, उत्तर प्रदेश 10 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव के लिए भी सपा ने बिना कांग्रेस से बात किए 7 उम्मीदवारों की लिस्ट जारी कर दी। यह भी देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के लिए बेइज्जती वाली बात है।
जनता ने कांग्रेस को नकारा
हाल ही में लोकसभा चुनावों में थोड़ी सी सीटें जीत लेने के बाद कांग्रेस नेताओं का अहंकार साफ दिखाई देने लगा था। नेता विपक्ष राहुल गांधी ने संसद में हिंदुओं को हिंसक तक बोल दिया था। राहुल गांधी ने यह तक कहा था कि इस बार गुजरात में भी भाजपा को हराएंगे। ये हाल तो तब है जबकि पिछले 24 सालों से कांग्रेस गुजरात में नहीं आ पाई है। हरियाणा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और वहां के मुख्यमंत्री रह चुके भूपेंद्र सिंह हुड्डा की महत्वाकांक्षा और मुख्यमंत्री पद के लिए पहले से ही हो रही खींचतान भी हरियाणा में कांग्रेस के हारने का एक बड़ा कारण रहा। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने हरियाणा में किसी भी अन्य कांग्रेसी नेता को पनपने नहीं दिया। जाट और दलित वोट के भरोसे बैठी कांग्रेस को किसी सूरत यह नहीं लग रहा था कि हरियाणा में कांग्रेस की हार होगी, लेकिन हरियाणा के गठन के बाद 57 सालों के इतिहास में तीसरी बार सरकार बनाकर भाजपा ने यहां इतिहास रच दिया है।
लगातार गिर रहा कांग्रेस का ग्राफ
केंद्र में जबसे भाजपा की सरकार बनी है तब से लगातार कांग्रेस का ग्राफ गिरता जा रहा है। पिछले 15 सालों में कांग्रेस किसी राज्य में भी दोबारा अपनी सरकार नहीं बना पाई है। वहीं तीसरी बार लोकसभा में भी कांग्रेस को विपक्ष में बैठना पड़ रहा है। यदि यही स्थिति रही तो देश की सबसे पुरानी पार्टी होने के बाद बावजूद कांग्रेस नेपथ्य में चली जाएगी। किसी समय सभी क्षेत्रीय दलों को अपने हिसाब से चलाने वाली कांग्रेस अब खुद इन्हीं के भरोसे चुनाव लड़ रही है। कांग्रेस को अपनी हार पर आत्ममंथन करने की जरूरत है।