
नई दिल्ली। आज हम एक आजाद देश में हैं जो सुविधाओं से लैश और सम्पन्न देश है। लेकिन इस देश ने आजाद होने, और सुख सुविधा को इकट्ठा करने में कितनी समस्याओं और पीड़ाओं का सामना किया है, इसका एहसास शायद हम में से कुछ एक को ही हो। अगर सच कहें तो रोज की भाग दौड़ और चिंताओं से भरी दुनिया में, व्यक्तिगत तौर पर मुझे भी इन पीड़ाओं का एहसास नहीं रह पाता है कि आखिर इस देश ने आजादी के पहले, आजादी मिलने के दौरान और आजादी के बाद कई वर्षों तक ऐसी यातनाएं और दर्द सहे हैं जिनके कुछ चित्र और प्रसंग सुनने मात्र से ही, आपकी रूह की जड़ें हिल जाती हैं। आपके शरीर में कंपकंपाने वाली ठंडक दौड़ जाती है। रक्त प्रवाह निर्बाध हो जाता है और मस्तिष्क पर चिंता की रेखाएं उभरने लगती हैं। यूट्यूब पर आपको ऐसे कई वृत्तचित्र (Documntary) और वीडियो देखने को मिल जाएंगे जो आपको उस त्रासदी का छोटा सा अनुमान लगाने का मौका देते हैं। लेकिन यहां हम 45 मिनट की एक ऐसी फिल्म की बात करने वाले हैं जो इसी साल 2022 में आई है और मात्र 45 मिनट की यह फिल्म आपको अंदर से हिलाकर रख देती है। फिल्म को अशोक त्यागी ने बनाया है और अमोल रामसिंग कोल्हे ने मुख्य भूमिका निभाई है।
मुझे नही पता आप में से कितने इस फिल्म से वाकिफ हैं और कितनों ने इसे देखा है पर यहां पर मैंने इसकी बात इसलिए करना उचित समझा क्योंकि इसके कोर्टरूम ड्रामा और कलात्मक फ़िल्मी स्टाइल (Artistic Film Style) ने एक अलग ही छाप छोड़ी है। आप जब इस फिल्म के दृश्यों मुख्यतः कोर्टरूम ड्रामा (Courtroom Drama) के दृश्य (Scene) को देखेंगे तब आप अपनी नज़र को घुमा नहीं पाएंगे। क्योंकि जहां उस दृश्य में भारत के इतिहास (Indian History) से परिचित कराया जाता है वहीं एक व्यक्ति का राष्ट्र के प्रति निर्बाध प्रेम भी देखने को मिलता है। यहां मैं नाथूराम गोड़से (Nathuram Godse) के द्वारा किए गये कृत्य (जिसमें उन्होंने गांधी को मारा) का समर्थन बिल्कुल भी नही कर रहा हूं, बल्कि यह बताने का प्रयास कर रहा हूं कि कैसे एक फ़िल्मी कलात्मक स्टाइल के द्वारा फिल्म को बेहतरीन ढंग से प्रदर्शित किया गया है।
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ज्यादा समय न लेते हुए मैं सीधे आपको वो बताता हूं जो मैं इस फिल्म के विषय में कहना चाहता हूं। शुरुआत से ही फिल्म आपको आजादी के उस दर्दनाक इतिहास की याद दिलाता है जो भारत की प्रत्येक मानव-जाति के लिए नासूर है जिसे जितना खुरेदेंगे उतना बढ़ेगा लेकिन इससे यह सिद्ध नही होता कि हम उस इतिहास की याद ही न रखें और उसे भुला दें। फिल्म में संवाद और चित्रों (Dialogues and Scnes) के माध्यम से तोड़े जा रहे हिन्दुओं के घर, मकान, गाड़ियां और सामान, शुरुआत में ही आपको एक ऐसा निर्जीव शरीर बना देते हैं जिसके पास आज सबकुछ है लेकिन वो इतिहास को सुधार नहीं सकता। शायद इसीलिए बड़े बुजर्गों की बाते सत्य साबित होती हैं कि न तो इतिहास सुधारा जा सकता है और न पुनर्जीवित – इतिहास को बस कोसा जा सकता है जिसमें अच्छाई पर ताली बजाई जा सकती है और गलतियों से सबक सीखे जा सकते और आंशू बहाए जा सकते हैं।
फिल्म के शुरुआत में जहां रेलवे स्टेशन और रेलगाड़ी में जानवरों के समान, ठूसे हुए इंसान दिखते हैं वहीं सड़कों पर कूड़े के समान फेंके गए, उजड़े हुए, लोगों के शरीर दिखते हैं जिनका हाथ कहीं और पड़ा है तो धड़ कहीं और। इन मृत शरीरों में सिर्फ बुजर्ग और युवा नही होते हैं बल्कि स्त्री और पुरुष दोनों लिंग के छोटे-छोटे शिशु भी देखने को मिलते हैं। सब सड़क पर पड़े हैं जिनका ख्याल करने वाला कोई नही है, और ऐसी नृशंश परिस्थति का कारण था – पाकिस्तान (Pakistan) और उसके क़ायदे-आजम जिन्ना (जिन्ना को क़ायदे – आजम गांधी जी बुलाते थे )
फिल्म में साफ़ बताया गया है कि कैसे आजादी के बाद, जब देश का बंटवारा हुआ और पाकिस्तान से हिन्दुओं को भगाने का प्रयास होने लगा उस वक़्त पाकिस्तानी वहशी (सभी नही पर अधिक मात्रा में भीड़) यह चाहते थे – कि हिन्दुओं को सिर्फ यहां से भगाया न जाए बल्कि इन बदनसीबों को जाते-जाते, भंयकर रक्तताप, क्रूरता, पशुता, अमानुषता और अवहेलना के भावों की गहराई से अनुभूति भी कराई जाए। फिल्म में दिखाया है कि कैसे नादान बच्चे जो शिशु की श्रेणी में आते हैं वो सिर्फ इसलिए मर गए थे क्योंकि वो जिस नल से पीने का पानी पीना चाहते थे उसे धार्मिक घृणा के कारण तोड़ दिया गया था। इस फिल्म को देखते हुए 1946 में हिंदी भाषा में बनी फिल्म धरती के लाल (Dharti ke Lal) की याद आ जाती है कि कैसे 1943 में पड़े अकाल (Femine) ने भी भारतीयों को बिना पानी और अन्न के मरने पर मजबूर कर दिया था और इंसान को वहशी भेड़िया बना दिया था।
खैर फिल्म पर लौटते हैं और बात तब खटकती है जब इन विस्थापितों और मजलूमों को भारत देश का भी सहारा नही मिला और उनसे दोबारा उसी देश (Pakistan) में जाने को कहा गया, जहां हिन्दुओं (Hindus) की लाशों को कुत्ते नोच रहे थे और गिद्ध उनके मांस को लेकर आसमान में उड़ रहे थे। लेकिन आपको बता दें उस दौर में भी, भारत में रह रहे मुसलमानों से कहा जा रहा था की वो भारत को छोड़ कर न जाएं और जो चले गए वो भी वापस लौटकर आ जाएं। इन सबके बीच फिल्म का मुख्य केंद्र उस विषय को दिखाना था जब नाथूराम गोडसे नाम के एक व्यक्ति ने महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) पर तीन गोलियां चलाकर उनकी हत्या कर दी। इस कृत्य को भारत के अब तक के सबसे दुर्दांत कृत्यों में गिना जाता है। फिल्म में उस कृत्य के लिए नाथूराम गोड़से पर आदलत में चल रही बहस और दलीलों के बाद उस दृश्य को प्रमुखता से दिखाया है – जब नाथूराम ने बिना कोई वकील किये, खुद ही अपने अंदर चल रही ज्वलित उत्तेजना को जज के सामने रखना उचित समझा।
अगर मैं इतिहास को छोड़ फिल्म की कलात्मक शैली का उल्लेख करूं तो पूरी फिल्म मानवीय भाव के करुणा (Emotional Side) को कुरेदती है। जिस तरह की भाषा का प्रयोग और उच्चारण हुआ है वो आपको फिल्म से जोड़ने के साथ आपके दिल में भी टीस पैदा करने की क्षमता रखता है। जिस तरह का प्रदर्शन अमोल कोल्हे द्वारा किया गया वह जीवंत लगता है और कोर्टरूम में मौजूद सारे ही कलाकार उस दौर की छवि को साफ़-साफ़ सामने रखते हैं। इस फिल्म को चलाने वाले अमोल कोल्हे ही हैं जिन्होंने अभिनय और संवादों के उच्चारण से शरीर में ऐसी बिजली पैदा की है जो आपको कई दिनों तक याद रह जाती है। पटकथा (Screenplay) को लिखते वक़्त यह ध्यान रखा गया है कि वह कहीं से भी गांधी जी और उनका देश के प्रति किए गए योगदानों को न भूल जाए। पटकथा में स्वयं गोड़से द्वारा, गांधी के सम्मान में एक प्रसंग भी कहा गया है जहां वो बताते हैं –
“यदि मैंने गांधी जी का वध किया तो मैं जड़-मूल से नष्ट कर दिया जाऊंगा, लोग मुझसे घृणा करने लगेंगे, जो सम्मान मुझे प्राणों से भी प्रिय है वो नष्ट हो जाएगा। मैं भी मर जाऊंगा पर देश अमर होगा, मुझे गलियां मिलेंगी परन्तु विश्व में भारत का नाम होगा यही सोचकर मैंने गांधी जी का वध करने का निर्णय लिया, मेरे जीवन का अंत तभी हो गया था जब मैंने गांधी जी पर गोली चलाई, मैं तब से एक अनासक्त जीवन व्यतीत कर रहा हूं। गांधी जी ने जो देश को योगदान दिया है उसके लिए मैं उनका आदर करता हूं और इसीलिए उनपर गोली चलाने से पहले, मैं उनके सामने नतमस्तक हुआ था।”
जिस तरीके से संवादों को दिखाया गया है उस भाषा और शब्दों का चयन कर पाना आज किसी भी लेखक के लिए सम्भव ही नही है। इसके अलावा चरित्र का ऐसा निर्माण कर पाना और उसे गहराई में जाकर प्रदर्शित कर पाना यह भी शायद पटकथा और पूरी टीम के सहयोग से सम्भव हुआ होगा। हां यहां पर अमोल कोल्हे जी की जितनी प्रसंशा की जाए कम है। अगर निर्देशन (Direction) की बात की जाए तो वह भी इस तरीके से दृश्यों को दिखाता है कि मॉडर्न छायांकन (Cinematography) के साथ आपको 40 -60 के दशक में बनी कुछ महान फिल्म जैसे – धरती के लाल (Dharti Ke Lal), घर घर की कहानी (Ghar Ghar Ki Kahani),पहला आदमी(Pehla Admi) और समाज को बदल डालो (Samaj Ko Badal Daalo) जैसी अन्य फिल्मों की झलक मिलती है। फिल्म में प्रयोग ब्लैक और वाइट सिनेमाटोग्राफी के द्वारा मुख्यतः लोगों के दिल में संवेदनाएं की भावना पैदा करने की कोशिश करी गई है। फिल्म में आप कोर्टरूम में बैठे हर व्यक्ति से परिचित होते हो और उनकी संवेदनाओं से जुड़ते भी हो। फिल्म को पूर्ण शिद्द्त से बनाया गया है जिसका प्रमाण फिल्म खुद देती है। फिल्म अखंड भारत अमर रहे की कल्पना के साथ खत्म होती है और आपके भीतर इतिहास को टटोलने और उस पर विचार- विमर्श करने की जिज्ञासा (Curiosity) पैदा कर जाती है।