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Diwali in Mughal Era: मुगलकाल में ऐसे मनाई जाती थी दिवाली…आगरा से दिल्ली तक मनाया जाता था ”जश्न-ए-चरागां”, लखनऊ से बुलाए जाते थे हलवाई

Diwali in Mughal Era: कई लोगों को ये भी लगता होगा कि भारत में जब मुग़ल राज कर रहे थे तब शायद ये त्योहार नहीं मनाए जाते होंगे। लेकिन ऐसा नहीं है, जी हां कई ऐतिहासिक कहानियों और इतिहासकारों के मुताबिक मुगलकाल में भी दिवाली बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती थी। इतिहासकारों की मानें तो, मुग़ल भी दिवाली के आकर्षण से खुद को अछूता नहीं रख पाए।

नई दिल्ली। दिवाली रौशनी का महापर्व है। इस फेस्टिवल के हफ्ते भर पहले से ही पूरा देश दीयों और लाइट्स से जगमगा जाता है। घर से लेकर मार्केट तक, स्कूल से लेकर ऑफिस तक हर तरफ रौशनी ही रौशनी देखने को मिलती है। आज के दौर में दिवाली की इतनी धूम देखकर कभी-कभी आपके दिमाग में जरूर आता होगा कि इतिहास में त्योहारों को कैसे मनाया जाता था! क्या इसी तरह की धूम उस वक़्त भी हुआ करती थी! कई लोगों को ये भी लगता होगा कि भारत में जब मुग़ल राज कर रहे थे तब शायद ये त्योहार नहीं मनाए जाते होंगे। लेकिन ऐसा नहीं है, जी हां कई ऐतिहासिक कहानियों और इतिहासकारों के मुताबिक मुगलकाल में भी दिवाली बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती थी।

इतिहासकारों की मानें तो, मुग़ल भी दिवाली के आकर्षण से खुद को अछूता नहीं रख पाए। बता दें कि मुगलकाल में दिवाली को जश्न-ए-चरागां का नाम दिया गया था। इतिहासकार ये भी बताते हैं कि पहले मुग़लशासन में दिवाली मनाने का चलन नहीं था लेकिन मुगलों के तीसरे बादशाह अकबर के शासनकाल में दिवाली मनाने की परंपरा शुरू की गई। हालांकि कुछ उलेमाओं को इससे आपत्ति थी और वो इसे गैर मुस्लिम प्रथा का नाम देते थे।

मुगलों के दौर में कैसा था दिवाली का जश्न!

साल 1720 से 1748 के बीच का दौर वो दौर था जब मुहम्मद शाह मुग़ल बादशाह था। उस वक़्त दिवाली का उत्सव बड़े ही खास अंदाज में मनाया जाता था। महलों के सामने बड़े-बड़े मैदानों में दिवाली का आयोजन होता था। दीयों की रौशनी से महल जगमगा उठते थे। बता दें कि तीसरे मुग़ल बादशाह अकबर के शासनकाल में आगरा के किले और फतेहपुर सीकरी में दिवाली मनाने की परंपरा शुरू हुई थी, जहां बादशाह अकबर अपनी बेगम जोधा बाई के साथ रहा करते थे। बता दें कि बादशाह अकबर ने एक राजपूत राजकुमारी जोधा बाई से हिन्दू रीती-रिवाजों से विवाह किया था। जोधा अकबर की सबसे प्रमुख बेगम होने के साथ मल्लिका-ए-हिंदुस्तान और अकबर के वारिस सलीम की मां भी थी। वहीं अगर हम अकबर, सलीम और शाहजहां के समय की दीवाली की बात करें तो सबसे रौनक भरी दिवाली अकबर के दौर में ही बताई जाती है।

मथुरा, भोपाल और लखनऊ से बुलाए जाते थे हलवाई

अकबर के काल में दिवाली के समय दिल्ली के लालकिले को रौशनी से सजाया जाता था। दीयों की जगमगाहट होती थी। उस समय भी आज के ही दौर की तरह एक महीने पहले से दिवाली की तैयारियां शुरू हो जाया करती थी। आगरा, मथुरा, भोपाल और लखनऊ से हलवाइयों को बुलाया जाता था। शुद्ध देसी घी में मिठाइयां बनाने के लिए आसपास के गावों में घी का आर्डर दिया जाता था और दिवाली के दिन किले के आसपास आतिशबाजी हुआ करती थी। महल को दीयों, झूमरों और चिरागदानों से सजाया जाता था।

चांदनी चौक की दिवाली थी खास

मुग़लकाल में दिल्ली को भारत की राजधनी बनाने के बाद शाहजहां ने लालकिले के अंदर दिवाली मनाने की परंपरा शुरू की। उस दौरान आकाश दिया जलाया जाता था। मुग़ल बादशाह शाहजहां ने दिवाली को और खास बनाने के लिए दीये को 40 गज ऊंचे खंभे पर लगवाया था। इसकी ऊंचाई इतनी थी कि न केवल लालकिला बल्कि इसकी रौशनी में पूरा चांदनी चौक जगमगा उठता था।