देश के 21 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की 102 लोकसभा सीटों पर मतदान के साथ ही आम चुनाव 2024 का पहला चरण शुक्रवार को संपन्न हो गया। देश में सात चरणों में निर्धारित किए गए आम चुनाव में निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या के लिहाज से यह सबसे बड़ा चरण था। हालांकि मतदाताओं का उत्साह थोड़ा कम नजर आया और मतदान प्रतिशत करीब 64 फीसदी रहा। यह आंकड़ा 2019 में हुए पिछले लोकसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान प्रतिशत (69.43%) से करीब छह फीसदी कम है। पर यहां गौर करने लायक बात यह भी है कि जहां उस वक्त लोकसभा क्षेत्र इस बार से अलग थे वहीं, उनकी संख्या भी तब 91 थी। यानि इस बार से 11 कम।
पहले चरण के चुनाव पर नजर डाले तो इसके सकुशल निपटने के साथ ही देश के कई राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में मतदान पूरा हो गया है। इनमें तमिलनाडु (39 सीट), उत्तराखंड (05 सीट), अरुणाचल प्रदेश (02 सीट), मेघालय (02 सीट), अंडमान और निकोबार द्वीप समूह (01 सीट), मिजोरम (01 सीट), नागालैंड (01 सीट)पुडुचेरी (01 सीट), सिक्किम (01 सीट) और लक्षद्वीप (01 सीट) शामिल, मणिपुर (02 सीट) है। इसके अलावा राजस्थान में 12 सीट, उत्तर प्रदेश में 08 सीट, मध्य प्रदेश में 06 सीट, असम और महाराष्ट्र में 5-5 सीट, बिहार में 4 सीट, पश्चिम बंगाल में 3 सीट और त्रिपुरा, जम्मू-कश्मीर व छत्तीसगढ़ में एक-एक सीट पर मतदान हुआ है।
इस चरण में मतदान प्रतिशत की बात करें तो उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और बिहार में पिछले लोकसभा चुनाव के पहले चरण के मुकाबले मतदाता कम संख्या में बाहर निकले। इससे मतदान भी प्रतिशत गिरा। इस बार उत्तर प्रदेश में 60.02 फीसदी, उत्तराखंड में 55.8 फीसदी और बिहार में 48.8 फीसदी मतदान हुआ। जबकि पिछली बार यह आंकड़ा क्रमशः 66.6%, 61.6%, 53.6% था। चुनावी हिंसा के लिए जाने जाने वाले पश्चिम बंगाल में भी पिछली बार के 84.8 फीसदी के मुकाबले इस बार मतदान प्रतिशत 79.4 दर्ज किया गया।
हालांकि इस चरण के चुनाव की सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि सिर्फ त्रिपुरा (81.5 फीसदी) और सिक्किम (80 फीसदी) को छोड़कर किसी भी जगह मतदान ने 80 फीसदी के आंकड़े को नहीं छुआ जबकि वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के शुरुआती चरण में अरुणाचल प्रदेश, लक्षद्वीप, मणिपुर, नागालैंड, पुडुचेरी,पश्चिम बंगाल में मतदान प्रतिशत का आंकड़ा 80 फीसदी से ज्यादा दर्ज किया गया था।
लोकसभा चुनाव के इस चरण में मतदान में कमी के खूब सियासी निहितार्थ निकाले जा रहे हैं। विपक्षी दल इसे केंद्र सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) के खिलाफ करार देते हुए हल्ला मचा रहे हैं, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? गौर से देखें तो कतई नहीं।
पहले बात करते हैं चुनावी आंकड़ों की जो मतदान प्रतिशत की हकीकत बयान करते हैं। देश की स्वतंत्रता के बाद हुए आम चुनाव में कमोबेश मतदान प्रतिशत में उतार-चढ़ाव जारी रहा है और इसके बावजूद बार-बार कांग्रेस ही सत्ता में आती रही। ऐसे में मतदान प्रतिशत का घटना या बढ़ना सत्ता में आने या जाने का एक तय कारक नहीं रहा है। पिछले तीन लोकसभा चुनाव की बात करें तो वर्ष 2009 में 58.21 प्रतिशत मतदान हुआ था और इसके बाद अगले आम चुनाव(2014) में इसमें करीब आठ फीसदी की वृद्धि के साथ 66.44 प्रतिशत वोट पड़े। कांग्रेस को हटाकर भाजपा सत्ता में आई और मतदान प्रतिशत में इजाफे को बदलाव की लहर करार दिया गया था। लेकिन मतदान में बढ़ोतरी का क्रम तो वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भी जारी रहा था। लगभग तीन प्रतिशत मतदान बढ़ने के साथ 2019 में 67.40 प्रतिशत वोट पड़े थे, लेकिन कोई सत्ता परिवर्तन नहीं हुआ और भाजपा सरकार में बनी रही। इसके विपरीत वर्ष 1999 की तुलना में 2004 के लोकसभा चुनाव में करीब दो प्रतिशत कम मतदान हुआ था, फिर भी केंद्र में सरकार बदल गई थी।
लोकसभा ही नहीं विधानसभा चुनाव में भी मतदान के आंकड़े चौंका चुके हैं। पिछले साल कर्नाटक में हुए विधानसभा चुनाव का उदाहरण लेते हैं। वर्ष 2023 में यहां 72.81 फीसदी मतदान हुआ जबकि 2018 में यह आंकड़ा (72.13) लगभग इतना ही था। मतदान में खास अंतर नहीं होने के बावजूद सरकार बदल गई। साफ है कि मतदान प्रतिशत के घटने या बढ़ने का कोई एक निष्कर्ष नहीं निकल पाया है।
सियासी जानकार और चुनाव विश्लेषक मतदान प्रतिशत में गिरावट को लेकर अपने जो नजरिया पेश करते हैं वह भी बताता है इससे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सत्ता बरकरार रखने की संभावनाओं पर मामूली असर नहीं दिखता। चुनावी विश्लेषकों का कहना है कि मतदान में गिरावट की असली वजह हताश और निराश विपक्ष है। कई दशकों से चुनाव पर नजर रख रहे चुनावी रणनीतिकारों का कहना है कि वर्ष 1977 के बाद यह पहला ऐसा आम चुनाव है जिसमें विपक्ष पहले से ही अपनी हार को तय मानकर बैठा नजर आ रहा है। विपक्षी दलों के गठबंधन ‘इंडिया’ में बिखराव बिल्कुल स्पष्ट है तभी तो वह लोकसभा सीटों के लिहाज से महत्वपूर्ण पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में भी साथ नहीं है। विपक्ष दलों के इसी रुख ने उसके समर्थकों को निराश किया और उन्हें लगता है कि उनके वोट देने या न देने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। इससे मत प्रतिशत गिरा।
चुनाव विश्लेषक विपक्षी दलों विशेषकर कांग्रेस में भगदड़ जैसी स्थिति और उसके बड़े नेताओं का चुनाव लड़ने से इनकार को भी मतदान में गिरावट की वजह मान रहे हैं। उत्तर प्रदेश में पिछले चुनाव में अमेठी सीट पर राहुल गांधी की हार के बाद इसे गंवाने वाली कांग्रेस इस बार अपने गढ़ रायबरेली पर भी पशोपेश में नजर आ रही है। इस बार सोनिया गांधी इस सीट पर चुनाव नहीं लड़ेंगी, क्योंकि वह राज्यसभा के लिए निर्वाचित हो चुकी हैं। ऐसे में उस उत्तर प्रदेश में जिसके बारे में कहा जाता है कि केंद्र की सरकार की राह उससे होकर गुजरती है, वहां कांग्रेस की ऐसी हालत समर्थकों को मतदान के लिए उत्साह जगाती तो नहीं दिखती।
चुनाव विश्लेषक मतदान में कमी का एक बड़ा कारण ‘मोदी फैक्टर’ को भी मान रहे हैं। उनका कहना है कि इस चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विराट व्यक्तित्व के सामने विपक्ष का कोई भी चेहरा चुनौती पेश करता नजर नहीं आता और इसने भाजपा के समर्थकों में एक निश्चिंतता का भाव जगाया है। भाजपा समर्थक पार्टी की जीत को लेकर सौ फीसदी आश्वस्त हैं और उन्हें भी ऐसा लगता है कि संभवतः उनके एक वोट के नहीं डालने से मोदी की ‘हैट्रिक’ पर कोई असर नहीं पड़ने वाला।
लोकसभा चुनाव के पहले चरण में जिन 102 सीटों के लिए मतदान हुआ है उनमें से 45 सीट पर पिछले चुनाव में भाजपा ने जीत दर्ज की थी। इस बार भी सियासी समर में भाजपा की आक्रामक चुनाव रणनीति, नेताओं,कार्यकर्ताओं, समर्थकों की विशाल फौज के सामने बिखरा हुआ विपक्ष यही अहसास कराता है कि इस चरण में मतदान भले ही पिछले बार से कम रहा हो, लेकिन सीटों की संख्या में इजाफा होना तय है। पिछली बार पहले चरण में मिली 45 सीटों के मुकाबले भाजपा इस बार 55 से 60 सीट जीतती नजर आ रही है।
डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।