नई दिल्ली। हनुमान जयंती (Hanuman Jayanti) के दिन हनुमान चालीसा, सुंदरकांड, बजरंग बाण के साथ ही रामायण और राम रक्षा स्त्रोत का पाठ करना चाहिए। ऐसा करने से घर में सुख शांति आती है और व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक शक्ति भी प्राप्त होती है। हनुमान जी (Lord Hanuman) को प्रसन्न करने और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए हनुमान जयंती का दिन सबसे खास माना जाता है।
सुंदरकांड पाठ
॥ श्लोक ॥
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं,ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं,वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्॥१॥
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये,सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे,कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥२॥
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं,दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं,रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥३॥
॥ चौपाई ॥
जामवंत के बचन सुहाए।सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई।सहि दुख कंद मूल फल खाई॥
जब लगि आवौं सीतहि देखी।होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा।चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर।कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर॥
बार-बार रघुबीर सँभारी।तरकेउ पवनतनय बल भारी॥
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।एही भाँति चलेउ हनुमाना॥
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥
श्री राम चरित मानस-सुन्दरकाण्ड (दोहा 1 – दोहा 6)
॥ दोहा 1 ॥
हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम,राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम।
॥ चौपाई ॥
जात पवनसुत देवन्ह देखा।जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता।पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।सुनत बचन कह पवनकुमारा॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं।सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥
तब तव बदन पैठिहउँ आई।सत्य कहउँ मोहि जान दे माई॥
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना।ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥
जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा।कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा॥
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ।तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा।तासु दून कपि रूप देखावा॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा।अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा।मागा बिदा ताहि सिरु नावा॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा।बुधि बल मरमु तोर मैं पावा॥
॥ दोहा 2 ॥
राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान,आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान।
॥ चौपाई ॥
निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई।करि माया नभु के खग गहई॥
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं।जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई।एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा।तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥
ताहि मारि मारुतसुत बीरा।बारिधि पार गयउ मतिधीरा॥
तहाँ जाइ देखी बन सोभा।गुंजत चंचरीक मधु लोभा॥
नाना तरु फल फूल सुहाए।खग मृग बृंद देखि मन भाए॥
सैल बिसाल देखि एक आगें।ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें॥
उमा न कछु कपि कै अधिकाई।प्रभु प्रताप जो कालहि खाई॥
गिरि पर चढ़ि लंका तेहिं देखी।कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी॥
अति उतंग जलनिधि चहु पासा।कनक कोट कर परम प्रकासा॥
॥ छन्द ॥
कनक कोटि बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना,चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना।
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै,बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै॥१॥
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं,नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं।
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं,नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥२॥
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं,कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं।
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही,रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही॥३॥
॥ दोहा 3 ॥
पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार,अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार।
॥ चौपाई ॥
मसक समान रूप कपि धरी।लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥
नाम लंकिनी एक निसिचरी।सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा।मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥
मुठिका एक महा कपि हनी।रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥
पुनि संभारि उठी सो लंका।जोरि पानि कर बिनय ससंका॥
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा।चलत बिरंच कहा मोहि चीन्हा॥
बिकल होसि तैं कपि कें मारे।तब जानेसु निसिचर संघारे॥
तात मोर अति पुन्य बहूता।देखेउँ नयन राम कर दूता॥
॥ दोहा 4 ॥
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग,तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।
॥ चौपाई ॥
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई।गोपद सिंधु अनल सितलाई॥
गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही।राम कृपा करि चितवा जाही॥
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना।पैठा नगर सुमिरि भगवाना॥
मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा।देखे जहँ तहँ अगनित जोधा॥
गयउ दसानन मंदिर माहीं।अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥
सयन किएँ देखा कपि तेही।मंदिर महुँ न दीखि बैदेही॥
भवन एक पुनि दीख सुहावा।हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा॥
॥ दोहा 5 ॥
रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ,नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराई।
॥ चौपाई ॥
लंका निसिचर निकर निवासा।इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥
मन महुँ तरक करैं कपि लागा।तेहीं समय बिभीषनु जागा॥
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा।हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥
एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी।साधु ते होइ न कारज हानी॥
बिप्र रूप धरि बचन सुनाए।सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई।बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई।मोरें हृदय प्रीति अति होई॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी।आयहु मोहि करन बड़भागी॥
॥ दोहा 6 ॥
तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम,सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम।
॥ चौपाई ॥
सुनहु पवनसुत रहनि हमारी।जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा।करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥
तामस तनु कछु साधन नाहीं।प्रीत न पद सरोज मन माहीं॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता।बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥
जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा।तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा॥
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती।करहिं सदा सेवक पर प्रीति॥
कहहु कवन मैं परम कुलीना।कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा।तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥
हनुमान चालिसा
॥ दोहा ॥
श्री गुरु चरन सरोज रज,निज मनु मुकुर सुधारि।
बरनउं रघुबर विमल जसु,जो दायकु फल चारि॥
बुद्धिहीन तनु जानिकै,सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं,हरहु कलेश विकार॥
॥ चौपाई ॥
जय हनुमान ज्ञान गुण सागर।जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥
राम दूत अतुलित बल धामा।अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा॥
महावीर विक्रम बजरंगी।कुमति निवार सुमति के संगी॥
कंचन बरन बिराज सुवेसा।कानन कुण्डल कुंचित केसा॥
हाथ वज्र औ ध्वजा बिराजै।काँधे मूँज जनेऊ साजै॥
शंकर सुवन केसरीनन्दन।तेज प्रताप महा जग वन्दन॥
विद्यावान गुणी अति चातुर।राम काज करिबे को आतुर॥
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।राम लखन सीता मन बसिया॥
सूक्ष्म रुप धरि सियहिं दिखावा।विकट रुप धरि लंक जरावा॥
भीम रुप धरि असुर संहारे।रामचन्द्र के काज संवारे॥
लाय सजीवन लखन जियाये।श्रीरघुवीर हरषि उर लाये॥
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥
सहस बदन तुम्हरो यश गावैं।अस कहि श्री पति कंठ लगावैं॥
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।नारद सारद सहित अहीसा॥
जम कुबेर दिकपाल जहां ते।कवि कोबिद कहि सके कहां ते॥
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।राम मिलाय राज पद दीन्हा॥
तुम्हरो मन्त्र विभीषन माना।लंकेश्वर भये सब जग जाना॥
जुग सहस्त्र योजन पर भानू ।लील्यो ताहि मधुर फ़ल जानू॥
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।जलधि लांघि गए अचरज नाहीं॥
दुर्गम काज जगत के जेते।सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥
राम दुआरे तुम रखवारे।होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥
सब सुख लहै तुम्हारी सरना।तुम रक्षक काहू को डरना॥
आपन तेज सम्हारो आपै।तीनों लोक हांक तें कांपै॥
भूत पिशाच निकट नहिं आवै।महावीर जब नाम सुनावै॥
नासै रोग हरै सब पीरा।जपत निरंतर हनुमत बीरा॥
संकट ते हनुमान छुड़ावै।मन क्रम वचन ध्यान जो लावै॥
सब पर राम तपस्वी राजा।तिन के काज सकल तुम साजा॥
और मनोरथ जो कोई लावै।सोइ अमित जीवन फ़ल पावै॥
चारों जुग परताप तुम्हारा।है परसिद्ध जगत उजियारा॥
साधु सन्त के तुम रखवारे।असुर निकन्दन राम दुलारे॥
अष्ट सिद्धि नवनिधि के दाता।अस बर दीन जानकी माता॥
राम रसायन तुम्हरे पासा।सदा रहो रघुपति के दासा॥
तुम्हरे भजन राम को पावै।जनम जनम के दुख बिसरावै॥
अन्तकाल रघुबर पुर जाई।जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई॥
और देवता चित्त न धरई।हनुमत सेई सर्व सुख करई॥
संकट कटै मिटै सब पीरा।जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥
जय जय जय हनुमान गोसाई।कृपा करहु गुरुदेव की नाई॥
जो शत बार पाठ कर सोई।छूटहिं बंदि महा सुख होई॥
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।होय सिद्धि साखी गौरीसा॥
तुलसीदास सदा हरि चेरा।कीजै नाथ ह्रदय महँ डेरा॥
॥ दोहा ॥
पवनतनय संकट हरन,मंगल मूरति रुप।
राम लखन सीता सहित,ह्रदय बसहु सुर भूप॥