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वीर विनायक दामोदर सावरकर: एक ऐसा देशभक्त जिसको लेकर फैलाए गए भ्रम के जाल में खुद फंस गए हैं वामपंथी और कांग्रेसी सोच के पक्षधर  

वीर विनायक दामोदर सावरकर भारत मां का वह लाल जिसने अपनी जिंदगी में दो बार आजीवन कारावास की सजा पाई। जिनकी जिंदगी का बड़ा हिस्सा कालापानी की सजा काटते-काटते गुजरा। भारत मां का वह सपूत जिसने कालकोठरी की दीवार पर राख से पूरा साहित्य लिख डाला।

भारत के प्राचीन, मध्य और आधुनिक इतिहास पर कुंडली मारकर बैठे वामपंथी इतिहासकारों की कलम ने जो कुछ लिखा उसने भारत की विरासत, संस्कृति भारत के महापुरुष और वीर तक को ना जाने कितनी बार अपमानित किया। वीर सावरकर हों या महाराणा प्रताप, चंद्रशेखर आजाद हों या भगत सिंह। इन वामपंथी इतिहासकारों ने तथ्य को तोड़-मरोड़ कर इतिहास की किताबों में हमेशा पेश किया और वह बार-बार जोर देकर कहते रहे कि इनका भारत के निर्माण में कोई योगदान नहीं लेकिन मुगल काल इन्हीं इतिहासकारों के लिए भारत का स्वर्णयुग बन गया। अंग्रेजों की गुलामी की इनकी मानसिकता इनके इतिहास के लेखन और संकलन में भी झलकती है लेकिन ये भारत के आजादी के दिवानों के बलिदान को ये अपनी कलम से पन्नों पर शब्दों के माध्यम से खारिज कर देते हैं। इनके लिए देश की आजादी 15 अगस्त 1947 का दिन होता है और देश के पहले प्रधानमंत्री के रूप में ये पंडित जवाहर लाल नेहरू को अंकित तो कर देते हैं। ससम्मान भारत की जनता इसको स्वीकारती भी है लेकिन ये बड़ी चतुराई से सुभाष चंद्र बोस, उनकी आजाद हिंद फौज और उनके प्रधानमंत्री बनने और भारत की आजादी की तारीख तय कर अंग्रेजों के खिलाफ की गई बगावत जिसके बाद वह यहां से जाने को मजबूर हुए उसको सिरे से नकार देते हैं या कई तथ्य छुपा ले जाते हैं। ये वही साहित्यकार हैं जिनकी कलमें पहले चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह और खुदीराम बोस सरीखे क्रांतिकारियों को आतंकवादी तक लिख देती है और समय के साथ जब विरोध बढ़ता है तो यह मान तो लेते हैं कि ये आजादी के दिवाने थे लेकिन उनको इतिहास की किताबों में वह सम्मान नहीं देते जो उनका मिलना चाहिए था।

वीर विनायक दामोदर सावरकर भारत मां के वह लाल जिन्होंने अपनी जिंदगी में दो बार आजीवन कारावास की सजा पाई। जिनकी जिंदगी का बड़ा हिस्सा कालापानी की सजा काटते-काटते गुजरा। भारत मां का वह सपूत जिसने कालकोठरी की दीवार पर राख से पूरा साहित्य लिख डाला। जो अंग्रेजी फौज को चकमा देकर भागने में कामयाब रहे। जिसका खौफ अंग्रेजों में इतना की वह सावरकर की एक जिंदगी में दो बार आजीवन कारावास की सजा देने से भी नहीं चूके। अंग्रेज उनकी लड़ाई से इतने खौफजदा थे कि उन्हें अंडमान के सेल्युलर जेल में कालकोठरी में बंद कर रखा। कालापानी की सजा दी गई। एक ही जेल की दो कालकोठरी में पड़े दो भाई यह तक नहीं जानते थे कि दीवार की दूसरी तरफ कालकोठरी में उसका एक और भाई कैद है और कालापानी की सजा काट रहा है। जिसको कोल्हू के बैल की तरह जोता गया। लेकिन इन वामपंथी इतिहासकारों और कांग्रेसी माइंडसेट के लोगों को पहले से पता था कि अगर सावरकर की गाथा सही तरीके से लिख दी गई तो कई लोगों को आजादी का हीरो बनने का सपना अधूरा रह जाएगा। इतिहास की किताबें केवल और केवल सावरकर की वीर गाथा से ही भर जाएगी।

veer savarkar pm modi

आज भी वामपंथी इतिहासकार, वामपंथ समर्थक और कांग्रेसी इको सिस्टम के सपोर्ट से जी रहे लोग यही करने की भरपूर कोशिश में लगे रहते हैं। कांग्रेस की सोच वीर सावरकर को लेकर कैसी रही है ये आपको तब समझ में आएगा जब आपको साल 2016 का वहा वाकया याद होगा जब कांग्रेस ने अपने अधिकारिक ट्विटर हैंडल से वीर सावरकर को देशद्रोही और कायर कहकर संबोधित किया गया था। साल 2019 में राहुल गांधी ने एकबार फिर सावरकर का उपहास करते हुए एक मंच से यह तक कह दिया था कि ‘मेरा नाम राहुल गांधी है, राहुल सावरकर नहीं।’ अब आप शायद सावरकर की वीरता का अंदाजा लगा सकते हैं कि उनके नाम से कांग्रेस और वामपंथियों को अपनी जमीन हिलती नजर आने लगती है। ये वही वीर सावरकर थे जिन पर टिप्पणी करने से पहले राहुल भूल गए की उनकी दादी ने इन्हीं वीर सावरकर के सम्मान में डाक टिकट जारी किया था और उनकी वीरता का गुणगान किया था।

कांग्रेस और वामपंथियों की हालत तो ये रही है कि वीर सावरकर के नाम से भी इन्हें आजतक परेशानी होती रहती है। वे कभी उन्हें नाजी कहते हैं तो कभी ब्रिटिश एजेंट, कभी षड्यंत्रकारी तो कभी घृणित कट्टरपंथी। यही नहीं, वीर सावरकर की दया याचिकायों को लेकर कांग्रेस और वामपंथी दोनों दलों के लोग हमेशा उनपर आक्षेप करने के लिए आतुर रहते हैं।  लेकिन ये कांग्रेसी ये नहीं बताते कि भारत में अंग्रेजों के सबसे बड़े पालनहार वही रहे उनको दया याचिका की क्या जरूरत थी जब उनको पता था कि वह खुद अंग्रेजों की गुलामी कर रहे हैं। हालत ये थी कि जैसा ब्रिटिश सरकार चाहती थी, कांग्रेस के नेता वैसा ही करते थे। जब भारत में विदेशी समानों की होली जलाई जा रही थी तो कोलकाता में गोपाल कृष्ण गोखले लॉर्ड मिंटो से मिल रहे थे। इसके बाद गोखले ने तब उनसे बात करते हुए कहा था कि वह इस बहिष्कार और आंदोलन को रोक देंगे। इस मुलाकात का जिक्र खुद मिंटो की पत्नी द्वारा लिखित पुस्तक ‘मैरी काउंटेस ऑफ़ मिन्टो – इंडिया मिन्टो एंड मोर्ले 1905-1910’ के पृष्ठ 20 पर है। अब आप समझ सकते हैं कि कांग्रेस को सावरकर के पराक्रम से डर क्यों लगता था। कांग्रेस के सारे अधिवेशन की शुरुआत ही ब्रिटेन के महाराजा के गुणगान से होती थी। कांग्रेस के संस्थापक तो आपको याद ही होंगे ए ओ ह्यूम। अब आप जान लीजिए की कांग्रेस की स्थापना क्यों की गई। ताकि अंग्रेज सरकार से सीधे बातचीत और सुलह का रास्ता साफ हो सके और देश को आजादी दिलाने के नाम पर कांग्रेस का समर्थन अंग्रेजों को और अंग्रेजों का समर्थन कांग्रेस को मिलता रहे।

वीर सावरकर के समय संघ नहीं था लेकिन संघ आज भी सावरकर को अपनी जननेता मानती है तो इसके पीछे सावरकर का शौर्य, उनकी विद्रोही क्षमता ही तो है जो अंग्रेजों को घूटने टेकने पर मजबूर कर गई थी। कांग्रेस का वह अधिवेशन याद कीजिए जब जलियांवाला बाग में अंग्रेजों के नरसंहार के बाद कांग्रेस का अधिवेशन अमृतसर में हो रहा था तब कांग्रेसी नेता अंग्रेजी सरकार के शान में कसीदे पढ़ रहे थे लेकिन वह तब भी देश को आजादी दिलाने वाले महानायक बन गए यह केवल और केवल वामपंथी इतिहासकारों की लेखनी का ही तो कमाल रहा है। स्वाभाविक रूप से संवतंत्रता संग्राम के दौरान सभी नेता एवं क्रन्तिकारी अपनी-अपनी सोच अथवा विचारों के अनुसार स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे थे। वास्तव में, इसी सच्चाई को समझने की जरुरत है। लेकिन नहीं कांग्रेसी और वामपंथी इको सिस्टम के द्वारा पूजित लोग अपनी राजनैतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए स्वतंत्रता सेनानियों को घसीटने से भी बाज नहीं आते हैं।

आपको पता है कि जब सावरकर को दूसरी बार आजीवन कारावास की सजा मिली तो जनता ही नहीं, बल्कि कांग्रेस भी उनकी रिहाई के लिए प्रयासरत थी। साल 1923 में कांग्रेस अधिवेशन के दौरान विनायक दामोदर सावरकर के नाम से एक प्रस्ताव खुद तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष मोहम्मद अली ने पेश किया था। यह दुर्भाग्य ही है कि कांग्रेस आजादी के आंदोलन के दौरान जिस सावरकर को सम्मान दे रही थी आज वही कांग्रेस अपने ही इतिहास को भूल गई है। कांग्रेस को शायद याद ही नहीं होगा कि महात्मा गांधी ने वीर विनायक दामोदर सावरकर के लिए बहादुर, चतुर, देशभक्त शब्द का इस्तेमाल किया था। कांग्रेस अपने उस इतिहास को भी तो याद कर ले जब स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस ने एक समिति का गठन किया जिसमें डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. पट्टाभि सीतारामय्या, डॉ एस. राधाकृष्णन, जय प्रकाश नारायण और विजयलक्ष्मी पंडित शामिल थीं। इस समिति के नेतृत्व में भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन पर एक पुस्तक – ‘To The Gates of Liberty’ का प्रकाशन किया गया। प्रस्तावना जवाहरलाल नेहरू ने लिखी और सावरकर के भी दो लेखों ‘Ideology of the War Independence – Swadharma and Swaraj and ‘The Rani of Jhansi’ को इसमें समाहित किया गया था। इस पुस्तक की एक विशेष बात यह भी थी कि इस समिति ने सावरकर के नाम के आगे ‘वीर’ लगाया था।

ये तो बात रही कांग्रेस की लेकिन उन वामपंथ समर्थकों को क्या करें जिनको पता ही नहीं कि मार्क्स के पोते भी इस महान क्रांतिकारी के पक्ष में अंतरराष्ट्रीय अदालत में खड़े हो गए थे। कार्ल मार्क्स के पोते ने हिंदुत्व के पुरोधा सावरकर का एक अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में न केवल बचाव किया था बल्कि उनके व्यक्तित्व और राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी भूमिका की जबरदस्त प्रशंसा भी की थी। आपने वह घटना पढ़ी होगी जब वीर सावरकर को अंग्रेजी हुकूमत पानी के रास्ते से ब्रिटेन से मुंबई ला रही थी वह बीच में ही कूदकर भागने में कामयाब रहे लेकिन फ्रांस के तट पर एक बार फिर उन्हें अंग्रेज सिपाहियों ने पकड़ लिया लेकिन फ्रांस और ब्रिटेन के बीच इसको लेकर विवाद गहरा गया क्योंकि फ्रांस को पता चल गया कि वह भारतीय क्रांतिकारी हैं और फ्रांस सरकार ब्रिटेन से उन्हें सुपुर्द करने के लिए कहने लगी मामला नीदरलैंड में हेग नामक जगह पर स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में पहुंच गया। वहां तब वीर सावरकर के लिए फ्रांस की तरफ से मामले की पैरवी कार्ल मार्क्स के पोते जीन-लॉरेंट-फ्रेडरिक लोंगुएट ने की थी।

इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनसंघ के सदस्य न रहते हुए भी संघ परिवार में वीर सावरकर का नाम बहुत इज्जत और सम्मान के साथ लिया जाता है।  वीर सावरकर को हिंदूवादी कहकर जहर बोने वाले कांग्रेस और वामपंथ समर्थक बड़ी चतुराई से उनकी हिंदू और हिंदूत्व की परिभाषा को दबा जाते हैं। वीर सावरकर ने एक किताब लिखी ‘हिंदुत्व – हू इज़ हिंदू?’ इस किताब में उन्होंने पहली बार राजनीतिक विचारधारा के तौर पर हिंदुत्व का इस्तेमाल किया था। वरिष्ठ पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय ने एक साक्षात्कार के दौरान बताया था कि सावरकर के हिसाब से भारत में रहने वाला व्यक्ति मूलत: हिंदू है और यही हिंदुत्व शब्द की परिभाषा है। जिस व्यक्ति की पितृ भूमि, मातृभूमि और पुण्य भूमि भारत हो वही इस देश का नागरिक है। हालांकि यह देश किसी भी पितृ और मातृभूमि तो बन सकती है, लेकिन पुण्य भूमि नहीं।

अब ऐसे में कांग्रेस और वामपंथ समर्थक विचारधारा के पोषक कितना भी चिल्ला लें ना तो वीर विनायक दामोदर सावरकर के आजादी के समय के बलिदान को भुलाया जा सकता है ना ही नवभारत के सृजन के उनके संकल्प को।