नई दिल्ली। गुरुवार का दिन…राजनीतिक खबरों के लिहाज से काफी अहम रहा….एक तरफ जहां मुंबई में इंडिया गठबंधन के विपक्षी दलों की बैठक हुई, तो वहीं दूसरी तरफ केंद्र की मोदी सरकार ने संसद का विशेष सत्र आहूत करने का फैसला किया, जिसके बाद मुंबई में बैठक कर रही विपक्षी नेताओं के खेमे के बीच खलबली मच गई। विपक्षियों ने इसका विरोध किया। कांग्रेस की ओर से सबसे पहले अधीर रंजन चौधरी ने कहा कि जब नवंबर दिसंबर में शीतकालीन के सत्र होना ही है, तो विशेष सत्र बुलाए जाने की आवश्यकता क्यों पड़ी। ध्यान दें, पिछले 9 सालों में आज तक विशेष सत्र आहूत करने की परिस्थितियां पैदा नहीं हुई थीं, लेकिन आपको बता दें कि जीएसटी बिल को संसद में पेश करने के लिए मध्यरात्रि को सदन का विशेष सत्र आहूत किया गया था।
बहरहाल, इसके बाद खबर आई कि सरकार इस विशेष सत्र के दौरान महिला आरक्षण बिल और एक देश एक चुनाव का बिल पेश कर सकती है। वहीं, विपक्ष की ओर से महिला आरक्षण बिल को लेकर, तो कुछ खास प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली, लेकिन आपको बता दें कि एक देश एक चुनाव को लेकर प्रतिक्रियाओं का बाजार गुलजार हो गया। विपक्षियों ने इसका खुलकर विरोध किया। ध्यान दें, 1952, 1957, 1962 और 1967 तक एक साथ लोकसभा और विधानसभा के चुनाव हुए थे, लेकिन 1968 और 1969 में कुछ राज्यों की विधानसभा समयपूर्व भंग हो गई थी, जिसकी वजह एक साथ चुनाव कराए जाने का सिलसिला टूट गया। वहीं,1971 में समयपूर्व लोकसभा के चुनाव कराए गए थे, लेकिन इसके बाद लगातार एक साथ चुनाव कराए जाने का सिलसिला टूट गया।
वहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई मौकों पर एक साथ लोकसभा और विधानसभा के चुनाव कराए जाने की वकालत कर चुके हैं। बीते मानसून सत्र के दौरान भी उन्होंने एक साथ चुनाव कराए जाने की जरूरत पर बल दिया था। पीएम मोदी ने यहां तक कहा था कि जब मेरी कुछ विपक्षी नेताओं से मुलाकात होती है, तो वो भी एक साथ चुनाव एक साथ कराए जाने की वकालत करते हैं। वो ये मानते हैं कि हमें बार-बार के चुनाव के झंझट से बाहर आ जाना चाहिए, जिसे ध्यान में रखते हुए अब केंद्र की मोदी सरकार ने ‘एक देश एक चुनाव’ का बिल संसद के विशेष सत्र में पेश करने की बात कही है।
ध्यान दें, एक साथ चुनाव कराए जाने से देश का धन बचेगा। इससे धन और समय की बर्बादी रूकेगी। एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2019 के लोकसभा चुनाव को संपन्न कराने में 55 हजार करोड़ खर्च हुए थे और इस तरह से करोड़ों रुपए हर चुनाव में पानी की तरह बहाए जाते हैं। जिस पर रोक लगाने के मकसद से केंद्र की मोदी सरकार ने अब एक साथ एक चुनाव कराए जाने की बात कही है। आंकड़ों के मुताबिक, आजाद भारत में जब पहली बार चुनाव हुए थे, तो 11 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। वहीं, धीरे-धीरे ये आंकडे़ तेजी से बढ़ते गए। ऐसे में अगर लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए गए, तो यह कहने में कोई दो मत नहीं है कि इससे देश का अमूल्य समय और धन दोनों बचेगा।
बता दें कि बार-बार चुनाव कराए जाने से विकास का पहिया भी अवरुद्ध होता है। चुनावी सूबों में सुरक्षाबलों की तैनाती की जाती हैं, जिसमें सरकार को पानी की तरह पैसा बहाना पड़ता है, लेकिन इस बात को भी सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है कि एक साथ चुनाव कराने की राहों में कुछ चुनौतियां भी मुंह बाएं खड़ी हैं। आइए, इन चुनौतियों पर भी एक नजर डालते हैं।
एक देश एक चुनाव की चुनौतियां
वैसे तो लोकसभा और विधानसभा चुनाव पांच साल के अंतराल पर होते हैं, लेकिन अगर कोई समयपूर्व लोकसभा और विधानसभा भंग हो जाती है, तो एक साथ चुनाव कराए जाने की परिकल्पना चौपट हो जाएगी। वहीं, एक साथ चुनाव कराने के मत को वास्तविक रूप देने के लिए सभी दलों को एकजुट करना होगा। लेकिन इस बात को भी सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है कि सभी दलों का मत अलग-अलग है। ऐसे में सभी दलों को एकजुट करना चुनौतीपूर्ण होगा। ध्यान दें, 1990 में विधि आयोग ने एक साथ चुनाव कराए जाने की सिफारिश की थी। विधि आयोग ने चुनावी सुधारों की पैरोकारी की थी।
इन देशों में लागू है एक देश एक चुनाव की प्रणाली
बता दें कि आज भी दुनिया के कई देशों में एक साथ लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराए जाते हैं, जिसमें जर्मनी, हंगरी, स्पेन, पोलैंड, इंडोनेशिया, बेल्जियम, दक्षिण अफ्रीका, स्लोवेनिया और अल्बानिया शामिल हैं।
केंद्र ने तेज की तैयारी
उधर, केंद्र सरकार ने एक देश एक चुनाव की प्रणाली को जमीन पर उतारने की कवायद तेज कर दी है। इस सिलसिले में आज कमेटी का गठन किया गया है, जिसका अध्यक्ष पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को बनाया गया है। अब इस दिशा में आगामी दिनों में क्या कुछ कदम उठाए जाते हैं। इस पर सभी की निगाहें टिकी रहेंगी।