
नई दिल्ली। राजस्थान और मध्य प्रदेश में आगामी चुनावों के पहले, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और कमलनाथ ने मुफ्त स्मार्टफोन, तीन साल के लिए मुफ्त इंटरनेट और 100 यूनिट तक मुफ्त बिजली की घोषणा की है। शिवराज सिंह चौहान ने ‘लाडली बहना योजना’ की घोषणा की है, जिसमें 70 मिलियन गरीब महिलाओं के खाते में 1,000 रुपये जमा किए जाएंगे। इसके बाद कमलनाथ ने कहा कि अगर उनकी सरकार आती है तो हजार की जगह 1500 रुपए दिए जाएंगे। हालांकि इसके विपक्षी इसे ‘फ्रीबीज’ कहते हैं, जबकि समर्थक इसे ‘कल्याणकारी योजनाएं’ कहते हैं। विदेश मंत्री जयशंकर ने श्रीलंका का उदाहरण देते हुए इससे बचने की चेतावनी दी थी। इसके आलावा प्रधानमंत्री मोदी ने भी ‘रेवड़ी कल्चर’ पर कटाक्ष किया और सुप्रीम कोर्ट ने इसे ‘गंभीर मुद्दा’ बताया था, जहां सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अर्थव्यवस्था और कल्याणकारी योजनाओं के संतुलन की जरूरत है।
राजनीतिक पार्टियां विभिन्न योजनाओं के माध्यम से वोटरों को आकर्षित करने की कोशिश करती हैं। इसे फ्रीबीज कहा जाता है। तमिलनाडु में 2006 में तथा भारत में अन्य राज्यों में भी ऐसे वादे किए गए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इसे चुनाव की जड़ को हिलाने वाला माना है। चुनाव आयोग को भी अपनी आचार संहिता बनाने का आदेश दिया गया है, लेकिन फिर भी फ्रीबीज के ऐलान होते रहते हैं। फ्रीबीज और कल्याणकारी योजनाएं अलग-अलग होती हैं। फ्रीबीज चुनाव से पहले घोषित की जाती हैं, जबकि कल्याणकारी योजनाएं किसी भी समय लागू की जाती हैं।
सुप्रीम कोर्ट के द्वारा बताया गया था कि आजीविका चलाने और आजीविका मिशन के तहत ट्रेनिंग देने के लिए लागू की गई योजनाएं ‘फ्रीबीज’ कहीं नहीं जा सकतीं। कुछ कल्याणकारी योजनाएं जनता के भलाई से जुड़ी होती हैं, जो उनके जीवन को सुधारती हैं और उनके जीने का स्तर बेहतर बनाती हैं। इससे रोजगार, शिक्षा, और स्वास्थ्य सुविधाएं सुधारी जा सकती हैं। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि सभी वादों को फ्रीबीज से तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि कुछ योजनाएं सरकार द्वारा लोगों के भलाई के साथ जुड़ी होती हैं। फ्रीबीज का असर यह होता है कि राजनीतिक पार्टियां वादों की बौछार करती हैं, लेकिन इसका खर्च सरकारी खजाने पर पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि फ्रीबीज के कारण सरकार ‘दिवालियेपन’ की ओर धकेली जा सकती हैं, जिससे सरकार की आर्थिक स्थिति प्रभावित होती है।