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दक्षिण की राजनीति को बदलने वाला साबित होगा लोकसभा चुनाव 2024

दक्षिण में मजबूती से पांव जमा रही भाजपा लगातार अपनी पैठ दक्षिण में बढ़ा रही है। लोकसभा चुनाव में इस बार कर्नाटक में भाजपा के लिए स्थितियां और बेहतर होने की उम्मीद है

नई दिल्ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तमिलनाडु दौरे ने पूरे देश का ध्यान दक्षिण भारत की ओर खींचा है। देश के इस हिस्से में भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस, क्षेत्रीय दल और वामपंथी भी मजबूती से पांव जमाए हुए हैं। दक्षिण भारत के पांच राज्यों की कुल 130 सीटों में भाजपा को सबसे अधिक उम्मीद कर्नाटक और तेलंगाना से रही है। लेकिन, इस बार तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश में भी भाजपा का मत प्रतिशत बढ़ना तय नजर आ रहा है। कई सीटों पर भाजपा को जीत का भी भरोसा है। इस बार के लोकसभा चुनाव दक्षिण की सियासत में बड़े बदलाव लाने वाले साबित होंगे।

हर बार की तरह इस बार भी भाजपा को सबसे अधिक उम्मीद कर्नाटक से ही है। यहां एक सवाल हर एक ही जुबान पर है। क्या भाजपा पिछला प्रदर्शन दोहरा पाएगी ? यह सवाल इसलिए पूछा जा रहा है क्योंकि, 2023 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने भाजपा को शिकस्त देकर राज्य की सत्ता हथिया ली थी। पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा को राज्य की 28 में से 25 सीटें मिली थीं। एक सीट पर भाजपा समर्थित निर्दलीय प्रत्याशी की जीत हुई। लेकिन, इस बार सियासी समीकरण और चुनौतियां अलग हैं। भाजपा का गठबंधन जद-एस के साथ है और सत्ता में कांग्रेस है। विधानसभा चुनावों में मिली जीत से उत्साहित कांग्रेस इस बार भाजपा गठबंधन को कड़ी टक्कर देने के लिए आक्रामक रणनीति अपना रही है। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार को कांग्रेस सरकार के गारंटी कार्यक्रमों पर भरोसा है। गारंटी कार्यक्रमों का असर कुछ हद तक ग्रामीण क्षेत्रों में नजर भी आता है। लेकिन, कांग्रेस पार्टी में वह विश्वास नजर नहीं आता जो विधानसभा चुनावों के दौरान दिखाई दे रहा था।

पीएम के चेहरे पर टिकी हैं संभावनाएं

भाजपा की संभावनाएं फिर एक बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे पर टिकी हैं। इसमें दो राय नहीं है कि, इस बार भी लोकसभा चुनावों में मोदी फैक्टर काफी निर्णायक साबित होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि और अयोध्या राम मंदिर निर्माण के बाद बदली हवा के दम पर भाजपा ने इस बार राज्य की सभी 28 सीटों पर जीत दर्ज करने का लक्ष्य रखा है। भाजपा की रणनीति की चार प्रमुख धुरी हैं। पहला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा। दूसरा राज्य सरकार की विफलताओं को उजागर कर तीखा प्रहार करना। तीसरा भाजपा का राष्ट्रीय एजेंडा और चौथा अयोध्या राम मंदिर निर्माण का मुद्दा। वहीं कांग्रेस हमेशा की तरह इस बार भी लोकसभा चुनावों को स्थानीय मुद्दों पर लड़ना चाहती है। इसलिए कांग्रेस केंद्रीय आवंटन और कर हस्तांतरण में कथित भेदभाव का मुद्दा जोर-शोर से उठा रही है। कांग्रेस सूखे से जूझ रहे राज्य को कथित केंद्रीय सहायता नहीं मिलने का मुद्दा  उठाकर  लगातार भाजपा को घेरने का प्रयास कर रही है। इन तमाम स्थानीय मुद्दों में सबसे आगे है गारंटी कार्यक्रम। लेकिन, गारंटी कार्यक्रमों से विकास परियोजनाओं पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर भाजपा हमलावर है। मध्यम वर्ग इन गारंटी योजनाओं को लेकर बहुत उत्साहित नजर नहीं आता।

भले ही कांग्रेस को विधानसभा चुनावों में सफलता मिली है लेकिन, कर्नाटक के मतदाता विधानसभा और लोकसभा चुनावों में फर्क करते हैं। जहां विधानसभा चुनावों में स्थानीय मुद्दों को तरजीह देते हैं वहीं, लोकसभा चुनावों में राष्ट्रीय एजेंडे पर मतदान करते हैं। वर्ष 1984-85 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव, वर्ष 2013-14 के विधानसभा और लोकसभा चुनाव समेत ऐसे कई उदाहरण हैं। दूसरा, दक्षिण भारत में कर्नाटक एक मात्र ऐसा राज्य है जहां लोकसभा चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन हमेशा अच्छा रहा है। पिछले चार लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा ने 60 फीसदी से अधिक सीटों पर जीत दर्ज की। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में 28 में से 18, वर्ष 2009 में 19, 2014 में 17 और 2019 में 25 सीटों पर जीत हासिल की। वर्ष 2004, 2013 और 2019 में कांग्रेस या कांग्रेस समर्थित सरकारों के रहते लोकसभा चुनावों के परिणाम भाजपा के पक्ष में रहे।

इस बार भाजपा क्षेत्रीय पार्टी जद-एस के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ रही है। भाजपा-जद-एस का यह गठबंधन पुराने मैसूर क्षेत्र में काफी महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। यहां पारंपरिक रूप से जद-एस मजबूत मानी जाती है। पिछले चुनावों में जद-एस का कांग्रेस के साथ गठबंधन था। लेकिन, दोनों दलों के कार्यकर्ताओं की आपसी रंजिश के कारण जमीनी स्तर पर गठबंधन पूरी तरह विफल रहा और भाजपा को उसका सीधा फायदा मिला। भाजपा के साथ जद-एस का गठबंधन सहज है और कारगर साबित हो सकता है। भाजपा और जद-एस के साथ आने से लिंगायत और वोक्कालिगा मतों का ध्रुवीकरण गठबंधन के पक्ष में होने की उम्मीद है।

लिंगायत भाजपा के साथ

प्रदेश की लगभग 17 फीसदी लिंगायत आबादी पारंपरिक रूप से भाजपा के साथ रही है जो उसकी सफलता की कुंजी है। पिछले विधानसभा चुनावों में लिंगायत मतदाता भाजपा से नाराज रहे। लेकिन, इस बार लिंगायत मतों को लेकर भाजपा आश्वस्त नजर आ रही है। खासकर, पूर्व मुख्यमंत्री एवं दिग्गज लिंगायत नेता बीएस येदियुरप्पा के बेटे बीवाई विजयेंद्र के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद स्थितियां काफी बदली हैं। इसके अलावा  16 फीसदी वोक्कालिगा आबादी पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा और मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी की पार्टी जद-एस के साथ खड़ी नजर आती है जिसके साथ भाजपा का गठबंधन है।

राज्य में लगभग 23 फीसदी दलित, 12 फीसदी मुस्लिम, 8 फीसदी कुरुबा, 5 फीसदी ब्राह्मण और लगभग 2 फीसदी ईसाई हैं। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के अल्पसंख्यक, हिंदू और दलितों को जोड़कर बनाया गया गया जातीय समीकरण अहिंदा कांग्रेस का मुख्य आधार है। लेकिन, लिंगायत और वोक्कालिगा मतों का ध्रुवीकरण अगर भाजपा-जद-एस गठबंधन के पक्ष में होता है तो भाजपा की राह आसान हो जाएगी। दोनों दलों के बीच सीटों का बंटवारा भी काफी संतोषजनक ढंग से हुआ है। इससे गठबंधन सफल होने की पूरी उम्मीद है। जद-एस तीन सीटों की मांग कर रही थी और भाजपा ने मान लिया। शेष 25 सीटों पर भाजपा चुनाव लड़ रही है। सभी 28 सीटों पर सीधा मुकाबला कांग्रेस के साथ ही है। सभी दलों ने अपने-अपने प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं और मुकाबले की तस्वीर साफ हो चुकी है।

भाजपा की तर्ज पर कांग्रेस ने भी दिया नए लोगों को मौका

इस बार के चुनावों में जहां सियासी समीकरण नए हैं वहीं, भाजपा और कांग्रेस दोनों ने नए उम्मीदवारों को भी मैदान में उतारा है। भाजपा ने आधे से अधिक उम्मीदवार बदल दिए हैं वहीं, कांग्रेस ने भी छह महिलाओं समेत कई युवा उम्मीदवारों को टिकट दिया है। अगर, वर्ष 1952 से अब तक के चुनावी इतिहास पर नजर डालें तो राज्य की जनता ने हमेशा किसी एक राष्ट्रीय दल का पक्ष लिया है और उसे कम से कम 16 सीटें जरूर दी हैं। ऐसे तमाम कारणों के चलते भाजपा का पलड़ा फिर एक बार भारी नजर आता है। अगर 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा फिर एक बार कांग्रेस को धूल चटा दे, तो आश्चर्य नहीं होगा।

डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।