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सुराज के लिए स्वराज जरूरी

मनुष्य आनंद अभीप्सु है। आनंद के तमाम उपकरण प्रकृति में हैं। वे प्राकृतिक हैं। अनेक उपकरण समाज में भी हैं और वे सांस्कृतिक हैं। समाज अपने आनंद के लिए अनेक संस्थाए बनाते हैं। राजव्यवस्था समाज की सबसे महत्वपूर्ण संस्था है। एक विशेष भूखण्ड में रहने वाले लोगों की एक जीवनशैली होती है।

नई दिल्ली। मनुष्य आनंद अभीप्सु है। आनंद के तमाम उपकरण प्रकृति में हैं। वे प्राकृतिक हैं। अनेक उपकरण समाज में भी हैं और वे सांस्कृतिक हैं। समाज अपने आनंद के लिए अनेक संस्थाए बनाते हैं। राजव्यवस्था समाज की सबसे महत्वपूर्ण संस्था है। एक विशेष भूखण्ड में रहने वाले लोगों की एक जीवनशैली होती है। वे लोग अपनी संस्कृति गढ़ते हैं। ऐसी भू सांस्कृतिक प्रीति वाले लोगों द्वारा गढ़ी गई अपनी राजव्यवस्था होती है। यह स्वदेशी होती है। कभी कभी विदेशी हमलों में पराजय के कारण राजव्यवस्था विदेशी भी होती है। तब राष्ट्र को अपनी संस्कृति के अनुसार जीने में कठिनाई होती है। अपनी राजव्यवस्था आवश्यक है। इसे स्वराज कहते हैं। लोकमंगल से भरीपूरी राजव्यवस्था सुराज है लेकिन भारत में 1947 तक ब्रिटिश राज था। इसके पहले इस्लाम प्रेरित विदेशी राज था। यहां स्वराज नहीं था। सुराज असंभव था। सुराज के लिए स्वराज जरूरी है।

मनुष्य अतिप्राचीन काल से ही सुखी देश/भूक्षेत्र में रहना चाहता है। वेदों में स्वराज और सुराज की खूबसूरत अभिलाषाएं हैं। ऋग्वेद प्राचीनतम इतिहास साक्ष्य है। यहां स्वराज्य (1.80 व 8.93), राजधर्म (5.37 व 1.174) राजकर्म (1.25 व 4.42) सहित अनेक सूक्त हैं। ऋग्वेद (9.113.10 व 11) में सोम से प्रार्थना है “जहां सारी कामनाएं पूरी होती हों, – यत्र कामा निकामाश्र्च, जहां सुखदायी तृप्तिदायक अन्न हो, आप हमें वहां अमरत्व (स्थायित्व) दें। जहां आनंद, मोद, मुद व प्रमोद हैं – यत्रानन्दाश्च, मोदाश्च, मुदः प्रमोद आसते। कामनाएं जहां तृप्त होती हैं आप वहां अमरत्व दें।” यह सुराज की झांकी है लेकिन सुराज के लिए स्वराज चाहिए। आदर्श राज्य व्यवस्था चाहिए। स्वराज और सुराज के भाव वैदिक पूर्वज भी जानते थे कि श्रेष्ठ राज्य स्वराज व्यवस्था के अभाव में राष्ट्र सुखी नहीं होते। आगे कहते हैं “जहां विवस्वान का पुत्र राजा है। जहां विशाल नदियां रहती हैं, जहां आनंद का द्वार है आप हमें वहां स्थायित्व दें।” (वही 8) यहां सुराज की कामना है। राष्ट्रीय समृद्धि के लिए स्वराज और सुराज जरूरी है। यजुर्वेद के एक सुन्दर मंत्र (22.22) में प्रार्थना है “हमारे राष्ट्र में राजन्य शूरवीर हों। विद्वान सम्पूर्णता के ज्ञाता हों। गायें दुधारू हों, भारवाहक बैल स्वस्थ हों, तेज गति वाले घोड़े हों, परिवार संरक्षक माताएं हों, तेजस्वी युवा हो। मेघ मनोनुकूल वर्षा करें। राष्ट्र में समृद्धि हो।” यहां एक आनंदमगन स्वराज व सुराज की आकांक्षा है।

राज्य संस्था का क्रमिक विकास हुआ है। अथर्ववेद में राज्य के जन्म और विकास का सुन्दर वर्णन है। बताते हैं “पहले राजा-राज्य रहित दशा थी। इसका विकास हुआ। फिर गार्हृपत्य संस्था (परिवार-कुटुम्ब) आई। इसके बाद ‘आहवनीय’ दशा आई। परिवारों का आह्वान हुआ, पंचायते हुई। फिर ‘दक्षिणाग्नि दशा’ आई। दक्षिणाग्नि दशा का अर्थ है – कुशल लोगों का नेतृत्व मिलना। फिर सभा बनी। इसी के विकास से समिति बनी।” (अथर्ववेद 8.10.2-8) वैदिककालीन समिति राजा का चयन करती थी। समिति उसे पदासीन करती थी, पद से हटाती भी थी। (अथर्ववेद अध्याय 5 व 6) ऋग्वेद (9.92.6) के अनुसार राजा समिति में जाता है। राजा समिति के प्रति उत्तरदायी है। वैदिक काल का ‘राजा’ परम स्वतंत्र नहीं है। वरूण शासक हैं लेकिन ‘धृतवृत’ हैं। ऋग्वेद (1.25.10) यजुर्वेद (10.27) और अथर्ववेद (7.83.1) में वरूण भी धृतवृत हैं। स्वराज में ही अपनी संस्कृति के अनुसार जीने का अवसर मिलता है। यहां धृतवृत का अर्थ है – आचार संहिता के प्रति वचनबद्ध/प्रतिज्ञाबद्ध। स्वराज और सुराज अपरिहार्य है। अथर्ववेद के एक मंत्र में कहते हैं, जहां गौएं मारी जाती हैं, वहां कमल नहीं खिलते।” गाय अबध्य हैं। लेकिन स्वराज और सुराज के अभाव में गौवें मारी जाती हैं।

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वैदिक काल में राजा की नियुक्ति होती थी। ऋग्वेद (10.173.1) में कहते हैं, “आपको अधिपति नियुक्त किया गया है। आप स्थिर रहें। प्रजाएं आपकी अभिलाषा करें। आपके माध्यम से राष्ट्र का यश कम न हो – मा त्वद्राष्ट्रमधि भ्रशत्।” सुराज के लिए राजा और राज्य का स्थायित्व प्रजा की शुभकामना है। कहते हैं “जैसे आकाश, पृथ्वी, पर्वत और विश्व अविचल है उसी प्रकार राजा भी अविचल रहे।” (वही 4) फिर राजनैतिक स्थिरिता के लिए भी सभी देवों की स्तुतियां हैं “वरुण स्थायित्व दें – धु्रवं ते राजा वरूणो। बृहस्पति स्थायित्व दें – धु्रवं देवो बृहस्पति। इन्द्र और अग्नि भी इस राष्ट्र को स्थिर रूप में धारण करें – राष्ट्र धारयतां धु्रवं। (वही 5) स्थिरिता की प्रार्थना वरूण, बृहस्पति और इन्द्र अग्नि से लेकिन सुराज की प्रार्थना “सविता, सोम से है।” (वही 10.174.3) वाल्मीकि ‘रामायण’ में दशरथ द्वारा श्रीराम को राजपद सौंपने के लिए दशरथ ने मंत्रिपरिषद बुलाई गई थी। उन्होंने स्वयं के असमर्थ होने का उल्लेख किया। मंत्रिगणों ने श्रीराम का नाम सुझाया। दशरथ ने कहा कि आप मुझे खुश करने के लिए ही तो ऐसा प्रस्ताव नहीं लाए है? मंत्रिगणों ने श्रीराम के गुणों का उल्लेख किया और उन्हें राज्यपद के सर्वथा योग्य बताया। ‘रामायण’ के इस प्रसंग में राजा के गुणों की सूची है। रामायण में ‘राजाविहीन/राज्य व्यवस्थाहीन राष्ट्रदशा का भी उल्लेख है। राज्याभिषेक के पहले ही श्रीराम का वनगमन हो गया। दशरथ का निधन हो गया। मंत्रिपरिषद बैठी, राजा के नए नाम पर विचार हुआ। इसी विचार विमर्श के दौरान राज्यव्यवस्थाविहीन भूखण्ड की दशा का वर्णन हुआ। स्वराज्य जरूरी है। स्वराज्य के अभाव में सुराज नहीं चलता।

यजुर्वेद के एक सुंदर मंत्र में राजा के कार्य हैं, “हम कृषि के लिए, लोकमंगल और धनसमृद्धि के लिए तथा सम्पूर्ण पोषण के लिए आपको स्वीकार करते हैं।” (यजुर्वेद 9.22) यहां सुराज के लक्ष्य हैं। राज्याभिषेक के मंत्रों में कहते हैं, “आपको चंद्रमा की आभा से, अग्नि के तेज से, सूर्य की ऊर्जा से व इन्द्र के बल से अभिषिक्त करते हैं। आप शौर्यवानों के क्षत्रपति हों और प्रजा की रक्षा करें।” (वही 10.17 व 18) एक अन्य स्थल पर कहते हैं “तेजस्विता के लिए, सारस्वत ज्ञान के लिए, बल के लिए, श्री, समृद्धि और यश के लिए हम प्रार्थनाएं करते हैं।” (वही, 20.3) यहां सुराज के सभी तत्व हैं।

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महाभारतकाल में सभा की शक्ति घट गयी है। सभा जुंए जैसे मनोरंजन का स्थल है। वरिष्ठ सभासद भी सत्य नहीं बोलते। इसीलिए महासंग्राम हुआ था। वास्तविक इतिहासबोध के अभाव में हमने वैदिककालीन सभा, समितियों से प्रेरणा नहीं ली। महाभारत काल की कमजोर सभा के दुष्परिणामों से कोई सबक नहीं सीखा। महाभारत (शान्ति पर्व) के अनुसार अन्य अनेक कर्तव्यों के साथ राजा को व्यवसायरहित निराश्रित लोगों के भरण पोषण का भी प्रबंध करना चाहिए। शुक्रनीति में राजा प्रजा का सेवक बताया गया है। (4.2.129) यहां राजा राजकोष का मालिक नहीं न्यासी/संरक्षक है। कहते हैं “राजकोश को प्रजा, राष्ट्ररक्षा आदि पर खर्च करना चाहिए निजी परिवार पर नहीं। (वही 4.2) सुराज के सभी तत्व। अंग्रेजी राज में स्वराज्य नहीं था। इसीलिए भारतवासी लड़े। तिलक ने घोषणा की थी कि स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। स्वराज्य के लिए ही दीर्घकालिक तक स्वाधीनता संग्राम हुआ। हम पराधीन थे, स्वाधीन होने के लिए संघर्षरत थे। पराधीनता दुखदाई होती है। स्वाधीनता का अमृत महोत्सव प्रधानमंत्री प्रेरण से अभी मनाया गया है। वे स्वराज में सुराज चाहते हैं। गांधी जी ने स्वराज पर जोर दिया है। सुराज स्वराज में ही संभव है। रामराज्य और सुराज एक है।