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समय विभाजन में नववर्ष की चर्चा ज्यादा होती है

कालचिंतन भारतवासियों का प्रिय विषय रहा है। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में दिन रात्रिविहीन दशा का उल्लेख है। काल की धारणा में दिन और रात्रि समय के ही चेहरे हैं। ऋषि के अनुसार तब न रात थी

कालचिंतन भारतवासियों का प्रिय विषय रहा है। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में दिन रात्रिविहीन दशा का उल्लेख है। काल की धारणा में दिन और रात्रि समय के ही चेहरे हैं। ऋषि के अनुसार तब न रात थी, न दिवस। मूलभूत प्रश्न है कि क्या तब काल था। वस्तुतः काल का बोध गति से हुआ। ऋषि के अनुसार केवल ‘वह था। वह अपनी क्षमता के कारण वायुहीन स्थिति में भी स्पंदित था। स्पष्ट है कि तब काल नहीं था। अनेक देशों में काल आधुनिक विश्व में भी भिन्न भिन्न प्रतीत होता है। भारत और अमेरिका या ब्रिटेन का काल अलग है।

वर्ष, मास, दिवस, प्रहर, घंटा, मिनट, सेकेण्ड काल के विभाजन हैं। भारतीय कालगणना में पल, विपल के साथ मुहूर्त भी है। समय विभाजन में नववर्ष की चर्चा ज्यादा होती है। नवदिवस, नव प्रहर व नए मिनट की कम। वस्तुतः काल की कोई इकाई नहीं या पुरानी नहीं है। काल धारणा अखण्ड है।

ईसा का नववर्ष 2020 प्रारम्भ हो चुका है। इस कालगणना में बीते दिसम्बर की अंतिम तिथि को 2019 चला गया और 2020 चल रहा है। इस तरह सोचने में 2019 एक स्वतंत्र सत्ता जान पड़ता है और 2020 भी। वस्तुतः वे दो नहीं हैं। समय नया या पुराना नहीं होता। हम सब ही अपने जन्म, यौवन और वृद्ध होने में नये या पुराने होते हैं।

अथर्ववेद में काल का सर्वव्यापी प्रभावशाली अस्तित्व गाया गया है। 19वें काण्ड के सूक्त 53 व 54 के 15 मंत्रों के ऋषि कवि भृगु ने काल की सुंदर महिमा गायी है। बताते हैं कि काल अश्व है। यह विश्व रथ है। काल अश्व इस विश्वरथ का वाहक है। यह सात किरणों व सहस्त्रों आंखों वाला है। यह कभी जर्जर या बूढ़ा नहीं होता। सभी लोक इसके चक्र हैं।

इस पर कवि ही आरोहण करते हैं। (वही 53.1) यहां अश्व गति का पर्याय है। गति के कारण ही अश्व की प्रतिष्ठा है। कवि को ही इस रथ पर बैठने का पात्र बताया गया है। काल की वास्तविक अनुभूति या कालबोध के लिए कवि जैसी संवेदनशीलता चाहिए। काल प्राचीन, अर्वाचीन या नूतन नहीं होता। काल की दृष्टि में संसार या प्रकृति के गोचर प्रपंच ही नए पुराने होते रहते हैं। भृगु कहते हैं, “काल में मन है, काल में प्राण हैं और काल में ही सारे नाम हैं। काल की अनुकूलता में ही प्रजा को आनंद मिलते हैं – कालेन नन्दन्त्यागतेन प्रजा इमाः।”(वही 7)  प्रकृति का अणु परमाणु गतिशील है। गति से समय का बोध है।

अनुकूल गति आनंद देती है। प्रतिकूल गति व्यथा देती है। इसे ही हम सब अच्छा या बुरा समय कहते हैं। महाभारत के रचनाकार व्यास भी कालवादी थे। वे भी अथर्ववेद की तर्ज पर शीत, ग्रीष्म आदि ऋतु को भी काल का प्रभाव मानते थे लेकिन उन्होंने राजा और काल के प्रभाव के प्रसंग में प्रश्नोत्तर के माध्यम से कहा है कि क्या राजा काल का निर्माता है या काल ही राजा का कारण है।

उत्तर है कि राजा ही काल का निर्माता है। भृगु ने मन को भी काल के अधीन बताया है। लेकिन कभी कभी मन भी यांत्रिक काल का अतिक्रमण करता है। मित्र या आत्मीय की संगति में काल छोटा लगता है और प्रतिकूल या विरोधी की संगति में दीर्घ। यहां काल पर संगति का प्रभाव भी पड़ता है।

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वैदिक देवता नाम और कतिपय विशेषताओं के कारण अलग अलग हैं। लेकिन अपनी व्याप्ति में वे संपूर्ण लोकों को आच्छादित करते हैं। ऋग्वेद के इन्द्र पृथक नाम है और वरूण भी। लेकिन इन्द्र वरूण अपनी व्याप्ति में सर्वत्र शक्तिमान सर्वसमुपस्थित हैं। अथर्ववेद में भी यही स्थिति है। काल भी ऐसी ही देव अनुभूति है। भृगु कहते हैं। काल ने ही सृष्टि सृजन किया है। सूर्यदेव काल की प्रेरणा से ही तपते हैं – काले तपति सूर्यः।

समस्त प्राणी काल आश्रित हैं। नेत्र भी काल आश्रित होकर देखते हैं। (वही 6) कहते है। काल ने दिव्यलोक उत्पन्न किये। सभी प्राणियों की आश्रयदाता भूमि को भी उन्होंने ही उत्पन्न किया। भूत, भविष्य और वर्तमान काल के आश्रित हैं।”(वही 5) कहते हैं। काल में तप है काले तपः। काल में वरिष्ठता है। काल में ब्रह्म भी समाहित है। काल सबका पिता है। पालक है, प्रजापति है और सबका इ्रश्वर है – कालो ह सर्वस्य ईश्वरो। (वही 8) इन तीनो मंत्रों में काल ही स्रष्टा द्रष्टा व विधाता हैं। यहां काल की व्याप्ति अनंत है। ऋषि कवि का कालबोध संपूर्णता के बोध तक विस्तृत है। कवि के सृजन में काल अनंत व अपरिमेय सत्ता हो गए हैं।

सृष्टि सृजन के पूर्व काल का अस्तित्व विचारणीय है। दिक् और काल सृष्टि का भाग हैं। तब काल की उत्पत्ति भी सृष्टि के साथ या बाद में होनी चाहिए। भृगु के मत में “काल ने सबसे पहले प्रजापति का सृजन किया। फिर प्रजा का – कालः प्रजा असृजन, कालो अगे्र प्रजा पतिम्। काल स्वयंभू उत्पन्न हैं।”(वही 10) बताते हैं कि संसार काल प्रेरित काल द्वारा उत्पन्न है,काल में प्रतिष्ठित है।” (वही 9) यहां काल स्वयंभू है। सदा से है। तब सृष्टि की अव्यक्त दशा में भी काल का अस्तित्व होना चाहिए लेकिन ऋग्वेद की धारणा में अव्यक्त दशा में गति नहीं है।

दिन व रात जैसे काल रूप नहीं हैं। भृगु संभवतः सृष्टि की अव्यक्त दशा में भी कालबीज को अव्यक्त सृष्टि का अंग मानते थे। उन्होंने इसी सूक्त (19.53.4) में कहा है, “वह काल समस्त भुवनों में व्याप्त है। सबका पोषण करता है। पहले सबका पिता है और बाद में वही सबका पुत्र है।”इस तरह वही भूत है और वही वर्तमान होता है। वर्तमान और भूत एक हैं। अलग अलग इनका कोई अस्तित्व नहीं है।

भूत और भविष्य काल का विभाजन जान पड़ते हैं। वे समय बोधक प्रतीत होते हैं। वस्तुतः सबका भूत काल सबकी अपनी स्मृतियां हैं। जिसकी जितनी स्मृति उसका उतना भूतकाल। लेकिन स्मृति का अस्तित्व वर्तमान में होता है। घटना हमेशा वर्तमान में घटती है।इसके बाद वह भूत हो जाती है। उसकी स्मृति वर्तमान में ही होती है। पूर्व घटित घटनाओं का स्मरण ही भूतकाल है। भृगु कहते हैं, “काल के द्वारा ही पूर्व में भूत व भविष्य को उत्पन्न किया गया है।”(वही 19.54.3) काल ने किसी पूर्वकाल में भूत भविष्य को जन्म दिया है। इसका सीधा अर्थ निकलता है कि इसके भी पहले एक समय भूत व भविष्य नहीं थे। काल भी था या नहीं? यह बड़ी पहेली अभी भी अनुत्तरित है।

वैदिक मंत्रो में शाश्वत व तात्कालिक विवरण हैं। शाश्वत सदा से है, सदा रहता है। तात्कालिक उसी मनोभूमि में प्रकट होता है और भूत हो जाता है। भृगु कहते हैं ऋग्वेद और यजुर्वेद के मंत्र भी काल से प्रकट हुए हैं।”(वही 3) इसका प्रत्यक्ष यथार्थ है कि सदा विद्यमान शाश्वत का विवरण और मंत्र रूप प्रकटीकरण सदा से नहीं है। शाश्वत सदा से है। उसका मंत्र गान बाद में हुआ है।

भृगु ने ऋग्वेद और यजुर्वेद का उल्लेख किया है। दोनो अथर्ववेद के पूर्ववर्ती हैं। अथर्ववेद के रचनाकाल में ऋग्वेद व यजुर्वेद की अतिरिक्त प्रतिष्ठा थी। भृगु ने काल सूक्त की रचना में स्वाभाविक ही दोनो संहिताओं का उल्लेख किया है।पृथ्वी गतिशील है। यूरोप के देशों में यह ज्ञान आधुनिक काल में हुआ। वे पहले पृथ्वी को स्थिर मानते थे। पृथ्वी को गतिशील बताने वाले वैज्ञानिक उत्पीड़ित किए गए। अथर्ववेद ईसा से लगभग तीन हजार वर्ष प्राचीन है। अथर्व के ऋषि पृथ्वी के गतिशील गुण से सुपरिचित थे।

कहते हैं, काल से ही पृथ्वी गतिशील है और दिव्यलोक काल के आश्रय में स्थित हैं।”(वही 2) अथर्ववेद का कालचिंतन गंभीर विचार के योग्य है। बड़ी बात है कि यहां हजारों वर्ष पहले काल धारणा थी। काल का विवेचन था। ऐसे जटिल दार्शनिक व वैज्ञानिक विषयों पर चिंतन था। अथर्वा अंगिरा वैदिक समाज के प्रतिष्ठित दार्शनिक ऋषि कवि थे। वैसे अथर्ववेद की कालधारणा में समस्त लोक काल आश्रित हैं लेकिन भृगु ऋग्वेद व यजुर्वेद के मंत्रों के साथ ही अथर्वा अंगिरा का पृथक उल्लेख नहीं भूलते।

इन दोनो दार्शनिक कवियों को भी काल में अधिष्ठित बताते हैं। (वही 5) काल ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। इस तरह वह आस्तिक भाव में प्रकृति की महान भावशक्ति बन जाता है। आयु कालअधीन हो जाती है और जन्म व मृत्यु भी। अथर्ववेद की कालधारणा आधुनिक वैज्ञानिक युग में भी प्रवाहित है। ऐसे काल प्रवाह नमस्कारों के योग्य हैं।