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Mohammed Rafi: मोहम्मद रफी की आज 97वीं जयंती, जानिए उनके बारे में सब कुछ

Mohammed Rafi: पंजाब के अमृतसर जिले के कोटला सुल्तान सिंह गांव में जन्मे मोहम्मद रफी (Mohammed rafi) ने दो शादियां की थी। उनकी पहली शादी बशिरा से हुई। फिर आजादी के दौर में 1947 का दंगा जो इन दोनों के बीच अलगाव का कारण बना। इनकी पत्नी ने अपने मां-बाप को गंवाने के बाद पाकिस्तान में बसने का निर्णय लिया और रफी भारत में ही रह गए और यहां गायकी में अपना हुनर आजमाने लगे। बाद में उन्होंने दूसरी शादी बिलकिस से की।

नई दिल्ली। हिंदी सिनेमा में गायकी के तीन स्तंभ माने जानेवाले रफी, किशोर और मुकेश में से एक मोहम्मद रफी की आज 97वीं जयंती है। रफी साहब के सारे नगमे आज भी लोगों की जुबान पर हैं। मोहम्मद रफी के नगमों की ही बात नहीं है बल्कि वह अपने निजी जीवन में भी काफी अनुशासित रहे हैं। उनको फिल्मी पार्टियों से हमेशा दूर ही देखा गया। रफी साहब की अनुशासित जीवन शैली का उदाहरण इससे साफ पता चलता है कि वह अपने घर से सीधे रिकॉर्डिंग रूम और फिर रिकॉर्डिंग रूम से सीधे घर को ही आते थे। 24 दिसंबर 1924 को आज ही के दिन हिंदी सिनेमा के इस जादुई आवाज ने धरती पर अवतरण लिया था। उनकी आवाज का जादू ऐसा कि आज भी लोगों के सर चढ़कर बोलता है।

Mohammed Rafi

पंजाब के अमृतसर जिले के कोटला सुल्तान सिंह गांव में जन्मे मोहम्मद रफी ने दो शादियां की थी। उनकी पहली शादी बशिरा से हुई। फिर आजादी के दौर में 1947 का दंगा जो इन दोनों के बीच अलगाव का कारण बना। इनकी पत्नी ने अपने मां-बाप को गंवाने के बाद पाकिस्तान में बसने का निर्णय लिया और रफी भारत में ही रह गए और यहां गायकी में अपना हुनर आजमाने लगे। बाद में उन्होंने दूसरी शादी बिलकिस से की।

Mohammed Rafi

मोहम्मद रफी के बारे में बेहद दिलचस्प बात यह है कि उनके परिवार में किसी का भी संगीत से कोई नाता नहीं था। लेकिन वह अपने गांव में आने वाले फकीरों के गानों से काफी प्रभावित थे। मोहम्मद रफी ने उस्ताद बड़े गुलाम अली खां, उस्ताद अब्दुल वाहिद खां, पंडित जीवन लाल मट्टू और फिरोज निजामी जैसे गायकों से संगीत की शिक्षा ली। मोहम्मद रफी को फिल्म में गाना गाने का पहला मौका पंजाबी फिल्म गुल बलोच में मिला था। यह फिल्म 1944 में रिलीज हुई थी। इसके बाद 1945 में उन्हें बतौर गायक हिंदी फिल्म गांव की गोरी में गाने का मौका मिला। इस फिल्म के बाद मोहम्मद रफी का करियर औपचारिक तौर पर शुरू हो गया।

Mohammed Rafi

संगीतकार नौशाद ने उनकी गायकी की प्रतिभा को सबसे पहले पहचाना। नौशाद ने मोहम्मद रफी को पहला ब्रेक फिल्म ‘अनमोल घड़ी’ में दिया। लेकिन फिल्म ‘मेला’ के गीत ‘ये जिंदगी के मेले, दुनिया में कम न होंगे अफसोस हम न होंगे,’ ने रफी को लोगों को बीच मशहूर कर दिया। लेकिन रफी साहब को फिल्म ‘बैजू बावरा’ के गाने से जो कामयाबी मिली उसके बाद वह आगे की ओर बढ़ते गए और उन्होंने कभी पीछे मुड़ के नहीं देखा। रफी की गायकी का दौर 40 के दशक से शुरू हुआ और 50,60,70 और 80 के दशक तक यह आवाज बॉलीवुड की आवाज बनी रही। मतलब लगभग 40 सालों तक रफी की आवाज का जादू हिंदी सिनेमा के पर्दे पर छाया रहा। भारत भूषण से दिलीप कुमार होते हुए ऋषि कपूर तक कई पीढ़ियों के अभिनेताओं के लिए रफी साहब ने अपनी आवाज दी। शम्मी कपूर और राजेंद्र कुमार की सुपरहिट फिल्मों का फॉर्मूला रफी साहब की आवाज रही। यहां तक की अपने समय के दिग्गज दूसरे गायक किशोर कुमार की एक फिल्म में जब वह बतौर अभिनेता काम कर रहे थे तो रफी साहब ने उनके लिए भी अपनी आवाज दी थी। किसको पता था कि रफी साहब का वह गाना ‘तुम मुझे यूं भूला न पाओगे, जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे संग संग तुम भी गुनगुनाओगे’ उनको जीवंत कर जाएगा।

Kishore Kumar

रफी साहब इतने सीधे इंसान थे कि उन्होंने मौलवियों के कहने पर फिल्मों में गाना बंद कर दिया था। मोहम्मद रफी फिल्मी दुनिया में अपनी आवाज का जादू बिखेर रहे थे। इसी दौरान वे एक बार हज पर गए थे। जब वे हज से वापस लौटे तो कुछ मौलवियों ने उन्हें कहा कि अब आप हाजी हो गए हैं और आपको ये गाना बजाना शोभा नहीं देता। रफी साहब ने मौलवियों की बात मान ली। उन्होंने गाना बंद कर दिया। हालांकि बाद में उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होंने अपना फैसला बदल दिया। मोहम्मद रफी और सुरों की मलिका लता मंगेशकर दोनों की जोड़ी ने कई मशहूर और लोकप्रिय गाने दिए। हालांकि एक दौर ऐसा आया कि दोनों ने एक- दूसरे के साथ काम करना बंद कर दिया था। यह सब रॉयल्टी पेमेंट्स को लेकर हुआ था। जो भी गाने दोनों ने साथ में गाए, लता उनकी रॉयल्टी चाहती थीं। रफी इस बात से खिलाफ थे। इसी को लेकर दोनों में ऐसी अनबन हुई कि दोनों ने 3 साल तक साथ काम नहीं किया।

Mohammed Rafi

साल 1968 में आई शम्मी की फिल्म ‘ब्रह्मचारी’ के गाने ‘दिल के झरोखों में तुझ को बिठाकर’ को लेकर शम्मी कपूर ने रफी साहब को चैलेंज दिया था। जब ये गाना रिकॉर्ड होने वाला तो इस दौरान वहां शम्मी कपूर भी मौजूद थे। इस पर शम्मी ने मोहम्मद रफी से कहा कि अगर आप इस गाने का अंतरा और मुखड़ा एक ही सांस में गा देंगे तो आपकी तारीफ में चार चांद लग जाएंगे। इस पर रफी साहब ने मुस्कुराते हुए कहा कि चलिए हम आपकी बात पर अमल करते हैं। इसके बाद रफी साहब ने इस गाने का अंतरा और मुखड़ा एक सांस में गा दिया। यह देखकर शम्मी कपूर हैरान हो गए। इसके बाद जब गाने की रिकॉर्डिंग खत्म हुई तो शम्मी ने रफी को गले लगा लिया और कहा कि वाह रफी साहब वाह। वाकई आप जैसा कोई नहीं है। इस पर मोहम्मद रफी ने कहा कि शम्मी ऐसी शर्त ना लगाया करो, वरना तुम्हारे लिए गाने कौन गाएगा।


मोहम्मद का रफी ने 30 जुलाई 1980 को दुनिया को अलविदा कहा। उनके निधन से फिल्म इंडस्ट्री में गहरा सन्नाटा पस गया। गायक मोहम्मद अजीज ने रफी साहब के के लिए साल 1990 में एक गाना गया। अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘क्रोध’ में रफी साहब को लेकर एक गाना रखा गया। इसे अजीज ने अपनी आवाज दी। गाने के बोल थे, ‘ना फनकार तुझसा तेरे बाद आया, मोहम्मद रफी तू बहुत याद आया’। सच में रफी साहब जैसा फनकार कोई नहीं था और शायद अब शायद कोई होगा भी नहीं।