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डर और खौफ की राजनीति तो कांग्रेस की नीति रही है, राहुल गांधी का ताजा बयान उसी की याद दिला रहा

कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने पीएम मोदी पर टिप्पणी करते हुए कहा कि अब उनसे देश में कोई नहीं डरता, भला देश के प्रधानमंत्री से किसी को डरने की जरूरत भी क्यों है? राहुल गांधी बताएं, प्रधानमंत्री डराने के लिए होते हैं या देश को दिशा देने और विकास की तरफ ले जाने के लिए।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के काफिले पर किसी ने चप्पल फेंकी। इस घटना की भर्त्सना की जानी चाहिए थी, लेकिन भर्त्सना करने की बजाए राहुल गांधी ने इसको डर से जोड़ा और कहा की अब उनसे कोई नहीं डरता। कहीं ऐसा तो नहीं यह साजिशन करवाया गया हो? यदि राहुल गांधी के काफिले या अन्य कांग्रेस के नेताओं के कार्यक्रम के दौरान कोई ऐसा करे तो उनको कैसा लगेगा। जब उनके पिता राजीव गांधी श्रीलंका के दौरे पर थे तो उन पर गार्ड ऑफ ऑनर दे रहे श्रीलंका के एक सिपाही ने हमला करने की कोशिश की थी, पूरे देश ने सारे विपक्ष ने इस घटना की कड़े शब्दों में भर्त्सना की थी।

जब दक्षिण भारत में एक रैली के दौरान इंदिरा जी को भीड़ में से किसी ने पत्थर मारा था तो विपक्ष के सारे नेताओं ने इसको गलत बताते हुए कड़ी से कड़ी कार्रवाई करने की मांग की थी। ऐसे में राहुल गांधी एक परिपक्व नेता की तरह, विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता की तरह व्यवहार नहीं किया। इस तरह के बयान उनको शोभा नहीं देते। मोदी पूरे देश के पीएम हैं न की किसी पार्टी के। उनके सम्मान के साथ देश का सम्मान जुड़ा है। राहुल गांधी जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल करते हैं वह भी राजनीतिक जीवन जीने वाले एक व्यक्ति के अनुसार नहीं हैं। एक घटना पर सवाल उठाने की बजाए उन्होंने घटना को दूसरी तरफ मोड़ दिया। ऐसा पहली बार नहीं है। चुनावों से पहले जब विपक्ष ने वॉकआउट कर संसद में धरना दिया था तो जब एक सांसद देश के उपराष्ट्रपति की नकल करते हुए उनका मजाक बना रहे थे राहुल गांधी उन्हें रोकने की बजाय मोबाइल से उनका वीडियो बना रहे थे।

दूसरों का अपमान करना, उनके लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करना तो स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी नहीं है। दरअसल ये राहुल गांधी की गलती नहीं है ये कांग्रेस की विचारधारा में हैं वहां तो उनकी खुद की पार्टी में ही लोकतंत्र नहीं है, यही कारण है की कांग्रेस के पुराने नेता एक एक कर कांग्रेस से दूर होते गए। राहुल सिर्फ कांग्रेस के सांसद ही नहीं बल्कि कांग्रेस की विचारधारा के सबसे बड़े पोषक हैं। कुछ बोलने से पहले उन्हें सोच लेना चाहिए, इसके बाद उन्हें बोलना चाहिए। रही बात डर और दबाव की राजनीति की तो यह तो कांग्रेस और गांधी परिवार हमेशा से करते आया है।

इंदिरा गांधी जब प्रधानमंत्री थीं तो उनके चाटुकार उनके बारे में कहते थे,’इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा’, यह नारा दिया था 1975 में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने, यह डर नहीं था तो और क्या था? चुनाव में हारने का डर था, तभी तो इंदिरा गांधी ने 1971 में रायबरेली सीट से चुनाव जीतने के लिए सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया था। चुनाव में उनसे हारने वाले राजनारायण इस मामले को लेकर न्यायालय में पहुंचे। इलाहाबाद हाईकोर्ट में इस बाबत लंबी बहस चली, इंदिरा गांधी को डर था कि फैसला उनके खिलाफ आएगा, इसलिए उन्होंने जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के पीछे सारा तंत्र, सीबीआई और सीआईडी लगा दी थी, उन पर दबाव बनाने का पूरा प्रयास किया गया था, ताकि वह इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला न सुनाएं।

ये बात दीगर है वह नहीं झुके, उन्होंने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित करते हुए चुनाव रद्द कर दिया। इंदिरा सुप्रीम कोर्ट पहुंची, लेकिन कोर्ट ने फैसला बरकरार रखा। डर था, तभी तो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखने के निर्णय के आते ही अगले दिन देश में इमरजेंसी की घोषणा कर दी। विपक्ष के सारे नेताओं को जेल में ठूंस दिया गया, मीसा के तहत लोगों को कैद कर यातनाएं दी गई। दरअसल कांग्रेस हमेशा डर दिखाकर ही राजनीति करती आई है। मुसलमानों को हिंदू राष्ट्र बनने का डर दिखाकर आज भी कांग्रेस वोट मांगती है।

डर और खौफ की राजनीति करना कांग्रेस और गांधी परिवार के डीएनए में है। इंदिरा गांधी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या किए जाने के बाद जिस तरह से कांग्रेस के नेताओं के इशारे पर दिल्ली में बेकसूर सिखों का नरसंहार हुआ, क्या वह डराने के लिए नहीं था। तीन दिनों तक सिखों को मारा जाता रहा और पुलिस और प्रशासन दोनों मौन रहे, यह डर नहीं था तो और क्या था।
दंगों के बाद जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से इस बारे पूछा गया था तो उन्होंने 19 नवंबर, 1984 के दिन बोट क्लब में हजारों के लोगों सामने कहा था कि जब भी कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती थोड़ी हिलती है। ये बयान उन हजारों सिखों के जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा नहीं था क्या, जो बेघर हो गए थे, जिनके अपनों को उनके सामने जिंदा जला दिया गया था। मार डाला गया था। देश के प्रधानमंत्री का यह बयान क्या सिखों को डराने के लिए नहीं था ? हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में हारने का डर था, तभी तो कांग्रेस ने पूरे देश में अपने दम पर चुनाव नहीं लड़ा। प्रधानमंत्री देश का होता है न की पार्टी का। देश के प्रधानमंत्री के लिए व्यक्तिगत तौर पर की गई इस तरह की टिप्पणियां राजनीतिक तौर पर अपरिपक्वता की निशानी हैं।

डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।