समाज सृजनशील होते हैं समान मन वाले

प्रत्येक व्यक्ति का मन होता है। सामूहिक जीवन के प्रभाव में समान मन के कारण समाज का भी मन होता है। तब व्यक्तिगत मन सामूहिक मन का भाग हो जाता है।

प्रत्येक व्यक्ति का मन होता है। सामूहिक जीवन के प्रभाव में समान मन के कारण समाज का भी मन होता है। तब व्यक्तिगत मन सामूहिक मन का भाग हो जाता है। संस्कृति आधारित राष्ट्रभाव में राष्ट्र का भी मन होता है। इसी तरह संपूर्ण अस्तित्व का भी एक मन वाला होना संभव है। ऋग्वेद के पुरूष सूक्त का पुरूष संपूर्ण अस्तित्व का बोधक है।

ऋग्वेद (10.90.2) में कहते हैं “पुरूष एवेदं सर्व यद् भूतं यच्च भत्यं – जो अब तक हो चुका है और जो आगे होने वाला है, वह सब पुरूष है।” इसी सूक्त (मंत्र 13) में पुरूष के मन का उल्लेख है। बताते हैं, “पुरूष के मन से चन्द्रमा पैदा हुआ – चन्द्रमा मनसो जातः।” यही बात यजुर्वेद के (31.12) में भी कही गई है।भारतीय चिकित्सा विज्ञान में एक नाड़ी इड़ा है। यह सुषमना के बाई ओर प्रवाहित नाड़ी है। इड़ा में चन्द्रमा का निवास कहा गया है। इड़ा मनस् तत्व की प्रतिनिधि है। इड़ा में श्रद्धा है। श्रद्धा मन का ही एक आयाम है। विनम्रता भी मन द्वारा अस्तित्व को आदर देने का मनोभाव है।

वैदिक समाज में मनः संस्कार की महत्ता थी। संस्कारित मन दक्ष होता है। दक्ष मन कर्मकुशलता देता है। कर्मकुशलता को गीता में योग कहा गया है – योगः कर्मशु कौशलम्। योग मन को दक्ष बनाने और समत्व प्राप्त कराने का ही विज्ञान है। समान मन वाले समाज सृजनशील होते हैं। ऐसे समाजों में परस्पर विमर्श चलते हैं। कलाएं सुखकर होती है। सहमना समाज कलाएं गढ़ते है। समाज की अंतःशक्ति उपयोगी है लेकिन सुख स्वस्ति और आनंद के लिए सर्वांगीण उन्नति जरूरी है। अथर्ववेद (6.73.1) में कहते हैं, “हम समान वाले होकर उग्र चेतना संपन्नता को री संपन्न बनाएं।” वैदिक समाज में समान मन की प्यास गहरी है।

कवि ऋषि अथर्वा कहते है “हे मन की समानता के अभिलाषी लोग! आपके तन व मन स्नेहपूर्वक मिले रहें। आपके कर्म परस्पर मिलजुलकर श्रेयस्कर संपन्न हों।” (6.74.1) कुछ कर्म व्यक्तिगत होते हैं। अनेक कर्म सामूहिक होते हैं। लेकिन व्यक्तिगत व सामूहिक सभी कर्मो के परिणाम सामूहिक होते हैं। समान मन की तरह समान ज्ञान भी उपयोगी हैं। गतिशील समाज अपने सदस्यों को शिक्षा, ज्ञान आदि से संपन्न बनाने का प्रयास करते हैं। अथर्वा कहते है, “तप जैसे श्रेष्ठ कर्म द्वारा हम आपको समान ज्ञान वाला बनाते हैं। आपके मन व हृदय समान ज्ञान से संपन्न हों।” (वही 2) यहां मन को ज्ञान संपन्न बनाने की स्तुति है। सामाजिक समानता के इच्छुक लोग मन के प्रशिक्षण पर ध्यान देते हैं। भारत में इसे संस्कार कहते हैं लेकिन मन का प्रशिक्षण आसान नहीं है।

मन संस्कार में मन ही बाधक होता है। मन को बाधक से साधक बनाने का कार्य जटिल है। इसीलिए यहां स्तुति और प्रार्थना का आविष्कार हुआ। स्तुति मन का अंतः रसायन बदलती है। ज्ञान प्राप्ति की ग्राह्यता के लिए तैयार हो जाता है।

मन सर्जक भी है। यह अपने भीतर सुखद सृष्टि करता है और दुखमय सृष्टि भी। अथर्ववेद के कवि ऋषि इस मन प्रपंच से परिचित थे। कहते हैं “यह परम में विराजमान ज्ञान प्रकाशित मन इस सृष्टि का मूल कारण है। इसके द्वारा सृजित अशुभ का प्रभाव भी यही मन हमसे दूर करे। शान्ति प्रदान करें।” (वही 19.9.4) यहां ऋषिमन मन को सृष्टि का मूल कारण बताया है। यह ऋग्वेद की परंपरा है। मूल लक्ष्य मनोविश्लेषण है। मन की शक्ति् का आकलन है। इच्छा मन की पुत्री है। वैदिक साहित्य में इच्छाशक्ति के लिए प्रायः आकूति एक देवी हैं। वे सौभाग्य की देवी हैं। स्तुति है कि वे प्रबल इच्छाशक्ति के रूप में हमें प्राप्त हो। हमारे अनुकूल हों। इच्छापूर्ण हो। हमारे मन संकल्प पूर्ण हो।” (19.4.2-3) आधुनिक मनोविज्ञान में अथर्ववेद की की आकूर्ति – इच्छाशक्ति ही ‘विल पावर’ हैं।

अथर्ववेद में इच्छाशक्ति कमजोर करने वाले मनोभावों की सूची है, “दुर्भाव इच्छाशक्ति को तोड़ता है। भयग्रस्तता व कायरता ऐसा ही भाव है। हीनभाव भी इस सूची में है। स्वयं को ही दोषी ठहराने वाला आत्म उत्पीड़क मनोभाव भी इच्छा शक्ति में बाधक हैं।” (16.1.2-5) मनोवैज्ञानिक के लिए यह विश्लेषण ध्यान देने योग्य है। मनोबल या इच्छाशक्ति पर भी अथर्ववेद के समाज में गहन विमर्श था। ऐसी भावनाओं को देव मानना या किसी अन्य देव से भी स्तुति करना वैदिक समाज विशेष की अभिव्यक्ति शैली है। मनन मनुष्य व्यक्तित्व में परिवर्तन लाता है।

आधुनिक मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि मनुष्य अपने चिंतन मनन द्वारा व्यक्तित्व बदल सकता है। उपनिषद् दर्शन में भी प्रगाढ़ भाव से मनन चिंतन करने के सकारात्मक परिणाम बताए गए हैं। मनुष्य सोचता है। सोंचने से लक्ष्य बनता है। वह लक्ष्य का मनन करता है। चिंतन मनन उसे कर्म के लिए प्रेरित करते हैं। वह मन संकल्प लेता है। संकल्प मनः शक्ति को तीव्र करते हैं। मनुष्य जैसे कर्म करता है, वैसा ही होता जाता है। अथर्ववेद (3.8.5) में मन विचार व कर्म को एक ही धारा में सक्रिय करने पर जोर दिया गया है।

अथर्ववेद में अन्न उत्पादन पर बहुत जोर दिया गया है। कृषि का अनेकशः उल्लेख है। तैत्तिरीय उपनिषद (वल्ली 2) में मनुष्य शरीर की अन्तर्यात्रा है। पहला तल अन्न निर्मित है। यह अन्नमय कोष कहा गया है। अन्न सबमें वरिष्ठ है – अन्नंहि भूतानां ज्येष्ठ। इस अन्नमय शरीर के भीतर एक और शरीर ‘प्राणमय’ कोष है। प्राण महत्वपूर्ण है। प्राण से ही प्राणी है।

जीवन प्राणहीन नहीं होता। इसके बाद मनोमय कोष है। यह प्राणमय से भिन्न बताया गया है। मनोमय मन की सघन उपस्थिति से बना है। यही मनोबल का क्षेत्र भी है और इच्छाशक्ति का भी। मनोमय शरीर की तुलना एक काल्पनिक सुंदर पक्षी से की गई है। इस मनोमय पुरूष का सिर यजुर्वेद है। ऋग्वेद दांया पंख हैं। सामवेद बांया पंख है। ऋषि अथर्वा अंगिरा के अथर्ववेद के मंत्र गीत इस सुंदर पक्षी का शारीरिक आधार व पूंछ है।” (ईशादि नौ उपनिषद् पृष्ठ 353, गीता प्रेस) अथर्ववेद मनोमय संसार व विज्ञान का आधार है।

अंग्रेजी शब्द फैन्टेसी का अर्थ सुंदर कल्पना है। मन फैन्टेसी गढ़ता है। सिंगमण्ड फ्रायड ने फैन्टेसी को अतृप्त मन का सृजन बताया है। इस दृष्टिकोण में सभी सृजन फैन्टेसी हैं। फ्रायड अथर्ववेद से सुपरिचित नहीं थे। गीत संगीत के सभी सृजन अतृतप्त मन का ही परिणाम नहीं हैं। अतृप्त मन अराजक भी हो सकता है। वैदिक कविता अतृप्त मन वाले ऋषि-कवियों का सृजन नहीं हैं।

यह सौन्दर्यबोध तत्वबोध संपन्न कवियों की अभिव्यक्ति हैं। अनेक संगीत विधाओं, रागों आदि से बने सृजन को फैंटेशिया कहा जाता है। इसका पड़ोसी शब्द फैनेटिकसिज्म या फैनेटिक है। इसका अर्थ पंथिक दुराग्रह है। मन का स्वभाव ही कल्पना है। फैनेटेसी मन की प्रकृति है। मन आनंद का भी सर्जक है और दुख क्लेश का भी। इससे मित्रता साधना जरूरी है। लेकिन मित्रता के पहले ठीक परिचय और भी जरूरी है। अथर्ववेद के ऋषि इसके मित्र थे। उन्होंने मनोविश्लेषण की गहरी विधा विकसित की थी।

यजुर्वेद यज्ञ प्रधान है। लेकिन विचलित मन से यज्ञ नहीं होते। प्रकृति का संपूर्ण कार्य व्यापार भी यज्ञ हैं प्रकृति का मन एकाग्र है इसीलिए प्रकृति का कार्यव्यापार सुसंगत गतिशील है। मन पर ध्यान देना जरूरी है, ध्यान में मन की उपासना और भी जरूरी है। यजुर्वेद (36.1) में कहते है, “हम वाणी रूप ऋचा की शरण में जाते हैं और मन रूप यजुर्वेद की शरण में गति करते हैं।” ऋग्वेद के मंत्र ऋचा हैं और यजुर्वेद के यजुः। यजु मन रूप है। एक सुंदर मंत्र (6.21) में स्तुति है, “स्वाहा मनो में हार्दि यक्ष – हे देवों हमारा मन शुभ्र करो।” जल से प्रार्थना है, “मनो में तर्पयत् – हमारे मन को तृप्ति दो।” (वही 6.31)

अथर्ववेद का मनविश्लेषण केवल अध्ययन योग्य मनोविज्ञान ही नहीं है। इस विवेचन का सामाजिक उद्देश्य है। यहां समाज को मन चंचलता के विकार से बचाने वाली जानकारियां व स्तुतिया ं हैं।