देश में आजादी मिलने के बाद से जहां सत्ता पर कांग्रेस काबिज रही वहीं बीच-बीच में कांग्रेस के हाथों से सत्ता विपक्षियों के हाथ में कई बार गई लेकिन कांग्रेस पार्टी तब भी बेहद मजबूत रही थी। कांग्रेस का संगठन पूरे देश में बहुत मजबूत नजर आ रहा था। केंद्र ही नहीं राज्यों में भी कांग्रेस का दबदबा लगातार बरकरार रहा था। लेकिन 2014 में केंद्र की सत्ता पर नरेंद्र मोदी के काबिज होने के बाद से देश में कांग्रेस जितनी कमजोर नजर आ रही है इतनी कमजोर कभी नहीं दिखी थी। हालांकि कांग्रेस की तरफ से लगातार अपने प्रदर्शन को सुधारने की कोशिश हो रही है। कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय स्तर की पार्टी की हालत ये हो गई है कि वह राज्यों में क्षेत्रीय दलों के भरोसे सत्ता चलाने पर मजबूर है। राजस्थान, पंजाब और छत्तीसगढ़ को छोड़ दें तो कांग्रेस का जनाधार हर राज्य में खिसकता नजर आ रहा है। इसमें सबसे बड़ी कमी शीर्ष नेतृत्व का है। राहुल गांधी इस दौरान लगातार अपनी पार्टी को संभालने की कोशिश करते रहे लेकिन उन्हें अप्रत्याशित सफलता मिल ही नहीं पा रही है। कांग्रेस के अंदरखाने भी इस बात को लेकर चर्चा लगातार जारी है कि कांग्रेस राहुल गांधी के नेतृत्व में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर सकती है और उनके नेतृत्व में पार्टी के संगठन को मजबूती नहीं मिल सकती है। हालांकि पार्टी के अंदर से प्रियंका गांधी को कांग्रेस की कमान सौंपने की भी बात कही गई। प्रियंका को यूपी की कमान भी दी गई लेकिन उनको भी जनता ने नकार दिया। उत्तर प्रदेश की कमान प्रियंका को सौंपने के बाद पार्टी के नेताओं को लगा था कि वह यूपी में पार्टी को बेहतर स्थिति में पहुंचा पाएंगी लेकिन पार्टी की स्थिति यहां जस की तस बनी रही।
कल यूपी के 8 सीटों पर हुए उपचुनावों के नतीजों में भी यह साफ हो गया कि वहां की जनता ने प्रियंका के संगठन नेतृत्व को भी नकार दिया। 8 में से 7 सीटों पर भाजपा और एक सीट पर सपा ने जीत दर्ज की जबकि कांग्रेस का पंजा यहां भी खाली ही रहा। हालांकि छत्तीसगढ़ में एक सीट पर हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने जीत दर्ज की जबकि गुजरात के 8 सीटों पर हुए उपचुनाव में कांग्रेस खाता भी नहीं खोल सकी। हरियाणा की एक सीट पर हुए उपचुनाव में भले कांग्रेस ने जीत दर्ज की, झारखंड में भी एक सीट पर कांग्रेस को सफलता मिली लेकिन कर्नाटक की दो सीटों पर हुए उपचुनाव में कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा। मध्यप्रदेश में जहां कांग्रेस की सरकार अपना पांच साल पूरा नहीं कर पाई वहां हुए 28 सीटों के उपचुनाव में भी कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत निम्न स्तर का रहा यहां हुए 28 सीटों पर उपचुनाव में कांग्रेस को 9 सीटों से संतोष करना पड़ा। मणिपुर में कांग्रेस को बड़ा झटका लगा यहां पार्टी को एक भी सीट उपचुनाव में नहीं मिली। वहीं नागालैंड की 2 सीटों पर हुए उपचुनाव में कांग्रेस को खाली हाथ रहना पड़ा। तेलंगाना में हुए उपचुनाव में भाजपा ने अपना परचम लहराया जहां भाजपा का जनाधार नाममात्र ही था लेकिन कांग्रेस यहां भी फिसड्डी साबित हुई। उत्तर प्रदेश जहां प्रियंका की इज्जत दांव पर लगी थी वहां 7 में से 6 पर भाजपा और 1 पर सपा ने जीत दर्ज की ऐसे में यहां कांग्रेस को ज्यादा बड़ा दर्द जनता ने दिया। इसके साथ ही बिहार में 70 सीटों पर चुनाव लड़नेवाली कांग्रेस को पिछले 2015 के चुनाव में जितनी सीटें मिली थी उससे भी कम मतलब 19 सीटों पर ही जीत मिल सकी।
बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का यह फीका प्रदर्शन तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले महागठबंधन को महंगा पड़ा। इसकी वजह से आरजेडी बिहार में नंबर वन पार्टी बनने के बाद भी बहुमत के आंकड़े को नहीं छू सकी। कांग्रेस का राज्य विधानसभा चुनाव में निराशाजनक प्रदर्शन तजेस्वी यादव के मुख्यमंत्री बनने के अरमानों पर भी पानी फेर गया। कांग्रेस बिहार की 70 सीटों पर चुनाव लड़कर महज 19 सीटें ही जीत सकी, जो कि पिछले चुनाव से 8 सीटें कम है जबकि 2015 के चुनाव में कांग्रेस यहां महज 41 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। 2020 के चुनाव में बिहार में कांग्रेस का स्ट्राइक रेट महज 27 फीसदी ही रहा। कांग्रेस के बिहार में प्रदर्शन का नुकसान देश के दूसरे राज्य में भी पार्टी को उठाना पड़ सकता है। इस सब के बीच अगले साल जनवरी तक कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी की वापसी की तैयारी चल रही थी, जिसे बिहार चुनाव की हार से गहरा धक्का लग गया है। अब पार्टी के अंदर क्या हालत बनेंगे ये तो समय के साथ ही देखने को मिलेगा।
लेकिन ये सही है कि बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन में सबसे खराब परफॉर्मेंस कांग्रेस का रहा है जबकि वामपंथी दलों का स्ट्राइक रेट सबसे बेहतर रहा है। कांग्रेस ने साल 2015 का बिहार विधानसभा चुनाव आरजेडी और जेडीयू के गठबंधन में लड़ा था और 41 सीटों में से उसे 27 सीटों पर जीत मिली थी। कांग्रेस का 1995 के बाद यह सबसे बेहतर प्रदर्शन था, लेकिन इस बार के चुनाव में कांग्रेस अपने पुराने नतीजे को दोहराने में सफल नहीं रह सकी। बिहार चुनाव में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन का सीधा राजनीतिक असर केरल, पश्चिम बंगाल और असम विधानसभा चुनावों के पार्टी की तैयारियों पर पड़ सकता है। जहां पार्टी ने वापसी की उम्मीदें लगा रखी हैं। अगस्त में अपनी ही पार्टी के 23 नेताओं के निशाने पर आए राहुल गांधी के लिए बिहार चुनाव की हार ने उन्हें सवाल खड़े करने का मौका दे दिया है।
बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 70 सीटों पर चुनाव लड़कर महागठबंधन में दूसरी बड़ी साझेदार थी। काफी मशक्कत के बाद ही आरजेडी 2015 के चुनाव की तुलना में कांग्रेस को 30 सीट अधिक देने पर राजी हुई। लेकिन पार्टी सूत्रों का कहना है यही कांग्रेस की सबसे कमजोर कड़ी साबित हुई। कांग्रेस को मिली 70 सीटों में से 45 सीटें एनडीए के मजबूत गढ़ की सीटें थीं, जिन्हें कांग्रेस पिछले चार चुनावों में नहीं जीत सकी थी। इसके अलावा लोकसभा चुनाव में 70 में से 67 सीटों पर एनडीए को बढ़त मिली थी। यह वो सीटें थीं, जहां आरजेडी और कांग्रेस में रस्साकस्सी चल रही थी। वहीं, वाम दलों को मिली 29 सीटें ऐसी थीं, जिनमें से कई सीटें परंपरागत रूप से कांग्रेस की रही हैं। इस तरह से कांग्रेस की मजबूत माने जाने वाली सीटें लेफ्ट दलों को मिली हैं। बिहार विधानसभा चुनाव प्रचार अभियान को कांग्रेस धार नहीं दे सकी, कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने यहां कुल 8 रैलियां कीं, जो कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तुलना में 4 रैलियां कम थीं। बिहार के अंतिम चरण में कांग्रेस 25 सीटों पर चुनाव लड़ रही थी, जिनमें से 11 सीटें उसके पास थी। इसके बावजूद राहुल गांधी ने इस इलाके में केवल चार रैलियां कीं। इसके अलावा पार्टी के स्टार प्रचारकों में शामिल रहीं महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा कांग्रेस उम्मीदवारों की मांग के बावजूद बिहार अभियान पर नहीं गईं। कांग्रेस का प्रचार अभियान आक्रामक नहीं था और पार्टी के उम्मीदवार तेजस्वी यादव द्वारा रैलियों के लिए अनुरोध करते देखे गए। बिहार की सियासत में कांग्रेस पिछले तीन दशक से लालू यादव की पिछलग्गू बनकर है। कांग्रेस नेतृत्व द्वारा इन तीन दशकों में अपने कैडर बेस का समूह बनाने और एक मजबूत नेतृत्व का निर्माण करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया। इसी का नतीजा है कि बिहार में 1995 के विधानसभा चुनावों से कांग्रेस 30 से अधिक सीटें नहीं जीत पाई है। वह 2005 में केवल नौ सीटें और 2010 के विधानसभा चुनावों में सिर्फ चार सीटें जीतने में कामयाब रही थी। इतना ही नहीं कांग्रेस का वोट फीसदी भी दो अंक में नहीं पहुंच पा रहा है।
मतलब साफ है कि कांग्रेस के पास अपना जनाधार तैयार करने के लिए शीर्ष नेतृत्व के पास बेहतर विकल्प का अभाव है और कांग्रेस पार्टी अपने आंतकरिक कलह की वजह से भी देश के हर हिस्से में अपना संगठन मजबूत नहीं कर पा रही है। देश की एक समय की सबसे मजबूत पार्टी का जनाधार पिछले 10 सालों में जिस तरह से खिसका है और उनके कार्यकर्ता और कई शीर्ष नेता जिस तरह से पार्टी से छिटकते दिख रहे हैं शायद उसी का नतीजा है कि पार्टी अपने आप को सही तरीके से जनता के सामने पेश नहीं कर पा रही है। वहीं राहुल गांधी को राजनीतिक नेता के तौर पर भी देश की जनता ज्यादा सिरियसली नहीं ले रही है। वहीं कांग्रेस नेताओं के द्वारा बार-बार प्रियंका गांधी की इंदिरा गांधी से तुलना भी जनता को कांग्रेस की तरफ खींचने में कामयाब नहीं हो रही है। अब कांग्रेस को आत्ममंथन की जरूरत नहीं बल्कि नेतृत्व परिवर्तन की जरूरत है। क्योंकि आत्ममंथन का वक्त अब समाप्त हो चुका है। सत्ता तक पहुंचने के लिए पार्टी को अपना जनाधार मजबूत करना बहुत जरूरी है लेकिन वह इस तरह के नेतृत्व के साथ होता तो नहीं नजर आ रहा है।