मोक्ष के पहले यह दिन देखना चाहते थे स्वामी रामचंद्र दास परमहंस

अदालत में राम मंदिर के लिए 50 साल तक मुकदमा लड़ने वाले स्वामी रामचंद्र दास परमहंस की जैसे अंतिम इच्छा पूरी हो रही है।

Avatar Written by: August 5, 2020 7:09 pm
Swami Ramchandra Das Paramahans

अदालत में राम मंदिर के लिए 50 साल तक मुकदमा लड़ने वाले स्वामी रामचंद्र दास परमहंस की जैसे अंतिम इच्छा पूरी हो रही है। उनसे मेरी पहली मुलाकात 26 अप्रैल 2002 को मुलाकात हुई थी। वे अपने गुरुभाई महंत घनश्यामदासजी महाराज के सालाना मानस सम्मेलन में इंदौर आए थे। उनका आश्रम धार रोड पर धरावराधाम में है। महंतजी ने फोन किया कि सब काम छोड़कर धरावराधाम आओ। किसी से मिलवाना है। मैं वहां पहुंचा तो जेड प्लस की सुरक्षा का तामझाम दूर से ही दिखा। 90 साल से ऊपर के फक्कड़ परमहंस से मेरा परिचय महंतजी ने कराया। मेरा नाम सुनते ही वे मुस्कुरा दिए। अपने गले में पड़े हार उतारे और मुझे पहनाकर बोले- ‘संन्यास पूर्व आश्रम में हम भी तिवारियों में थे।’ नईदुनिया के पहले पेज पर लंबा इंटरव्यू छपा, जिसका शीर्षक था-‘वे चाहते हैं कि मोक्ष के पहले यह सब देखें।’

Swami Ramchandra Das Paramahans

बिहार के छपरा जिले में जन्मे परमहंस अपने बारे में कहते थे- ‘रामचंद्रदास नाम है। राम की नगरी में वास है। रामानंद का शिष्य हूं। राम का भक्त हूं। राम का मंत्र लिया है। रामकाज में ही लगा हूं। इस जीवन के बाद मोक्ष चाहता हूं लेकिन मेरी इच्छा है कि अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण देखूं, मथुरा और वाराणसी में भी जीर्णोद्धार होता हुआ देखूं और आखिर में अखंड भारत का नजारा देखते हुए ही देह त्यागूं।’

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भारत के विभाजन की पीड़ा उनके भीतर बहुत गहरी थी। वे कहते थे कि मुसलमानों को पाकिस्तान मिल गया। हिंदुओं को हिंदुस्तान, लेकिन हिंदुस्तान में हिंदुओं को ही अपने हक के लिए ऐसे लड़ना पड़ता है, जैसे यह मुगल या अंग्रेजों का राज ही हो। वे देश के बंटे हुए नक्शे को तत्कालीन नेताओं की भारी भूल मानते थे। उनके शब्द हैं-‘बंटवारे के समग्र दुष्परिणाम यह हैं कि यह देश लावारिसों की धर्मशाला बनकर रह गया है।’ राम मंदिर पर कोई भी आड़ा-तिरछा सवाल उनके तेवर में तपन ला देता था।

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तब गुजरात दंगों पर देश के सारे सेक्युलर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के इस्तीफे के लिए हाथ धोकर पीछे पड़े थे लेकिन परमहंस को गोधरा में जीवित जलाए गए अपने कारसेवकों की पीड़ा थी। उन्होंने कहा था-‘मेरे निर्दोष 58 कारसेवक हवन करके ट्रेन से जा रहे थे। उन्हें जीवित जलाया गया है, जीवित। धर्मनिरपेक्षतावादी ध्यान दें कि बिहार के गांवों में हत्याओं का दौर ही जारी है। कश्मीर में आतंकी हत्याएं कर रहे हैं। इन राज्यों में तो कोई राम मंदिर के नारे लगाने नहीं गया। ऐसी धर्मनिरपेक्षता खोखली है।’

सांप्रदायिक माने जाने वाले मसलों पर भारत के मुसलमान भी एक ज्वलंत पक्ष रहे हैं। परमहंस मुसलमानों का उल्लेख आते ही सनातन धर्म का विशाल छाता खोलकर खड़े हो जाते थे-‘मैं मुसलमानों का विरोधी बिल्कुल नहीं हूं। अलग-अलग पूजा पद्धतियों सहित मिलजुलकर रहने की हमारी परंपरा है। लेकिन यहां के मुसलमानों को दूसरे देशों से सबक लेना चाहिए। इराकी पहले इराकी है, फिर मुसलमान। ईरानी पहले ईरानी हैं, फिर मुसलमान। इंडोनेशिया में भी देश पहले है, मजहब बाद में। जबकि भारत में उल्टी गंगा बह रही है। मैं तो भारत के मुसलमानों को मोहम्मद पंथी हिंदू और ईसाइयों को जीसस पंथी हिंदू मानता हूं। देश हर हाल में पहले होना चाहिए।’

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राम मंदिर निर्माण की जिद पर एक हठयोगी की तरह होकर बोले थे-‘मैं कोई जामा मस्जिद नहीं मांग रहा हूं। मक्का-मदीना में भी मुझे जगह नहीं चाहिए। अजमेर की दरगाह भी मेरी मांग में शामिल नहीं है। मैं तो अयोध्या में राम जन्म भूमि की जगह हिंदुओं को देने की छोटी सी मांग कर रहा हूं। और जानकार अगर यह कहते हैं कि अयोध्या में राम का जन्म नहीं हुआ तो वे यह भी बता दें कि कहां हुआ था, हम वहां मंदिर बना लेंगे।’

उन्होंने बताया था कि बीते कोर्ट में मामला चलते हुए 50 सालों में मैंने प्रधानमंत्री नेहरू, लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी तक से मंदिर के लिए जमीन मांगी। वकील, जज और प्रतिवादी से भी यही उम्मीद की। लेकिन सब के सब या तो पदों से उतरते गए या चल बसे लेकिन मामला अदालत में ही रहा। इसीलिए अब प्रधानमंत्री के रूप में अटलजी से कोई अपेक्षा नहीं की है। गठबंधन सरकार ने उनकी क्षमताओं को सीमित किया हुआ है। परमहंस से मेरी दूसरी मुलाकात अयोध्या में ही हुई थी। वे सब तरह की सियासत से दूर बिल्कुल औघड़ अंदाज में रहते थे। लेकिन उनकी आंखों में हर समय राम मंदिर का सपना आप अनुभव कर सकते थे। एक साल बाद ही उन्होंने अपने अधूरे सपन के साथ देह त्याग दी थी।

Ayodhya Ram Mandir

पांच अगस्त का दिन ऐसे अनगिनत साधुओं को भी स्मरण करने का दिन है, जिन्होंने बाबरी ढांचा खड़ा होने से लेकर अब तक मंदिर को एक सपने की तरह ही अपनी आंखों में बसाकर रखा था और मुगलों से लेकर अंग्रेजों और आजाद भारत की दुष्ट शक्तियों से लड़ते रहे थे। जिन मुसलमानों ने बाबर के नाम की मस्जिद को बनाए रखने के लिए 70 साल तक अदालत में बाधाएं पैदा कीं और जमीन के अंदर-बाहर मौजूद प्राचीन मंदिर के सबूतों से इंकार किया, वह एक अलग बहस का विषय हैं। सात सदियों के आतंक और दमन की इस्लामिक हुकूमत में लगातार हुए धर्मांतरण के जीवित अवशेष, जिनके मस्तिष्कों में मूल परंपराओं की स्मृतियां लुप्त या सुप्त हैं। सेक्युलरिज्म इनके लिए एनेस्थीसिया की तरह लगाया गया इंजेक्शन था, जिसने जड़ों से जोड़ने की बजाए थोपी गई बाहरी पहचानों को पुख्ता किया।

इस लेख के लेखक विजय मनोहर तिवारी हैं, लेख में व्यक्त सारे विचार लेखक के निजी हैं।