न्यूयॉर्क। अफगानिस्तान में तालिबान का शासन भारत के लिए किस तरह खतरे की घंटी है, इसका अंदाजा सोमवार को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद UNSC में उस वक्त लगा, जब अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के तालिबान पर प्रस्ताव पर चीन और रूस ने कन्नी काट ली। इस प्रस्ताव को हालांकि पास कर दिया गया। जिसमें मांग की गई है कि अफगानिस्तान किसी देश को डराने, हमला करने या आतंकवादियों को पनाह देने का काम न करे। सुरक्षा परिषद के 13 सदस्यों ने इस प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया। रूस और चीन के गैरहाजिर रहने से साफ है कि आने वाले वक्त में भारत के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं। रूस हालांकि हमारे देश का पुराना दोस्त है, लेकिन पिछले कुछ समय से वह चीन से करीबी बढ़ा रहा है। चीन भले ही तालिबान को आगे बढ़कर समर्थन दे रहा है, लेकिन यही उसके लिए मुसीबत का सबब भी बन सकता है। अफगानिस्तान में आईएसआईएस का खोरासान गुट सक्रिय है। यह खूंखार आतंकी संगठन तालिबान के खिलाफ है। इसके अलावा चीन के शिनच्यांग प्रांत में एक्टिव ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट के लड़ाके भी तालिबान से मिल सकते हैं। ये लड़ाके लंबे समय से शिनच्यांग के उइगुर मुस्लिमों को आजाद कराने के लिए लड़ते रहे हैं।
फिलहाल तो अफगानिस्तान में बड़ी ताकतों का खेल जारी है। रूस जब कम्युनिस्ट था, तो अफगानिस्तान से उसकी फजीहत वाली वापसी हुई थी। अब अमेरिका का हाल भी वैसा ही हुआ है। रूस के लिए अच्छी खबर यह है कि अमेरिका उसके पड़ोस से निकल गया। तालिबान के खिलाफ जंग छेड़े हुए नॉर्दर्न अलायंस को रूस ने हमेशा समर्थन दिया था। अब भी अहमद मसूद तालिबान से जंग लड़ रहे हैं।
उधर, चीन का अपना अलग ही फलसफा है। चीन अब पाकिस्तान के जरिए अफगानिस्तान में पैठ बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। चीन वहां से खनिज पदार्थ निकालकर बेचने की फिराक में है। ताकि वह खूब पैसा कमा सके। इसके लिए चीन की ओर से तालिबान के साथ दोस्ती की बातें की जा रही हैं।