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Swang Review: ज्ञान चतुर्वेदी के उपन्यास ‘स्वांग’ की समीक्षा

Swang Review: भारत अनेकता में एकता के साथ ही विभिन्न कलाओं का भी देश है। हर गली-कूचे में एक से बढ़कर एक कलाकार यहां मिल ही जाते हैं। कोस-कोस पर बोली-बानी के बदलने के साथ ही हर जगह की अपनी कलाएं भी हैं, जो उन जगहों की पहचान कराती हैं। चूंकि इनमें स्थानीयता विद्यमान रहती है इसलिए इन्हें लोककलाएं कहते हैं।

नई दिल्ली। भारत अनेकता में एकता के साथ ही विभिन्न कलाओं का भी देश है। हर गली-कूचे में एक से बढ़कर एक कलाकार यहां मिल ही जाते हैं। कोस-कोस पर बोली-बानी के बदलने के साथ ही हर जगह की अपनी कलाएं भी हैं, जो उन जगहों की पहचान कराती हैं। चूंकि इनमें स्थानीयता विद्यमान रहती है इसलिए इन्हें लोककलाएं कहते हैं।

लोककलाएं हमारे समाज की एक खास पहचान हुआ करती हैं। एक दौर में भारतीय उपमहाद्वीप में पारंपरिक नौटंकी अपने चरम पर थी। तब नौटंकी एक बेहतरीन लोककला हुआ करती थी, जो समाज-परिवार के बीच चल रही घटनाओं और किस्से-कहानियों को एक मंच दिया करती थी। ऐसा माना जाता है कि आजादी की लड़ाई के दौरान अंग्रेजों के अत्याचारों को दिखाने में नौटंकी का बहुत बड़ा योगदान था। इसके लिए मंच या फिर वेशभूषा की खास आवश्यकता पड़ती है। लेकिन ठीक इसके इतर स्वांग उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में खेली जाने वाली लोकनाट्य विधा है, जो है तो नौटंकी करने जैसी ही, लेकिन कई मायनों में यह उससे बहुत अलग है। स्वांग कला में सबसे ज्यादा महत्व स्वांग खेल रहे कलाकारों की अदाकारी का होता है, क्योंकि इसमें न तो किसी परदे की जरूरत पड़ती और न ही किसी साउंड इफेक्ट या किसी खास पहनावे की जरूरत पड़ती है। स्वांग करने वाले कलाकार की अदाकारी की सारी भाव-भंगिमाएं नकली होते हुए भी इतनी जीवंत लगती हैं जैसे कि सचमुच सब कुछ असली हों। कथाओं से लेकर नायक-खलनायक तक, राजा-सिपाही से लेकर दुश्मन और लड़ाइयां तक सब असली की तरह जान पड़ते हैं। तभी तो इसको लेकर समाज में एक व्यंग्य-बाण भी चलता है कि तुम जरा स्वांग मत रचो, जो है सो कहो।

स्वांग को लेकर कभी-कभार लेख लेख लिखे जाते रहे हैं या डॉक्युमेंट्री भी बनती रही हैं, लेकिन औपन्यासिक रूप में इसका चित्रण शायद कम ही हुआ है। राजकमल प्रकाशन से आई प्रख्यात व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी की नई किताब ‘स्वांग’ इस कमी को पूरी करती है और समाज में फैली तमाम तरह की विडंबनाओं की बात करती है। वैसे तो ज्ञान चतुर्वेदी ने कई उपन्यास लिखे हैं, लेकिन उनके दो उपन्यास ‘बारामासी’ और ‘हम न मरब’ के बाद एक ही पृष्ठभूमि पर उनके तीसरे उपन्यास के रूप में ‘स्वांग’ को बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर उनकी उपन्यास-त्रयी की अंतिम कड़ी के रूप में देखा जा रहा है।

Swang by Gyan Chaturvedi

इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में भले ही बुंदेलखंड का एक गांव है, लेकिन सच तो यह है कि ‘स्वांग’ पूरे हिंदुस्तान के एक विराट स्वांग में बदल जाने की कहानी कहता है। बकौल ज्ञान चतुर्वेदी, एक गांव के बहाने समूचे भारतीय समाज के विडंबनापूर्ण बदलाव की कहानी को ही यह उपन्यास सुनाता है। उनके व्यंग्य की तीक्ष्णता का अंदाजा इस संवाद से लगाया जा सकता है, जब उनका एक किरदार दूसरे से कहता है- “जमाना हरामी हो चुका है और इनको इस बात की खबर ही नहीं। श्रीमान जमाने के हरामीपने का जवाब कानून से देना चाहते हैं, बताइए!” जाहिर है, जमाने के हरामीपने को चित्रित करता यह उपन्यास समाज के वैचारिक पतन की ओर इंगित करता है।

डॉक्टर ज्ञान चतुर्वेदी एक पहचान का नाम है जो अरसे से व्यंग्य की धार को अपने लेखन के जरिए बरकरार रखे हुए हैं। साल 2015 में भारत सरकार द्वारा ‘पद्मश्री’ से सम्मानित ज्ञान चतुर्वेदी पेशे से हृदय रोगों के डॉक्टर हैं। एक डॉक्टर के रूप में ज्ञान जी जिस सूक्ष्मता से हृदय रोगियों को समझते हैं, उसी सूक्ष्मता से वह अपने किरदारों के मनोभावों को भी समझते हैं। यही वजह है कि समाज को लेकर उनका तीखा व्यंग्य बहुत महीन अंतर्दृष्टि लिए हुए होता है।

बुंदेली समाज में अपराध की लगभग स्वीकार्यता ही है इसलिए अपराधियों का महिमामंडन भी होता है। रिश्वत और भ्रष्‍टाचार को जीने का हिस्सा मानने वाला समाज अपनी झूठी शान, जातिवादी राजनीति और इस राजनीति का अपराध से गठजोड़ करके जीता है। लेकिन क्या यह केवल किसी एक गांव ‘कटोरा’ (जिला कालपी) विशेष के समाज की बात है? यह तो पूरे भारतीय समाज का ही सच लगता है। इस उपन्यास के सारे पात्र कहीं से भी नकली या काल्पनिक नहीं लगते, बल्कि ये सब हमारे आस-पास ही मौजूद हैं और अपने-अपने किरदार में रहकर स्वांग रच रहे हैं। यानी यह उस ‘कटोरा’ की भी कहानी है, जिसे लोग ‘हिंदुस्तान’ कहते हैं। महज मनोरंजन के लिए खेला जाने वाला स्वांग जब समाज के जन-जन में दिखने लगे तो फिर किसी लोकनाट्य विधा की जरूरत ही कहां रह जाती है।

रोचकता के मामले में भी यह उपन्यास अपने जैसी विधा में बाकियों दो कदम आगे है। शिल्प, कथ्य, गँवई किरदारों की बुनावट और उनकी बोली-भाषा पर ज्ञान जी की अपनी विशिष्ट छाप है। जो लोग ज्ञान चतुर्वेदी के पहले छपे व्यंग्य उपन्यासों को पढ़ चुके हैं वो जानते हैं कि उनकी व्यंग्य शैली कितनी अनूठी है, जो किरदारों को अपनी जमीन भी नहीं छोड़ देती और न ही उन्हें वहां की रहने ही देती है, बल्कि समूचे भारतीय किरदारों का प्रतिबिंब खींच देती है। भारतीय सामाजिक परिवेश का तटस्थता के सुंदर अवलोकन के साथ ही जहां मूल्यहीन सामाजिकता का सूक्ष्म विश्लेषण ज्ञान जी की लेखनी का विशेष गुण है, वहीं करुणा से भरे हुए शब्दों के जरिए निर्मम व्यंग्य कसना एक प्रतिनिधि व्यंग्यकार होने का सबूत भी है। व्यंग्यों की तीक्ष्णता में कहीं-कहीं हास्य का पुट भी है, जो पठनीयता को एक नया आयाम देता है।

हम एक आधुनिक समय में रह रहे हैं। बीते कुछ सालों में बहुत सी चीजों का लोप हुआ है। गुजरते वक्त में सिनेमा और मनोरंजन के टेलीविजनी विस्तार ने नौटंकी और स्वांग जैसी लोकनाट्य विधाओं को लील लिया। और अब तो इनका अस्त‍ित्व भी संकट में दिख रहा है। मगर हां, यह कहना अनुचित नहीं ही होगा कि अब तो पूरा समाज ही स्वांग रचने में लगा हुआ है। जाहिर है, जहां स्वांग का मजा असल जैसा लगने में ही है, वहां जब पूरा समाज, राजनीतिक व्यवस्था, कानून और न्यायतंत्र, प्रशासन और पारस्परिक मानवीय संबंध आदि सब के सब स्वांग रचने लगे हों, वहां किसी लोकनाट्य विधा की जरूरत ही कहां रह जाती है! स्वांग के बहाने भारतीय समाज की एक विद्रूप विडंबना को समझने के लिए इस उपन्यास को पढ़ा जाना चाहिए। न सिर्फ पढ़ा जाना चाहिए, बल्कि चिंतन भी करना चाहिए कि हमारा समाज आखिर इन विडंबनाओं से होकर क्यों गुजर रहा है!

उपन्यास – स्वांग

लेखक – ज्ञान चतुर्वेदी

प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन

मूल्य – 399 (पेपरबैक)

समीक्षक – वसीम अकरम