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Uniform Civil Code: महिलाओं और बच्चों के सशक्तिकरण की पहल

Uniform Civil Code: हिंदू, बौद्ध, सिख, और जैन समुदाय हिंदू कोड बिल के तहत आते हैं, जिसमें हिंदू विवाह अधिनियम और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम जैसे महत्वपूर्ण कानून शामिल हैं। दूसरी ओर, मुसलमानों पर शरीयत आधारित पांथिक कानून लागू होते हैं, जिसमें मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) आवेदन अधिनियम प्रमुख है। इन कानूनों के भीतर पितृसत्तात्मक संरचनाएं प्रभावी हैं, जो अक्सर पुरुषों को वरीयता देती हैं। यह प्रवृत्ति महिलाओं के लिए समानता की संभावनाओं को सीमित करती है और विवाह, तलाक, और उत्तराधिकार संबंधी मामलों में लिंग आधारित भेदभाव को बढ़ावा देती है। इस्लामी न्यायशास्त्र की आड़ में बहुविवाह को भी वैधता प्रदान की जाती है।

नई दिल्ली। उत्तराखंड, स्वतंत्रता के बाद समान नागरिक संहिता को अंगीकार करने वाला भारत का प्रथम राज्य बन गया है, यद्यपि गोवा में पुर्तगाली शासन के समय से ही इसीप्रकार का एक कानून प्रचलित है। उत्तराखंड द्वारा समान नागरिक संहिता को स्वीकृति प्रदान किए जाने के बाद देशभर में इसकी आवश्यकता महसूस की जा रही है। उल्लेखनीय है कि 21वीं सदी के नये बनते भारत में समान नागरिक संहिता (UCC) की मांग क्रमशः  मुखर हुई है।

भारत की विधायी व्यवस्था में एक ऐसे सार्वभौम और सर्वप्रभावी सामाजिक विधान का अभाव है, जो सभी सामाजिक-धार्मिक समुदायों पर समान रूप से लागू हो। इस रिक्त को भरने के लिए समान नागरिक संहिता (CCC) की प्रस्तावना की जा रही है, जोकि एक समग्र सामाजिक कानूनी ढांचे के निर्माण  का मार्ग प्रशस्त करेगी। इस ढांचे में, विविध पारिवारिक कानूनों को एक समान, सुसंगत और समग्र बनाया जाएगा। इस संहिताबद्ध कानूनी ढाँचे से भारतीय समाज के सभी वर्गों, विशेषकर महिलाओं और बच्चों के हितों की सुरक्षा, विवाह, उत्तराधिकार और संरक्षकता/अभिभावकत्व आदि का एकसमान नियमन हो सकेगा। यह प्रयास कानूनी समानता को बढ़ावा देने, भारतीय राजनीतिक ढांचे को मजबूती प्रदान करने, लैंगिक समानता, महिला सशक्तिकरण, बाल सुरक्षा तथा सामाजिक समानता के मूल्यों को आगे बढ़ाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगा। इससे एक अधिक समरस और समावेशी समाज का निर्माण होगा।

उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता (CCC) की मंजूरी सामाजिक कानूनों के सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण और प्रगतिशील कदम है। यह विधेयक, बहुविवाह और बाल विवाह जैसी प्रथाओं के उन्मूलन के साथ विवाह की आयु को समानीकृत करता है। इससे लड़कियों का भी आवश्यक शारीरिक-मानसिक विकास हो सकेगा और उनको अपनी शिक्षा पूरी करने और अपने भविष्य को स्वयं निर्धारित करने का समुचित अवसर मिल सकेगा। इसके अलावा, विधेयक समान उत्तराधिकार की वकालत करता है, जिससे बेटों और बेटियों को बराबरी का दर्जा प्राप्त होगा। यह कानून तलाक की प्रक्रिया को भी समान बनाने की बात करता है। विधेयक विवाह और तलाक पंजीकरण को अनिवार्य बनाकर, राजकीय सेवाओं,योजनाओं और सुविधाओं की समान पहुंच और प्राप्ति सुनिश्चित करता है। यह प्रशासनिक सुगमता और पारदर्शिता के लिए आवश्यक है। यह नवीन पहल सभी समुदायों में, विशेषकर मुस्लिम महिलाओं में, गोद लेने के अधिकारों को विस्तारित करती है और हलाला तथा इद्दत जैसी विवादास्पद प्रथाओं को समाप्त करती है। इससे सामाजिक न्याय और लैंगिक समानता को बढ़ावा मिलेगा। इसके अतिरिक्त, विधेयक में सह-जीवन संबंधों को कानूनी मान्यता प्रदान करने के प्रावधान भी शामिल हैं, जो जीवनसाथी के चयन की स्वतंत्रता को स्वीकृति/वैधता प्रदान करते हैं। इस विधेयक न केवल उत्तराखंड की महिलाओं और बच्चों को सशक्त बनाता है, बल्कि यह पूरे देश के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करता है। इससे भारतीय समाज में समानता, सुरक्षा और समावेशिता के नए युग का सूत्रपात होगा।

वैवाहिक अलगाव में सुलह की संभावना तलाशने हेतु एक ‘कूलिंग-ऑफ’ अवधि का प्रस्ताव करता है। माता-पिता के बीच विवाद के संदर्भ में, यह बच्चों की कस्टडी के लिए क्रांतिकारी समाधान प्रस्तुत करते हुए दादा-दादी को भी संभावित देखभालकर्ता के रूप में मान्यता देता है। इसमें अनाथ बच्चों को गोद लेने की प्रक्रिया को सरलीकृत किया गया है। साथ ही, दिवंगत जीवनसाथी के माता-पिता की भलाई के लिए भी व्यापक प्रावधान किए गए हैं। ये सुधारात्मक प्रस्ताव कानूनी समरूपता और सांस्कृतिक परम्पराओं के बीच सुचिंतित समन्वयकारी संतुलन की देन हैं। इनका उद्देश्य एक ऐसे समाज की रचना करना है जो न केवल सामाजिक न्याय और समता के मूल्यों को प्रोत्साहित करता है, बल्कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता, मानव अधिकार और सांस्कृतिक बहुलता को भी स्वीकारता है। इसप्रकार यह एक समावेशी, सशक्त और न्यायपूर्ण समाज के निर्माण की आधारभूमि तैयार करता है।

विधेयक, उत्तराखंड की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और विविधता को सम्मानित करते हुए जनजातीय समुदायों की संस्कृति और रीति-रिवाजों की रक्षा का विशेष प्रावधान करता है। इसमें अनुसूचित जनजातियों के लिए विशिष्ट छूट का प्रावधान है, जो उनकी विशिष्ट पहचान और सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण सुनिश्चित करता है।

प्रधानमंत्री मोदी ने बार-बार जोर दिया है कि  विविधतापूर्ण सामाजिक कानूनी प्रणाली के साथ देश का संचालन कठिन है। साथ ही, यह भी कहा है कि समान नागरिक संहिता भारतीय संविधान के मूलभूत सिद्धांतों के अनुरूप है। उपरोक्त पृष्ठभूमि में भारत सरकार से यह आशा की जा रही है कि वह उत्तराखंड के इस विधेयक को राष्ट्रीय स्तर पर एक मॉडल के रूप में अपनायेगी। हालांकि, मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले कांग्रेस, सीपीआई, और तृणमूल कांग्रेस जैसे दल इसके विरोध में हैं।

अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो नीति’ के तहत ही 1859 में महारानी विक्टोरिया की घोषणा द्वारा पांथिक प्रथाओं में हस्तक्षेप न करने पर बल दिया गया था। भारतीय समाज में विभाजन और वैमनस्य को बढ़ावा देने के लिए पारंपरिक पांथिक कानूनों की सुरक्षा सुनिश्चित की गयी। स्वातंत्र्योत्तर भारत में ख़ासकर संविधान सभा में इसकी आवश्यकता को लगातार रेखांकित किया गया। इसकी संकल्पना संविधान के अनुच्छेद 44 में व्यक्त की गई है। यह अनुच्छेद संविधान निर्माताओं की सार्वभौमिक कानूनी समानता की गहन आकांक्षा को दर्शाता है। हालांकि, इस आदर्श की प्राप्ति आज तक भी एक चुनौती बनी हुई है।

इसका लक्ष्य सभी नागरिकों के लिए सभी सामाजिक मामलों में समानता और न्याय सुनिश्चित करने का लक्ष्य था।

डॉ. भीमराव अंबेडकर, सरदार पटेल, हंसा मेहता, मीनू मसानी,श्यामाप्रसाद मुखर्जी और राम मनोहर लोहिया जैसे विख्यात नेताओं ने लैंगिक समानता और व्यक्तिगत अधिकारों को संरक्षित करते हुए, राष्ट्रीय एकता और पंथनिरपेक्षता को बढ़ावा देने वाली आधुनिक कानूनी प्रणाली का लगातार समर्थन किया। इन नेताओं की सार्थक चर्चाओं के फलस्वरूप ही इसे संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों में स्थान मिला।

संविधान के लागू  होने के पश्चात, भारत सरकार ने हिंदू पर्सनल लॉ में कई महत्वपूर्ण सुधार किए। 1950 के दशक में, हिंदू कोड बिल नाम से प्रसिद्ध कई श्रृंखलाबद्ध कानून पारित किए गए, जिन्होंने हिंदू कानूनों में गहन सुधार किया और इन्हें और अधिक प्रगतिशील बनाया, विशेषकर महिलाओं के अधिकारों के संदर्भ में। इन सुधारों में हिंदू विवाह अधिनियम, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम, और हिंदू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम प्रमुख थे। साम्प्रदायिक संवेदनशीलता और विभिन्न पांथिक समूहों के प्रतिरोध के चलते, मुस्लिम समुदाय समेत अन्य समुदायों के लिए इसी प्रकार के सुधार लागू नहीं किए जा सके।

समान नागरिक संहिता की प्रासंगिकता और आवश्यकता को भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के विविध ऐतिहासिक निर्णयों ने बारंबार मुखरित किया गया है। इनमें एक सुसंगत कानूनी ढांचे के निर्माण की वकालत की गई है। इनमें शाह बानो मामला (1985), सरला मुद्गल मामला (1995), जॉन वल्लमट्टम मामला (2003), डेनियल लतीफी मामला (2001) और जोसेफ शाइन मामला (2018) आदि सर्वप्रमुख हैं।

हिंदू, बौद्ध, सिख, और जैन समुदाय हिंदू कोड बिल के तहत आते हैं, जिसमें हिंदू विवाह अधिनियम और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम जैसे महत्वपूर्ण कानून शामिल हैं। दूसरी ओर, मुसलमानों पर शरीयत आधारित पांथिक कानून लागू होते हैं, जिसमें मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) आवेदन अधिनियम प्रमुख है। इन कानूनों के भीतर पितृसत्तात्मक संरचनाएं प्रभावी हैं, जो अक्सर पुरुषों को वरीयता देती हैं। यह प्रवृत्ति महिलाओं के लिए समानता की संभावनाओं को सीमित करती है और विवाह, तलाक, और उत्तराधिकार संबंधी मामलों में लिंग आधारित भेदभाव को बढ़ावा देती है। इस्लामी न्यायशास्त्र की आड़ में बहुविवाह को भी वैधता प्रदान की जाती है।

तुर्की और ट्यूनीशिया जैसे देशों ने बहुविवाह को क्रमशः निषिद्ध किया है। इसीप्रकार अल्जीरिया मोरक्को और सऊदी अरब जैसे देश भी लैंगिक समानता और सामाजिक कल्याण में सुधार के लिए अपने कानूनी ढांचे में परिवर्तन कर रहे हैं। इनके अलावा, रूस, अमेरिका, स्विट्जरलैंड, ब्राजील, और जर्मनी जैसे देशों में अपने-अपने सर्वव्यापी सिविल कोड्स हैं। ये उदाहरण लैंगिक समानता और सामाजिक न्याय के प्रति बढ़ती जागरूकता और उन्हें  एकीकृत कानूनी ढांचे में समाहित करने की दिशा में वैश्विक सक्रियता को दर्शाते हैं।

देशव्यापी समान नागरिक संहिता लागू होने से भारतीय समाज में ऐतिहासिक परिवर्तन आएगा। इससे पंथ या लिंग के आधार पर होने वाले भेदभाव की समाप्ति करते हुए सभी महिलाओं और बच्चों को समान और न्यायसंगत अधिकार मिल सकेंगे। यह एकीकृत कानूनी ढांचा न केवल विविध क्षेत्रों में कानूनी असंगतियों को दूर करेगा, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया को भी अधिक सरल और सुगम बनाएगा, जिससे नागरिकों को अपनी पसंद के अनुसार जीवनयापन करने की अधिक स्वतंत्रता मिलेगी। समान नागरिक संहिता का लागू होना न केवल भारतीय समाज को अधिक समावेशी बनाएगा, बल्कि यह भारतीय संविधान के मूल्यों और आदर्शों को भी मजबूती प्रदान करेगा, जिससे एक अधिक एकीकृत और समरस भारतीय समाज का निर्माण होगा।

इस प्रकार, समान नागरिक संहिता व्यक्तिगत और सामुदायिक पहचानों का सम्मान करते हुए, समानता और न्याय के सिद्धांतों को आगे बढ़ाने का एक  विश्वसनीय और अपरिहार्य माध्यम है।

यह पहल अप्रचलित और अल्पप्रचलित मध्ययुगीन विचारों को पीछे छोड़ने का आह्वान करती है क्योंकि ये प्रथाएं और विचार समकालीन समाज के अनुरूप नहीं हैं।

 

(लेखक प्रो.रसाल सिंह किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं।)