एक ओर जहां विश्व कोरोना नामक शत्रु के विरुद्ध मोर्चा खोले बैठा है। वहीं दूसरी ओर विभिन्न देशों के आपसी विवाद से भी विश्व प्रभावित हो रहा है। पहले अर्मेनिया और अज़रबैजान, अमेरिका और ईरान, भारत-चीन और अब इजरायल-फिलिस्तीन। हालांकि इन दो राष्ट्रों के बीच युद्ध की कहानी कुछ दिनों या महीनों का विवाद नहीं है, यह मामला इजरायल राष्ट्र को जन्म से ही विरासत में प्राप्त हुआ है। महीनों की मशक्कत के बाद फिलहाल यहां युद्धविराम की स्थिति बनी है लेकिन यह शांति कितने देर रहने वाली है कहना मुश्किल होगा।
पश्चिम एशिया के इन दो देशों के विवाद को लेकर दुनिया के ज्यादातर देशों में कौतूहल बना हुआ था, हर एक की दृष्टि इसके भविष्य की तरफ़ थी। ऐसा भी अंदेशा लगाया जा रहा था की दो देशों का विवाद बढ़ने से कहीं क्षेत्रीय, या आगे चलकर विश्व युद्ध का रूप धारण न कर ले। इस खतरे का अंदेशा इसलिए भी लगाया जा रहा था क्योंकि विश्व कोरोना महामारी से जूझ रहा है, अर्थव्यवस्था ध्वस्त है और इस तरह की अनिश्चय और अनिर्णय की स्थिति में उसमें यह युद्ध की स्थिति का उत्पन्न होना साधारण बात है। ऐसे में एक प्रश्न जो सबके मन में कौंधेगा कि वर्तमान में जो स्थिति अभी बनी हुई थी, उसके अतीत में क्या है? वास्तव में इस इजरायल-फिलिस्तीन विवाद के पीछे की जड़ें क्या है? थोड़ी पड़ताल करने पर ही यह समझ आ जाता है कि इस विवाद की कई सारी परतें हैं, कई कारण हैं और कई आयाम हैं। यहां हम इन्हीं आयामों में से कुछ की चर्चा कर रहे हैं।
धार्मिक-ऐतिहासिक पक्ष
इस द्विपक्षी विवाद का धार्मिक पहलू भी अनगिनत कारण कहता नज़र आता है। यह मूलतः तीन धर्मों इस्लाम, ईसाई एवं यहूदियों का धार्मिक केंद्र रहा है। येरुशलम को ये तीनों ही अपना तीर्थ स्थल बताते आए हैं। इस्लाम का तीसरा सबसे पवित्र स्थान और अल-अक्सा मस्जिद यहीं स्थित है, जो कि टेम्पल माउंट के ऊपर है। इसी टेम्पल की वेस्टर्न वॉल यहूदियों के लिए श्रद्धा का प्रमुख केंद्र है। साथ ही यरुशलम में ही ईसाई धर्म के पैगंबर ईसा मसीह का जन्म हुआ था। अकादमिक गलियारों में तो यरुशलम को एक भगवान, दो राष्ट्र एवं तीन धर्मों का भूखंड माना गया ।
जब द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हुआ तो अंग्रेजों द्वारा पहले से किए वायदे के अनुसार फिलिस्तीन और इजरायल को स्वतंत्र करना था। किन्तु समस्या यह थी कि अंग्रेज़ों का मानना था कि वहां के लोग स्वशासन के लिए अभी तैयार नहीं थे। इसलिए अंग्रेजों द्वारा उनकी ट्रेनिंग के लिए अलग-अलग सेंटर स्थापित किए गए। क्योंकि धर्म के आधार पर लोगों के लिए अलग-अलग ट्रेनिंग सेंटर खुला तो उनकी धार्मिक कट्टरता में वृद्धि होगी। परिणाम स्वरूप यह हुआ की जो लोग कभी मिलजुल कर सौहार्दपूर्ण तरीके से रहते थे, अब उनमें संघर्ष कि स्थिति बनने लगी।
देखा जाए तो यहूदियों के लिए इजरायल देश का बनना बहुत ही आवश्यक था, क्योंकि सम्पूर्ण विश्व में उनके रहने हेतु कोई स्थान नहीं था। साथ ही उन्हें सभी देशों से बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा था। इसलिए यहूदियों के लिए इजराइल अस्तित्व का मुद्दा था, जिसको वह किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहते थे। उनका यह सपना 1948 में इजरायल के एक अलग राष्ट्र बनने के साथ ही पूर्ण हुआ।
उपनिवेशवादी आयाम
इस मामले को बढ़ावा देने में उपनिवेशवाद भी बहुत बड़ा कारण रहा है। जैसे 1947 में भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद, एक तरफ पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान में बांग्लादेश), दूसरी तरफ पाकिस्तान और बीच में भारत! इजरायल फिलिस्तीन बंटवारा भी इसी परिपाटी पर रहा। यह विभाजन भी इस प्रकार हुआ कि फिलिस्तीन नामक जो देश बना वह भौगोलिक रूप से दो भूखंडों में बंटा हुआ था। एक जिसे गाज़ा पट्टी के रूप में जाना गया और दूसरा जिसे वेस्ट बैंक कहा गया। इन दोनों के बीच में इजरायल नमक देश अस्तित्व में आया। इस तरह के बंटवारे से निश्चित ही यह तय होता है कि सीमा विवाद का सवाल तो उठेगा ही।
इजरायल-फिलिस्तीन का विवाद 1948 के बाद की लड़ाई भूखंड और बॉर्डर डिस्प्यूट बन गया। फिलिस्तीन चाहता था की येरूशलम पर उसका आधिपत्य हो, वहीं इजरायल इसे अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहता था। हालांकि इसी दौरान 1948 में ही इजिप्ट, जॉर्डन, इराक और सीरिया ने इजरायल पर संयुक्त हमला किया, लेकिन सबको मुंह की खानी पड़ी और इसी के साथ येरुशलम का आधे से अधिक के क्षेत्र पर इजरायल का कब्जा हो गया। तकरीबन 7 लाख फिलिस्तीनी अरब रिफ्यूजी हो गए। यह मामला यहीं नहीं समाप्त हुआ, 1967 में इजरायल ने दुबारा अरब देशों के साथ जंग छेड़ दी और इस बार फिलिस्तीन के आधिपत्य के दो क्षेत्र वेस्ट बैंक और गाजा दोनों पर कब्ज़ा कर लिया। इस युद्ध को प्रसिद्ध “सिक्स डे वॉर” के नाम से भी जानते हैं। यह युद्ध इसलिए भी प्रसिद्ध है क्योंकि इस युद्ध के माध्यम से हम समझ सकते हैं कि कैसे हाल-फिलहाल में जन्में एक देश पर कई सारे देश गुटबंदी कर साथ मिलकर हमला करते हैं, फिर भी उनको मत खानी पड़ी। इसमें इस्लामिक एवं अरब राष्ट्र साथ आकर इजरायल के खिलाफ़ खड़े थे। दोनों के अपने-अपने उद्देश्य थे। यहूदियों को रहने के लिए पूरी दुनिया में इजरायल ही एकमात्र देश है। दूसरी तरफ सारे अरब-इस्लामिक देश थे, जो यहूदियों को उनके एकमात्र शरण इजरायल से खदेड़ना चाहते थे। इस तरह से ये “सिक्स डे वॉर” हुई और इसमें इजरायल न सिर्फ विजयी हुआ, बल्कि इस बात को दुनिया के सामने रखा कि अगर उसके ऊपर कोई आंख भी उठाएगा तो वो उससे लड़ने के लिए तैयार है। इस युद्ध की समाप्ति के साथ ही अब अरबों ने भी मान लिया था कि इजरायल अब एक अलग राष्ट्र बन चुका है। इसमें किसी को कोई संदेह रह भी नहीं गया था।
क्षेत्र में अमेरिका के हित
इजरायल राष्ट्र बनने के साथ ही इजरायल-फिलिस्तीन द्विपक्षी मामलों में अमेरिका ने भी अहम भूमिका निभाई है, कभी राजनीतिक दृष्टि से तो कभी आर्थिक दृष्टि से। यह जो मिडिल ईस्ट में विवाद चल रहा है, उससे अमेरिका को फायदा ही होता रहा है। क्योंकि एक तरफ़ अमेरिका हथियार बेचता है और ये जरूरी नहीं कि वह सिर्फ़ इजरायल को ही या फिलिस्तीन को ही बेचा जाए। वह हथियार दूसरे देशों को भी बेचता है और वहां से फिर वही हथियार दुनिया के विभिन्न स्थानों पर पहुंच जाते हैं। ऐसा कहना इसलिए भी गलत नहीं होगा क्योंकि इजरायल एवं फिलिस्तीन में आधिकारिक रूप से घोषित आतंकवादी संगठन हमास भी सक्रिय है, जिसने इजरायल को जड़ से मिटा देने की कसम खा रखी है। दुनिया में कहीं भी लड़ाई होती है तो उससे एक सुपर पावर को आर्थिक लाभ होता है, यही फायदा अमेरिका को मिल रहा है। दूसरी तरफ़ दुनिया में कहीं भी कोई विवाद है और अगर आप विवाद में मध्यस्थ बनते हैं तो आप दुनिया में शांतिदूत के तौर पर खुद को प्रोजेक्ट करते हैं। आपकी छवि शांति बहाल करने वालों की बनती है। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा को इसी विवाद का फायदा मिला नोबेल शांति पुरस्कार के रूप में। बराक ओबामा ने अपने शासनकाल में इजरायल-फिलिस्तीन विवाद को सुलझाने का प्रयास किया।
इसमें ध्यान देने वाली एक बात और भी है कि डेमोक्रेटिक पार्टी की ओबामा सरकार के शासन काल के दौरान फिलिस्तीन- इजरायल के मध्य हमेशा युद्ध जैसा माहौल बना रहा। उसके बाद रिपब्लिकन पार्टी की डोनाल्ड ट्रम्प सरकार के शासन में इन दोनों देशों के बीच ऐसा कोई विवाद देखने को नहीं मिला। जबकि ट्रम्प के बाद पुनः डेमोक्रेटिक पार्टी के सत्ता में आते ही यह विवाद फिर से शुरू हो गया। ऐसे में क्या बराक ओबामा को दिया गया नोबेल शांति पुरस्कार वास्तव में न्यायसंगत था? या फिर यह भी एक सुनियोजित तरीके से तैयार की गई कहानी के प्लॉट का हिस्सा था? खैर इसका जवाब ढूंढ पाना बहुत मुश्किल होगा।
(लेखक- प्रियांक देव राष्ट्रीय सोशल मीडिया सह संयोजक, ABVP हैं। सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक समसामयिक घटनाओं के बारे में लिखते हैं।)