नई दिल्ली। आपत्काल का प्रभाव दोधारी तलवार जैसा होता है। आपदाएं असहाय होने का भाव जगाती हैं। निराश करती हैं। निराशा मन की विशेष चित्तदशा है। निराश मन का प्रभाव स्वस्थ तन पर भी पड़ता है। निराश मन से शरीर की रोग निरोधक शक्ति कम होती है। स्वयं और संपूर्ण अस्तित्व पर विश्वास करने वाले लोग विपरीत परिस्थिति में भी निराश नहीं होते। वे निर्धारित कर्म करते हैं। कर्तव्य पालन करते हैं। अस्तित्व की नियति व पुरूषार्थ पर विश्वास रखते हैं। सोचने देखने की दो दृष्टियां संभव हैं। पहली है अपने कर्म व पुरूषार्थ पर विश्वास। यह अच्छी जीवनदृष्टि है लेकिन अस्तित्व के करोड़ों प्रपंचों का प्रभाव ब्रह्माण्डव्यापी है। पुरूषार्थ और अस्तित्व का साझा परिणाम ही यह विश्व है। प्रार्थना और आस्तिकता अज्ञात संभावना के प्रति विश्वास हैं। ब्रह्म वैयक्तिक सत्ता नहीं है। भारतीय चिंतन में संपूर्ण अस्तित्व का नाम ब्रह्म है। इसके निर्वचन का ग्रंथ ब्रह्मसूत्र है। ब्रह्मज्ञान आपदाओं के समय भी आत्मविश्वास बढ़ाता है। कोरोना ऐसी ही आपदा है।
ब्रह्म सूत्र अथर्ववेद व उपनिषद् दर्शन का सार है। यह असाधारण दार्शनिक रचना है। इसमें वेदो से लेकर उपनिषद् काल तक विकसित सभी विचारों पर एकात्मवादी टिप्पणियां हैं। ब्रह्मसूत्र के रचनाकार ने संक्षिप्त सूत्रों में बड़ी-बड़ी बातें की हैं। ब्रह्मसूत्र में बड़ी बात के लिए भी अतिअल्प शब्द विन्यास हुआ है। पहला सूत्र ध्यान देने योग्य है – अथातो ब्रह्म जिज्ञासा। अब ब्रह्म की जिज्ञासा है। दूसरे सूत्र में दो शब्द ही हैं, “जन्माद्यस्य यतः। अनुवाद है – यहां जिससे जन्म आदि होते हैं।” अनुवाद से अर्थ पूरा नहीं निकलता इसलिए अनुभूति की सहायता से कहते हैं – वही ब्रह्म है। अब अर्थ पूरा हुआ “जिससे जन्म आदि होते है वह ब्रह्म है। ‘जन्म आदि’ का अर्थ भी बड़ा है – जन्म, युवा, बुढ़ापा, मृत्यु, सृष्टि, स्थिति, विकास और प्रलय। तीसरा सूत्र मात्र एक शब्द का ही है, “शास्त्रयोनित्वात्-शास्त्र में वही कारण है। पूरा अर्थ है वह ब्रह्म ही वेदों शास्त्रों में जगत् का कारण कहा गया है। ब्रह्मसूत्रों में सृष्टि जगत के रहस्य हैं, उपनिषदों में वर्णित दार्शनिक सूत्रों की व्याख्या है। गीता सभी दर्शनों का अभूतपूर्व मिलन दर्शन है। इसीलिए उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और गीता को ‘प्रस्थानत्रयी’ की संज्ञा मिली। प्रस्थानत्रयी के बीज विचार अथर्ववेद में हैं।
ब्रह्मसूत्र चार अध्यायों व 16 छोटे-छोटे खण्डों में विभाजित है। सूत्रों में वेद उपनिषद् में आए तमाम शब्दों, प्रत्ययों, विचारों का विवेचन है। अथर्ववेद व उपनिषदों में प्राण शब्द आया है। यहां प्राण को ब्रह्म कहा गया है। (1.1.28-31) छान्दोग्य उपनिषद् में सम्पूर्णता के लिए ‘भूमा’ शब्द आया है। यहां भूमा को ब्रह्म बताया गया है। (1.3.8-9) सत्य तत्व इन्द्रियों की क्षमता से परे है। उसे प्रत्यक्ष नहीं देख सकते। अनुमान भी कठिन है। सत्य तत्व की व्याख्या वैसे भी कठिन है। श्वेताश्वतर (3.20), कठोपनिषद (2.20) और तैत्तिरीय आरण्यक में एक साथ एक प्यारा सा मंत्र/श्लोक आया है “अणोरणीयान महतो महीयान – अणु से लघुतम अणु और महान से महत्तर (वह है)”। श्वेताश्वतर (6.19) में इसी बात को और विस्तार देते है “वह निरवयव है, निश्चल है, शांत, निर्दोष और निर्लिप्त है।” यह ब्रह्मा है। ब्रह्मसूत्र अति संक्षिप्त संरचना है।
ब्रह्मसूत्र में ब्रह्म का निर्वचन है। यहां सांख्य दर्शन के कारणवाद का खण्डन है। (अध्याय 2.2.1-10) इसी तरह कणाद के परमाणुवाद से उठे भौतिकवादी प्रश्नों का भी परम ब्रह्म में निरूपण है। (वही: 11-17) संपूर्ण प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष ब्रह्म में है। (ब्रह्मसूत्र: गीता प्रेस पृष्ठ 148-177) मधु विद्या अमूल्य है। अथर्ववेद में मधुविद्या की प्रतिष्ठा है। लेकिन जैमिनि ने पूर्व मीमांसा में इसे देवताओं के योग्य नहीं बताया क्योंकि देवताओं को यह विद्या सहज प्राप्य है। वे ज्योतिर्मय लोकों में रहते हैं। (पृष्ठ 77 श्लोक 1.3.31-32) इसके बाद के सूत्र में लिखा है कि ‘वादरायण को यह मतमान्य नहीं है।
विद्या प्राप्ति मानव जीवन की श्रेष्ठ उपलब्धि है। ब्रह्मसूत्र में विद्या का प्रकरण सबसे दिलचस्प है। तीसरे अध्याय के चैथे पाद के प्रथम सूत्र में विद्या के सम्बंध में कहते हैं, “पुरूषार्थ की सिद्धि इसी से (ज्ञान) होती है। शब्द (वेद) यही बताते हैं।” अगले सूत्र में कहते हैं कि पूर्व मीमांसा के द्रष्टा आचार्य जैमिनि यह बात नहीं मानते। उनका मत है कि “ज्ञान को पुरूषार्थ बताना अर्थवाद है। पुरुषार्थ प्राप्त किए जाने योग्य है। इसका साधन कर्म हैं। श्रेष्ठजनों के आचरण से यही सिद्ध होता है। छान्दोग्य उपनिषद् में भी कर्म को ही पुरूषार्थ का साधन कहा गया है। कर्म कत्र्तव्य है।” (वही 2-7) 6 सूत्रों में जैमिनी के तर्क बताकर फिर वादरायण का मत है “श्रुति में कर्म की अपेक्षा विद्या की महत्ता है।” यहां बड़ी मजेदार लेकिन उचित धारणा है कि विद्या कर्म का भाग नहीं है। अध्ययन कर्म भाग है – अध्ययन मात्रवतः।” (वही 3.4.12) बताते हैं कि “विद्या से कर्मो का (कर्मफल) पूरा नाश हो जाता है।” (3.4.16) अथर्ववेद में भी विद्या की महत्ता है। विद्या प्राप्ति के लिए आचार्य का मार्गदर्शन व अध्ययन जरूरी है। विद्या मुक्त करती है।
वैदिक दर्शन में ‘अक्षर’ शब्द बहुत आया है। अक्षर अ-क्षर अर्थात अनाशवान है। यह शब्द का भी मूल घटक है। वृहदारण्यक उपनिषद् (3.8.7) में ‘अक्षर’ की विवेचना है। गार्गी ने याज्ञवल्क्य से पूछा “जो द्युलोक से ऊपर है, पृथ्वी से भी नीचे है। इन दोनो के बीच में भी है। जिसे भूत भविष्य और वर्तमान कहते हैं वह काल किसमे ओत प्रोत है?” याज्ञवल्क्य ने कहा – आकाश में। गार्गी ने पूछा, “वह आकाश किसमें ओतप्रोत है? याज्ञवल्क्य ने कहा “उसे ब्रह्मवेत्ता ‘अक्षर’ कहते हैं, यह न सूक्ष्म है, न लघु, न बड़ा, न लाल, न पीला।” अक्षर समूची सृष्टि में विद्यमान है। दर्शन में रहस्यपूर्ण है। उसे ब्रह्मज्ञानी ही जानते हैं। ब्रह्मसूत्र (1.3.100) में अक्षर भी ब्रह्म है। सूत्र है “अक्षरम्बरान्त धृते – अक्षर आकाश पर्यन्त सबको धारण करता है।” छान्दोग्य उपनिषद् में आकाश के बारे में कहा गया “निश्चय ही सभी प्राणी आकाश से ही उत्पन्न होते हैं।”
ब्रह्मसूत्र में आकाश भी ब्रह्म है। अथर्ववेद में भी आकाश की विस्तीर्णता ब्रह्म है। सृष्टि सृजन के सम्बन्ध में उपनिषदों में अनेक विचार हैं। उपनिषद् काल में पूर्ण विचार स्वातंन्न्य था। छान्दोग्य उपनिषद् में तेज, जल और अन्न का क्रमिक विकास है। माना गया कि आकाश सदा से है। तैत्तिरीय उपनिषद् में ब्रह्म से आकाश की उत्पत्ति है। फिर आकाश से वायु और वायु से तेज। लेकिन वृहदारण्यक उपनिषद् में आकाश अमृत है। अमृत का जन्म नहीं होता, मरण भी नहीं होता। अथर्ववेद का ज्येष्ठ ब्रह्म यही है। वादरायण ने ब्रह्मसूत्रों की अनुभूति व रचना में ऋग्वेद व उपनिषदों के मंत्रों शब्दों के साथ अथर्ववेद से भी प्रेरक सामग्री ली हो तो आश्चर्य क्या है? ब्रह्म सूत्र में सारी शंकाओं, मतों का विवेचन है। फिर ब्रह्म को ही जगत् का कारण बताया गया है।